गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

३१ दिसम्बर का उपहार


31 दिसम्बर 2010
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सन् 1985 जाते--जाते मयंक (सबसे छोटा बेटा) के रूप में एक उपहार हमें देगया था । मुझे याद आता है कि इसी तरह बुआ या जीजी घर से जब विदा होतीं थीं तो जाते-जाते हमारी हथेली पर रुपया-दो रुपया जरूर रखतीं थीं और वह राशि हमारे बड़ी यादगार और अनमोल हुआ करती थी ।
यों तो हर माँ को अपनी हर सन्तान विशिष्ट ही लगती है ।लेकिन मयंक की कई बातें हैं जो सचमुच विशिष्ट हैं ।वह बहुत छुटपन से ही रोना तो जैसे जानता ही नही था मानो ,मम्मी को कोई परेशानी न हो इसे वह जन्म से ही सीख आया था । जब वह दो ही साल का था चाक से आँगन में चित्र बनाता था, इतनी फुर्ती से कि देखने वाले चकित रह जाते थे ।
जब वह ढाई साल का था तभी वह उसने अक्षरों के बारे में अपने मौलिक अनुसन्धान (, कि र से स,य थ, श कैसे बन सकते हैं और ट से ही ठ,ड ढ द ह बनाए जा सकते हैं । च को उल्टा जोडो तो ज बनता है और प ष, म भ,घ ध में तो जरा सा ही अन्तर है ...आदि,) ने मुझे विस्मित कर दिया था । मैं हैरान थी कि इसने वर्णमाला कब , कैसे सीखली । सीख ही नही ली उसे इतनी सूक्ष्मता से समझ भी लिया ।
पहली कक्षा में उसने यह कविता भी लिख डाली थी ----

मेरे पास थी एक पतंग ।
चटक लाल था उसका रंग ।
फर्..फर्..फर्..फर् उडती थी ।
साथ हवा के चलती थी ।
पतंग में एक हाथी था ।
वह तो मेरा साथी था ।
जाने कहाँ वो चली गई ।
संग हवा के चली गई ।
मेरे पास थी एक पतंग।

बहुत अच्छा परिवेश व परवरिश न मिलने के कारण मयंक की प्रतिभा को निश्चित रूप से सही दिशा नही मिल पाई ।वह भी बेंगलुरु में ही इंजीनियर है । सब जानते हैं कि आज इंजीनियर बनना और किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी में नौकरी पाना युवाओं के लिये बड़ी बात नही रह गई है । फिर भी मयंक जहाँ भी है-----जो कुछ है उससे बेहतर चाहिये---का संकल्प उसके साथ है ।
इस समय वह बर्फवारी से घिरे न्यूयार्क शहर में है । पिछले साल जब वह न्यूजर्सी में था ,पहली बार वहाँ के वैभव ,बर्फीले सौन्दर्य और हडसन नदी के वैभव-विस्तार को देख उत्साहित होने के साथ उदास भी था ।बोला -मम्मी सब कुछ अच्छा है पर कमी यह है कि यह सब भारत में नही है । अपने देश , अपनी धरती के लिये उसके भाव-विचार मुझे आश्वस्त करते हैं ।
कल बातों-बातों में ही उसने कहा ---माँ , मुझमें ऐसी कोई बात ही कहाँ है जो मेरे लिये कुछ लिखा जाए । सच तो यह है कि वह सबसे छोटा व प्यारा होने के साथ कई बातों में इतना बड़ा व समझदार भी है कि जो भी लिखती हूँ प्रयोगवादी कविता के युग में भारतेन्दु-युग की रचना सा लगता है । उसके मना करने पर भी मैं केवल एक प्रसंग यहाँ दे रही हूँ जो बहुत छोटेपन में ही आगए उसके बड़ेपन को दर्शाता है ---- मयंक को एक दोस्त राहुल के साथ मेला जाना था । महीने का पहला सप्ताह होने के कारण भी और सबसे छोटे के लिये उदार भाव होने के कारण मैंने उसे पचास रुपए दिये ।कहा कि कुछ अच्छा खा-पीलेना । कुछ खरीदने लायक बजट था भी नही। शाम को जब लौटा तो उसके हाथ में गोर्की का उन्यास (माँ) था । मैने हैरान होकर इस खरीददारी का कारण पूछा तो उसने बताया कि पिछले साल आपने पैसे कम होने के कारण यह किताब लेते--लेते छोड़दी थी । इसलिये ....
पर यह तो 63 रुपए की है --मैंने कहा तो बोला कि तेरह रुपए राहुल से उधार ले लिये थे ।
पर बेटा ,पहले तो यह कि किताब खरीदना जरूरी नही था । किसी और दिन ले आते ।
माँ, रूसी किताबों की दुकान कल जाने वाली है । खाना -पीना तो फिर भी हो जाएगा ।
पर उधार केवल तेरह रुपए ही क्यों , ज्यादा ले लेता । यानी कि तुमने कुछ खाया पिया भी नही .यह बुरी बात है । मैंने पैसे इसलिये तो नही दिये थे ।
मेरी बात के उत्तर में उसने कहा --सॅारी मम्मा लेकिन , जब तक बहुत जरूरी न हो तब तक उधार नही लेना चाहिये न । फिर क्या कहती मैं ।
कुछ पंक्तियाँ मयंक के लिये---

सागर में लहर तू है
नदिया में भँवर तू है ।
ऊबी थकीं ---तिमिर से
आँखों को सहर तू है ।

खिल-खिल हँसी जो निकली
क्यों आँसुओं में बदली ।
तुझको पता नदी कब
किन घाटियों ने निगली ।
टकराने , जीत जाने की
पहली खबर तू है ।

सपनों के नीड छोड़े
रुख अँधेरे के मोड़े
बिखरे जो चिन्दियों में
संकल्प तूने जोड़े ।
पर्दों के पार देखे
वह तीखी नजर तू है ।

लगने लगा मुझे तो
छोटा दुआ का दामन
आकाश आ समाया
छोटे से अपने आँगन ।
है कही भी मरुस्थल
तो उसमें नहर तू है ।
असीम स्नेह व शुभ-कामनाओं के साथ
माँ

मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

छोटे दिन---दो कविताएं

22 दिसम्बर वर्ष का सबसे छोटा दिन माना जाता है । यानी दस घंटे का दिन और चौदह घंटे की रात ।यों खान-पान पहनावा,स्वाद व स्वास्थ्य ,सभी तरह से अच्छी होने के बावजूद मुझे शीतऋतु जरा कम ही अच्छी लगती है । इसके पीछे कई कारणों में से एक यह भी है कि इस ऋतु में दिनों का वही हाल हुआ लगता है जो हाल सस्ते डिटर्जेन्ट की धुलाई से शिफॅान की साडी का हो जाता है । दिन की चादर को खींच कर रात आराम से पाँव पसार कर सोती है । सूरज जैसे अपनी जेब से बडी कंजूसी से एक-एक पल गिन-गिन कर देता है । यहाँ छोटे दिनों पर दो कविताएं हैं । दोनों ही कविताएं दस-बारह वर्ष पहले लिखी गईं । दूसरी कविता बाल--पाठकों के लिये लिखी गई है ।
(1)
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मँहगाई सी रातें
सीमित खातों जैसे दिन ।
हुए कुपोषण से ,
ये जर्जर गातों जैसे दिन ।

पहले चिट्ठी आती थीं
पढते थे हफ्तों तक
हुईं फोन पर अब तो
सीमित बातों जैसे दिन ।

वो भी दिन थे ,
जब हम मिल घंटों बतियाते थे
अब चलते--चलते होतीं
मुलाकातों जैसे दिन ।

अफसर बेटे के सपनों में
भूली भटकी सी ,क्षणिक जगी
बूढी माँ की
कुछ यादों जैसे दिन ।

भाभी के चौके में
जाने गए नही कबसे
ड्राइंगरूम तक सिमटे
रिश्ते--नातों जैसे दिन ।

बातों--बातों में ही
हाय गुजर जाते हैं क्यों
नई-नवेली दुल्हन की
मधु-रातों जैसे दिन ।

(2)
(बाल कविता)
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दादाजी की पगडी जैसी लम्बी रातें हैं
चुन्नू जी के चुनमुन चड्डी ,झबलों जैसे दिन

लम्बी और उबाऊ,
जटिल सवालों सी रातें
उछल-कूद और मौज-मजे की
छुट्टी जैसे दिन

जाने कब अखबार धूप का
सरकाते आँगन
जाने कब ओझल होजाते
हॅाकर जैसे दिन

जल्दी-जल्दी आउट होती
सुस्त टीम जैसे
या मुँह में रखते ही घुलती
आइसक्रीम से दिन

ढालानों से नीचे पाँव उतरते हैं जैसे
छोटे स्टेशन पर ट्रेन गुजरते जैसे दिन।

कहीं ठहर कर रहना
इनको रास नहीं आता
हाथ न आयें उड-उड जायें
तितली जैसे दिन ।

पूरब की डाली से
जैसे-तैसे उतरें भी
सन्ध्या की आहट से उडते
चिडिया जैसे दिन ।

रविवार, 12 दिसंबर 2010

दो लघुकथाएं
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(1) --सन्दिग्ध
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देखो, ऐसा करना-----चलते--चलते कनक ने पत्नी को समझाया ----अगर मुझे ऑफिस में जरूरी काम न होता तो राजन जी को मैं खुद ही अटेण्ड करता । अब तुम्हें ही करना होगा इसलिये कुछ न हो तो पडौस से टीनू या बबलू को ही बुला लेना कुछ तो मदद मिलेगी ही । और फिर.....कहते-कहते कनक रुक गया ।और सोनिया का चेहरा देखने लगा जिस पर हैरानी के भाव थे ।
राजन सोनिया के भाई का दोस्त है और सोनिया का सहपाठी भी । यहाँ विभाग के किसी काम से आया है। कनक से अनायास ही भेंट होगई तो औपचारिकतावश घर आने को कहना ही पडा ।अब उसकी ट्रेन शाम सात बजे है। और कनक छह बजे से पहले नही लौट पाएगा । तब तक सोनिया को अकेले ही सब देखना होगा और फिर......कनक आगे कहते-कहते रुक गया ।
पर इतने छोटे बच्चे भला क्या मदद करेंगे ---सोनिया ने हैरानी से पति को देखा । वैसे भी कोई खास काम नही है । बाजार से कुछ लाना नही है । खाना बन ही चुका है । बस परोसना ही तो है । टीनू--बबलू को बुलाने की क्या जरूरत ।
जरूरत है-------कनक ने जोर देकर कहा--- हर बात को अपने हिसाब से मत देखा करो । तुम घर में अकेली हो और.......सोनिया , लोगों को बात बनाते देर नही लगती ।बच्चे रहेंगे तो..........।
सोनिया कनक के आशय को समझ कर आहत होगई । बोली-----कनक , राजन मेरे भाई जैसे हैं ।
पर भाई तो नही है न । कनक ने तपाक से कहा और बाहर निकल गया । सोनिया अवाक् सी पति को देखती रह गई

( 2 ) फर्क
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माँ ,विनीता को साकेतनगर जाना है ।
सुनील की बात सुनकर मेरे मन में हल्का सा विरोध जागा और साथ में कई सवाल भी । साकेतनगर यानी अपनी माँ के घर । पर क्यों ....आज ही तो सुबह दोनों पूना से आए हैं वह भी सिर्फ हफ्ताभर के लिये । अभी बैग, सूटकेस खुले तक नही हैं । इसके अलावा विनीता की माँ अभी कुछ दिन पहले ही महीनाभर पूना रह कर लौटी हैँ । मुझे तो फिर भी दोनों छह माह बाद मिल रहे हैं । वैसे भी मेरी अपनी कोई बेटी नही है । विनीता ही मेरी बहू भी है और बेटी भी । कबसे उसके आने का इन्तजार था । उसके आने से घर कैसा भरा-भरा लगरहा है ।पहले कितनी सारी बातें सोच रखी थी मैंने । दोनों को --क्या बना कर खिलाऊँगी । कहाँ-कहाँ चलेंगे । कितनी सारी बातें करेंगे । और भी कितना कुछ । पर यह क्या ..विनीता ने आते ही माँ के पास जाने की योजना बना ली । मुझे बताए बिना ही .....।
ये सारी बातें सोचते हुए मैंने स्नेह व कुछ अधिकार से कहा ---
बेटी अभी तो हम लोग ठीक से मिले बैठे भी नहीं हैं । साकेत नगरभी चली जाना । पहले मेरे साथ तो....
आपके साथ तो रहूँगी ही-----विनीता ने मेरी पूरी बात सुने बिना ही कुछ उदासी के साथ कहा-----पर मम्मी अकेली हैं । भाभी मायके चली गईं हैं ।...मम्मी की तबियत भी ठीक नही है । इसलिये मैं सोच रही थी कि ....।
बातें सहज-स्वाभाविक होते हुए भी मुझे झिंझोड गईँ ।मायके जाने के पीछे विनीता के तर्क नही , वह आत्मीयता व संवेदना प्रमुख थी जो एक बेटी की माँ के लिये होती है । ये सारी समस्याएं मेरी भी हो सकतीं थीं यदि विनीता मेरी बेटी होती । पहली बार मुझे बेटी की कमी खली । बहू और बेटी के इस फर्क को स्वीकार करते हुए मैंने विनीता के जाने को सहज रूप में ले लिया । मेरे पास और कोई चारा भी तो नही था ।

गुरुवार, 25 नवंबर 2010

क्या लिखूँ





26 नवम्बर 2010---ग्वालियर
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प्रशान्त



अगर कोई तीस-बत्तीस साल का सुन्दर युवक चिडियों--गिलहरियों ,पिल्लों या छोटे बच्चों की हरकतों पर मुग्ध होता हो, खुद से ज्यादा दूसरों की परेशानी से परेशान होता हो ,दूसरों की भावनाओं का खास ख्याल रखता हो , आक्रोश व आरोपों को शान्त रह कर सुनता हो ,झूठ ,छल, बेईमानी व भ्रष्टाचार के प्रसंग पर बेहद संजीदा हो जाता हो , जो परिवार से आगे समाज राष्ट्र विश्व और फिर ब्रह्माण्ड तक सोचता हो पर माँ से वांछित स्नेह न मिलने की शिकायत छोटे बच्चे की तरह करता हो तो वह निस्सन्देह गुल्लू ही होगा । गुल्लू यानी प्रशान्त, बडा बेटा ,भारतीय अन्तरिक्ष अनुसन्धान केन्द्र( इसरो) बैंगलुरु में एक वैज्ञानिक । मेरे लिये वह केवल एक बेटा ही नही है । मेरे खाने-पीने , दवा लेने ,समय से सोने जागने के लिये एक पिता की तरह निर्देश देता है ,मेरी अनियमितताओं पर नाराज होता है । और मेरे सिरदर्द तक की बात सुन कर एक माँ की तरह ही चिन्तित भी होता है । और अपनी बहुत सारी बातें मैं उसे मित्र की तरह ही सुना सकती हूँ ।सन् 1978 के नवम्बर की 26 तारीख को सुबह 5.45 पर गुल्लू का जन्म सचमुच सूरज उगने जैसा ही हुआ था । गर्भ में उम्मीदों के सूरज को सहेजे दो-रातों की पीडा के पश्चात् हुई सुबह कई अर्थों में जीवन की एक अपूर्व-अनौखी सुबह थी ।
गुल्लू के बारे में लिखने को बहुत कुछ है ।पहली सन्तान होने के नाते स्नेह के साथ--साथ उससे कुछ ज्यादा ही अपेक्षाएं और आकाँक्षाएं, और इसीलिये पाबन्दियाँ भी खूब रहीं हैं ।पर इन सबसे जकडे उसके बचपन के लिये वेदना भी अपेक्षाकृत अधिक रही है। कई बातों के लिये उसके प्रति मन में एक अपराध-बोध सा आज भी है । पलाश ( शैक्षिक पत्रिका राज्य शिक्षा केन्द्र भोपाल) के फरवरी 2002 अंक तथा जनवरी 2007 के अंक में प्रकाशित दो कहानियाँ--छोटी सी बात तथा पहली रचना --विशुद्ध रूप से गुल्लू पर ही केन्द्रित हैं ।
आज गुल्लू ने बत्तीस वर्ष पूरे कर लिये हैं । वह --सुन्दर समझदार और सी.डॅाट में इंजीनियर--सुलक्षणा का पति ही नही ,चार साल की मान्या का पिता भी है ,पर मेरे लिये वह अभी तक गुल्लू बना हुआ है । बच्चों सा ही निश्छल , सच्चा , संवेदनशील । मैं कभी उसे प्रशान्त कहती हूँ तो टोक देता है----क्या मम्मी ... । रोज फोन पर भी सबसे पहले यही सुनाई देता है --मम्मी मैं गुल्लू बोल रहा हूँ ।
और तब मुझे लगता है , ...लगता है .....पर कैसे लिखूँ कि क्या लगता है क्यों कि इस अहसास के लिये तो मेरे पास कोई उपमा ही नही है ।बस है तो उसके दीर्घायु , प्रसन्न ,ऊर्जावान्, स्वस्थ व सक्रिय बने रहने की कामना व प्रार्थना । यहाँ उसके लिये बहुत पहले लिखी गईं दो कविताएं हैं ।

क्या लिखूँ --1
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क्या लिखूँ आज तेरे लिये
मेरे प्रथम कोमल गीत
मेरे वत्स
मेरे मीत ।
अवाक् है ह्रदय
फिसल रहे हैं शब्द
पारे की बूँदों की तरह
मेरी उँगलियों से ।
व्यक्त करना चाहती हूं
वह अहसास
जो होता है
तेरी सस्मित आँखों को देख कर
लौटाऊँ तुझे वे सारी खुशियाँ
जो मुझे दी हैं तूने
अनवरत,अविकल
हर दिन, हर पल
पर, कितनी अकिंचन मैं,
दे न सकी आज तक तुझे
एक शब्द भी .
शब्द ,जो बन जाता
तेरे पाँव तले एक ठोस धरातल ।
शब्द , जो बन जाता
एक स्नेहमय हाथ
तेरे सिर पर
करता तुझे आश्वस्त ..निश्चिन्त
तू ही तो देता रहा मुझे
कितना कुछ
अकथ्य, असीम ...
छलक कर जो
ह्रदय की गहराइयों से
सींचता रहा है
एक रेगिस्तान को
मेरे वत्स , मेरे मीत
मैं भला क्या दूँ तुझे
मेरे प्रथम कोमल गीत ।
( 26 नवम्बर 1996 को रचित)






तुझसे दूर --2
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भूल गई हूँ मैं
जैसे रख कर कहीं
अपना चश्मा
मेरी नजरों के नूर
तुझसे दूर .
उतर आतीं थीं शाखों से
कितनी गिलहरियाँ..
खुशियाँ---इस आँगन में
उठाने मूँगफली के दाने
मेरी हथेली से ।
फिरतीं थीं आगे--पीछे
ऊपर-नीचे
अब चलीं गईं हैं जाने कहाँ
जैसे हवा में जैसे कपूर
तुझसे दूर ।


मयंक, प्रशान्त और विवेक





नीम अमरूद की टहनियों पर
छत की मुँडेर पर
आँगन में ..हर कहीं
चहकती--फुदकती रहती थी
गौरैया--तेरी मुस्कान
नही दिखाई देती अब
कही भी अभिराम
सुबह,दोपहर, शाम ।
और ताव खाकर
कच्चे अमरूद कुतरता
नोंच-नोंच कर पत्ते गिराता
मिट्ठू--तेरा गुस्सा
ठहर कर नही रहता था कभी
एक जगह देर तक
अब हैं सूनी शाखें
खाली आँखें
रहीं हैं बस
आसमान को घूर
तुझसे दूर ।
झाडू लगे आँगन में
बार--बार सूखे पत्ते बिखरात
हवा का शरारती झौंका--तेरा तरीका
नहीं आता किसी खिडकी--दरवाजे से
हर चीज ठहरी है अपनी जगह
अब क्या सँवारूँ..
क्या समेटूँ ।
कुछ भी तो नहीं है करने को
फिर भी हाथ--पाँव
थक कर हैं चूर
तुझसे दूर ।
रातों--रात गुलाब की टहनियों पर
जब खिलते जाते थे
कितने फूल---मेरे गीत
दिखाती थी तुझे सुबह--सुबह
अब तो जाने कबसे
खिला नही एक भी फूल
नही निकली एक कली तक
सूना पौधा खामोश खडा है
करके जैसे कोई कसूर ।
तुझसे दूर ।
26 नवम्बर 2002
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रविवार, 14 नवंबर 2010

मान्या का जन्मदिन

बैंगलोर--14 नवम्बर


मान्या होगई चार साल की ।
बातें करती है कमाल की ।
साँसों को ताजी बयार सी ,
खुशबू है मेरे रूमाल की

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बाल-दिवस यानी 14 नवम्बर को नेहरू जी के जन्मदिन के रूप में ही जाना जाता है । पर मेरे लिये आज का दिन और भी बहुत खास दिन है । क्यों न हो आज के दिन
ही तो मान्या हमारे जीवन में आई और प्रशान्त--सुलक्षणा को पिता--माता के साथ मुझे भी एक नई पदवी मिली---दादी । यहाँ (बैंगलोर ) के सेन्ट फिलोमिना हास्पिटल में रात-भर की प्रतीक्षा के बाद एक नर्स ने कोमल और आत्मीय मुस्कराहट के सा
थ जब यह नन्ही परी मेरी गोद में दी थी तब मुझे लगा कि मैं अचानक काफी बडी और
ज्यादा खास होगई हूँ । मान्या को पाकर ही महसूस हुआ कि दादी बनने का सुख सचमुच जीवन की प्यारी और खूबसूरत उपलब्धि है । उसके लिये मैंने समय--समय पर कई कविताएं लिखी हैं जिनमें कुछ गुल्लक, पलाश व चकमक में छपीं भी हैं। इसी ब्लाग में 15 जून को प्रकाशित-- मान्या को लिखना तो देखो--विता आप पढ ही चुके हैं । नही , तो अवश्य पढें । भाई रवि ने अपने ब्लाग -सरस पायस में भी दो कविताएं लीं हैं । उन्ही में से कुछ कविताएं आप यहाँ भी पढें और मान्या को अपना आशीर्वाद दें---

( 1 )
नाजुक चंचल है
नन्ही कोंपल है
पत्तों पर शबनम सी निर्मल
झिलमिल-झिलमिल है
फुलबगिया सी मेरी गुडिया
कोमल--कोमल है ।

रेशम सी गभुआरी अलकें
पलकें हैं पंखुडियाँ
कोई आहट सुनती है तो
झँपकाती है अँखियाँ ।
विहगों के कलरव जैसी वह
हँसती खिलखिल है ।
फुलबगिया सी ...।

किलक-किलक कर पाँव चलाती
चप्पू दोनों हाथ चलाती
पंखुडियों से होंठ खोल कर
आ.आ..ऊँ..ऊँ..ऊँ बतियाती ।
नदिया की धारा बहती ज्यों
कलकल कुलकुल है ।
फुलबगिया सी...।

नन्हे नाजुक हाथ
हथेली नरम नवेले पत्ते
शहतूती सी हैं अँगुलियाँ
गाल शहद के छत्ते ।
फूलों की टहनी पर जैसे
चहके बुलबुल है । 
फुलबगिया सी .मेरी गुड़िया 
कोमल कोमल है ।
( 2 )
मान्या होगई कितनी खब्बड.
लोहा लक्कड माटी मक्कड
रोटी बिस्किट कागज कक्कड
जो कुछ भी हाथों में आए,
सीधा मुँह में जाए ।

कितने नखरे हैं हमसे
खाती--पीती थोडा ही ।
अपने हाथों से खाना चाहे
हाथी--घोडा भी ।

पेन सम्हालो छुन्नू जी
अखबार किताब उठालो ।
अपना चश्मा ,घडी बचाना चाहो
अभी बचालो ।

लगती है हर चीज उसे तो
टॅाफी रंग-बिरंगी ।
जैसे हनुमान ने समझा
सूरज को नारंगी ।
(3)
जाग गई है नन्ही मान्या,
गहरी निंदिया सोकर ।
जैसे हवा अभी आई है,
अपनी आँखें धोकर ।

नींद होगई है पूरी
अब जीभर कर खेलेगी ।
फुर्ती से हर चीज तुम्हारे
हाथों से ले लेगी ।
(4)
डु्ड्..डू...डुड्.ड्...आहा..
होगई अपने आप खडी
हुई पहले से जरा बडी ।

रुपहली बाल बाजरा की
दूधिया दानों से है जडी
मटर की बेल सजाए खडी
श्वेत पुष्पों की जैसे लडी ।

खींचती पल्लू ,पकडे हाथ
छुडाएगी अब मेरी घडी ।
हुई पहले से जरा बड़ी ।
(5)

मान्या स्कूल चली
गुंजा सी खिली--खिली ।
सजधज दरवाजे पर
ज्यों भोर खडी उजली।

बस ढाई साल की है यह
नटखट कमाल की है यह
चंचल है मनमौजी है
अपने खयाल की है यह ।

बस्ता में भर कर सपने
मन में ले जिज्ञासाएं ।
चलती है उँगली पकडे
कल खुद खोजेगी राहें ।

जो पाठ आज सीखेगी
कल हमको सिखलाएगी
खुद अपना गीत रचेगी
अपनी लय में गाएगी ।

गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

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लघुकथा --बचत

लंच-टाइम था ।स्टाफ की सभी महिलाएं चाय-नाश्ते के साथ अपने परिजनों ,रिश्तेदारों, तथा घर की बातों द्वारा अपनी ,प्रोग्रेस और ,स्टेटस ,जताने में बढ-चढ कर हिस्सा ले रही थीं ।यह समय आपस की महत्त्वपूर्ण सूचनाओं के आदान-प्रदान का होता है ।---पूनम की

बेटी हनीमून के लिये बैंकाक गई है ।अरुणा के बेटे ने इनोवा खरीद ली है ।नीतू के मिस्टर ने मैरिज-ऐनिवर्सरी पर डायमण्ड का सेट दिया है ।तो निर्मला साडी के नाम पर शिफॅान, काँजीवरम् ,या मैसूर-सिल्क से नीचे बात ही नही करती । सरोज जी सफर के लिये सेकण्ड ए.सी. या फ्लाइट से नीचे बात नही करती तो नीलम की शॅापिंग मॅाल या सुपर-मार्केट में ही हो सकती है । अगर उमा जैसी निम्न-मध्यम वर्ग की महिला कह बैठे कि ,मॅाल में चीजें मँहगी भी मिलतीं हैं और उतनी वैरायटीज भी नही मिलतीं , तो फिर नीलम शुरु होजाती है---फिर शायद तुम कभी गई ही नही हो वहाँ । सब बडे और पढे-लिखे लोग मॅाल से ही खरीददारी करते हैं ।...हर चीज ए-वन जो होती है । हाँ पैसा तो लगता है पर हम क्वालिटी के नाम पर कम्प्रोमाइज नही करते ..आज कल हजार-पाँच सौ की कीमत ही क्या है ।

उस दिन भी बहस व तनाव के साथ इसी तरह की बातें चल रहीं थीं । तभी वहाँ एक महिला आई ।कई थैलों से लदी-फदी ,पसीने से नहाई, और हाँफती हुई सी ।चेहरे से कुलीन, सुशिक्षित और सौम्य दिखती थी ।स्टाफ की महिलाएं उसे ऐसे देख ही रहीं थी जैसे वातानुकूलित डिब्बे में बैठे यात्री गीत गाकर पैसा माँगने वाले बच्चे को देखते हैं, वह बोल पडी---

नमस्ते मेम, मेरे पास आपके लायक सेवइयों, नूडल्स, पास्ता, मैक्रोनी, और पापडों की अच्छी वैराइटीज हैं।

अच्छा , दिखाओ --अरुणा जी ने उत्सुकता दिखाई तो अन्य शिक्षिकाएँ भी पैकेटों को उलट-पलट कर देखने लगीं ।

बेम्बिनो की हैं मेम, आपको पसन्द आएंगीं ---अच्छी बिक्री की सम्भावना देख कर वह महिला उत्साहित होकर बोली ।और थैले में से और सामान दिखाने लगी ।

एक-दो पैकेट सेवइयों के लेने तो थे----चल, पास्ता के भी दो पैकेट ले लूँगी --अरुणा जी ने ऐसे कहा मानो सामान लेकर वे उस महिला पर अहसान कर रहीं हों । फिर तो एक साथ कई माँगें उठी---मेरे लिये एक नूडल्स का पैकेट...मेरे लिये पापड का , और मेर लिये मैक्रोनी....।

पहले कीमत तो तय करवा लो---नीलिमा ने कहा तो महिला चतुराई से मुस्कराई---

आपसे ज्यादा थोडी लूँगी मे,म ।

फिर भी तय करना ठीक रहता है --पूनम ने समर्थन किया तो उसने सेवइयों के पैकेट उठा कर कहा---मेम रोस्टेड पैकेट तास का है और सादा पच्चीसका ..।

और, फिर भी कह रही है कि आपसे ज्यादा न लूँगी -नीलम व्यंग्य से मुस्कराई ।पूनम अनुभवी चातुर्य के बोली---मार्केट में रोस्टेड सत्ताइस का और सादा बाईस का मिल रहा है । कितने लादूँ ।

अर् रे यार ये तो बेचने वालों के हथकण्डे हैं । तुझे लेना है तो ले नही तो....।

मेम, ये सारी चीजें कम्पनी की हैं ।--महिला कुछ परास्त स्वर में बोली पर उसके आगे बोलने से पहले ही अरुणा जी ने उसे आडे हाथों लिया ---तो तुझे पता नही , कि हम हमेशा ब्राण्डेड चीजें ही खरीदते हैं हमारे घर आकर देख....।हमारे यहाँ लोकल नही चलता ।

लो यह तो शुरु होगई----सरोज नीलम के कानों में फुसफुसाई फिर जोर से बोली ---अरे जाने दे... हाँ ,बहन तू बता सही-सही दाम क्या लेगी ।या कि सारा मुनाफा हमी से कमाएगी ।

इस बात पर एक ठहाका बुलन्द हुआ ।वह महिला कुछ आहत हुई । आँखों में नमी सी आगई ।

मेम, ऐसे तो कोई भी ज्यादा नही देता । मैं ऐसे ही सामन बेचने नही निकली । मैं भी अच्छे घर की हूँ ।पर मजबूरी है । मिल बन्द होगया । एकदम से कोई काम-धन्धा नही है सो...अब एक-दो रुपया भी न मिले तो कोई काहे दर-दर भटके...।

अब काम तो सभी कर रहे हैं बहन ।-पूनम निस्संगता से बोली ।पर इतना फालतू पैसा किसके पास है कि, कही भी डालदे ।सारी दुनिया सयानी है ।

चलिये ,आपके लिये रोस्टेड अट्ठाइस का और सादा तेईस का लगा देती हूँ । ले लो मेम । बोनी हो जाएगी ।--महिला ने जैसे पूरी सामर्थ्य लगा कर आग्रह किया । हालाँकि कीमत कम करने की खींचतान उसके चेहरे पर दिख रही थी ।

हाँ...बडे कम लगा रही है ---रमा व्यंग्य भरी हँसी के साथ बोली---अरी ,सयानी बहन दूसरे लोग भी तो कुछ अक्कल रखते होंगे ...।

तुझे देना ही है तो बाजार के भाव में दे जा नही तो .....। हाल यह कि लाखों-करोडों की बातें बहसें करने वाली वे सभ्रान्त, कुलीन महिलाएं दो-तीन रुपए कम करवाने उसी तरह एकमत थीं जैसे संसद में वेतन-भत्तों के मुद्दे पर पक्ष-विपक्ष एकमत हो जाता है ।

कोई बात नही मेम--पूरी तरह नाउम्मीद होने पर वह महिला अपना सामान समेट कर चली गई ।कुछ पल को वहाँ सन्नाटा सा रहा जिसे नीलम ने तोडा---

वो समझती है कि हम तो बुद्धू हैं ।जो माँगेगी दे देंगी ।

और क्या रोज का वास्ता पडता है इन चीजों से ।मार्केट में देखो एक से बढ कर एक चीज है ।

और नही तो क्या....।

सबके चेहरों पर कुछ पैसे बचा लेने का सन्तोष चिपका था ।

मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

एक गीत

बरसों हुए मिटे, अब
जागी कराह क्यूँ है ।
जर्जर हुए वसन में ,
पैबन्द आह क्यूँ है ।

अब भूलना ही बेहतर
अपना कि क्या पराया ।
जो भी करीब आया,
प्रतिरूप साथ लाया ।
विश्वास और छल में ,
ऐसी सलाह क्यूँ है ।
बरसों हुए......
कुछ और जो ठहरता ,
मौसम हरा-भरा सा ।
हर पेड यूँ न लगता ,
सहमा डरा-डरा सा ।
बेवक्त ही हवा की
बदली निगाह क्यूँ है ।
बरसों हुए.....
गिर गिर सम्हाला खुद को
कैसे भी जब डगर में ।
टुकडे सम्हाल मन के ,
अनजान इस शहर में ।
गुजरे भी हम जिधर से ,
यह वाह--वाह क्यूँ है ।
बरसों हुए......

गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010





शिवम् है कि मानता नही ।


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शिवsss म्.....।

माँ पुकारती है ।

दिनभर बैठे--बैठे ,बीडी बनाते

झाडू-पौंछा या चौका--बर्तन करते,

थकी हुई माँ ..।

हाथ से बहुत पीछे छूट गए सपनों की याद में ,

कहीं रुकी ह्ई माँ

और बैठे-ठाले, शराबी , दस साल बडे ,

खाँसते--खखारते पति की मर्दाना माँगों से

ऊबी--छकी माँ,

सारा गुस्सा उतारती है अक्सर,

आठ साल के शिवम् पर ।

जो उग आया है शायद

जिन्दगी की जमीन पर ।

अपने आप उग आई घास की तरह

जमीन को हरियाली से मढ रहा है ।

बिना पानी--खाद के बढ रहा है ।

माँ कोसती रहती है उसकी हँसी को ।

खेलने की खुशी को ।

अरे , शिवsssम् ---मर जा तू,

ठठरी बँधे , आग जले ,

मेरी जान न खा तू ।

खेलता रहता है दिन भर ।

खेलना बन्द कर , आ...

चल मेरे साथ बीडी बनवा ।

पत्ते काट , तम्बाकू भर ।

हजार बीडियों का कोटा पूरा करवा ।

चुलबुला शिवम् बैठ जाता है,

बीडी बनबाता है ।

झूठे गुस्से से तनी हुई ।

सायास गम्भीर बनी हुई

माँ को देख खिलखिलाता है ।

माँ दाँत पीसती है ---अरे , मरे, होंठ बन्द कर ।

थोडा तो डर ,कि निकाल कर दे दूँगी ,

पूरी बत्तीसी तेरे हाथ में ।

ही..ही..ही..---शिवम् फिर खिलखिलाता है ।

माँ की इन धमकियों को मानता नही ।

बुत बन कर रहना वह जानता नही ।

और कुछ ही देर बाद ,

खो जाता है

अपने साथियों में ।

माँ चिल्लाती है ,गालियाँ देती है ।

शिवम् खिलखिलाता रहता है ,

अक्सर यूँ ही


सोमवार, 13 सितंबर 2010

मातृभाषा


( हिन्दी ) माँ

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मातृभाषा माँ है ।
माँ ही समझ सकती है
औरों को भी समझा सकती है
ह्रदय की हर बात
आसानी से ।
माँ ,जो दुलारती है अपने बच्चे को ।
रोने पर ....सोने पर--- जगाती है ,
दिखाती है राह , कही खोने पर ।
छोटा नही होने देती अपने वश भर
अपनी सन्तान को-कभी ,... कहीं भी ।

मातृभाषा, धरती है ।
धरती के उर्वरांचल में ही
उगती हैं, लहलहाती हैं
सपनों की फसल ।
वन-उपवन, पहाड--नदियाँ
समुद्र और खाइयाँ
टिके हैं आराम से ।
धरती के वक्ष पर ।
धरती पर ही तो टिका सकता है कोई भी
अपने पाँव मजबूती से ।
और तय कर सकता है लम्बी दूरी

मातृभाषा, अपने घर का आँगन
जहां कोने--कोने में रची-बसी है
गभुआरे बालों की खुशबू ।
दूधिया हँसी की चमक
अपना आँगन , जहाँ सीखते हैं सब , 
सर्वप्रथम, बोलना , किलकना
चलना , थिरकना
दूसरी भाषा के आकाश में
पंछी उडतो सकता है,लेकिन खाने--पीने के लिये 
बैठने--सोने के लिये
उसे उतरना होता है जमीन पर ही ।

हिन्दी हमारी मातृभाषा, 
हमारी अस्मिता और सम्मान 
सही पता और पहचान ।
पत्र मिला करते हैं हमेशा
सही पते पर ही



सोनू के लिये


15 अक्टूबर 1974----12 अगस्त २०१०---


सोनू ,मेरी जेठानी जी का मँझला बेटा ,जो एक माह पहले सबको छोड कर, अन्तहीन पीडा देकर हमेशा के लिये चला गया ।

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सुबह ने अभी-अभी ही तो ,

तेरे नाम लिखी थी ---

आसमां भर धूप...।

जागती आँखों में सजाए थे ,

पंखुडियों से ख्बाब. ।

फिर क्यों चुन लिया तूने,

धूप में नहाया ...

अपना शहर छोड कर ।

एक अनजान गुफा का

अन्तहीन अँधेरा ।


भूल गया ---अपने बूढे पिता की ,

धुँधलाई आँखों की बेवशी ।

तूने एक बार ,सोचा भी नहीं ,

कि,उनके थके--झुके कन्धे ,

कैसे ढोएंगे उम्मीदों का मलबा ।

कैसे पढेंगे , अनन्त- पेजों वाला

तेरे बिछोह का अखबार ,

उनका चश्मा तो खोगया ,

तेरी यादों के ढेर में ही ...।

वक्त गुजरेगा कैसे ...

ताकते सिर्फ , सूना आसमान ...।


काश तू आकर देख लेता कि,

माटी की पुरानी दीवार सी ,

भरभरा कर गिर पडी है तेरी माँ ।

बैठी रहती थी थाली परसे ,

देर रात ...तेरे आने तक ।

तूने देखा नहीं कि ,

तुझे रोकने के लिये ,

दूर तक ....तुझसे ,

लिपटा चला गया है

उसकी आँतों का जाल ।

पेट से निकल कर

कलेजा थामे पडी है वह

लहूलुहान ।


पीडा के गहरे सागर में ,

हाथ पाँव मारती तेरी संगिनी ,

हैरान है ......।

भला इतनी जल्दी

कोई कैसे भूल सकता है ,

प्रथम-मिलन के समय किये गए,

तमाम वादों को

चाँद को छूने के इरादों को

तूने तो कहा था कि ,

तैरना आता है तुझे अच्छी तरह ।

भला, .... जिन्दगी से ,

कोई रूठता है इस तरह ...।

और नाराज होता है इस तरह...

कोई अपनों से ,

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रविवार, 5 सितंबर 2010

प्राथमिक शाला की शिक्षिका का एक गीत
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अपने तेतीस वर्ष के सेवाकाल में प्रारम्भ के दस वर्ष मैंने प्रा. वि. में बिताए थे । मैं स्वयं को आदर्श या परिपूर्ण शिक्षिका तो नही मानती ,पर मुझे जो कुछ करने मिला उसे पूरी ईमानदारी से निभाने की कोशिश जरूर करती हूँ । कम से कम अपने विद्यार्थियों का स्नेह तो मुझे भरपूर मिलता रहा । लेकिन जो सन्तुष्टि व आनन्द मुझे प्राथमिक कक्षाओं , विशेषतः पहली-दूसरी कक्षाओं को पढाने में मिला वह फिर कभी नहीं मिला । वे मेरे अध्यापन काल के सबसे खूबसूरत साल थे । मासूम बच्चों केबीच,बच्चाबन कर पढाने का उन्हें कुछ सिखा पाने का अहसास अनौखा था ।आज बडे विद्यार्थी भी
मासूम ही हैं पर उन्हें प्राथमिक कक्षाओं में जो सीख लेना चाहिये था , नही सीख सके और अबपाठ्यक्रम और परीक्षा परिणाम का दबाब न तो उन्हें और न ही शिक्षक को कुछ सिखाने का अवकाश देता है खींच तान कर किसी तरह पाठ्यक्रम पूरा होगया तो बहुत समझो । दरअसल पढाई का उद्देश्य केवल
परीक्षा परिणाम पर केन्द्रित होगया है । हमारी शिक्षा-व्यवस्था इसके लिये काफी हद तक जिम्मेदार है । खैर इस विषय में फिर कभी ..। अभी तो उस गीत और गीत के बारे में पढें । जब मैं प्रा. वि. तिलौंजरी में बहुत छोटे बच्चों को पढाती थी ,मैने अपनी अनुभूतियों को अनायास ही इस गीत
में ढाल दिया था ।यह गीत सन् 1987 मई की चकमक में छपा था । वही चकमक जो आज भी एकलव्य(भोपाल )से निकल रही है ,काफी साज-सज्जा के साथ । उन दिनों उसका प्रारम्भ-काल था पर रचनाओं का स्तर कमाल का था । सम्पादक थे श्री राजेश उत्साही जी । यह अलग से लिखने का विषय है कि कैसे चकमक से ही मेरी रचनाओं का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ । और कैसे श्री उत्साही जी ने सुदूर गाँव की,... ,बाहर की दुनिया से दूर अपनी शाला तक ही सीमित एक शिक्षिका को स्रजन में मार्गदर्शन व प्रोत्साहन दिया । वे मेरे लिये किसी अच्छे शिक्षक से कम नहीं हैं । लगभग चालीस कविता- कहानियाँ उत्साही जी के सम्पादन-काल में ही चकमक में प्रकाशित हो चुकीं हैं । रचनाएं पहले भी लिखी गईं पर यह मेरी पहली प्रकाशित रचना है । कक्षा में हुई मेरी अनुभूतियों की एक साधारण, ईमानदार,और आत्मीय अभिव्यक्ति को ,जो हर समर्पित शिक्षक को समर्पित है , आप पढ कर विचार अवश्य लिखें----
चिडिया घर
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मेरी शाला है चिडिया घर ।
हँसते खिलते प्यारे बच्चे ,
लगते हैं कितने सुन्दर ।

फुदक-फुदक गौरैया से ,
कुर्सी तक बार-बार आते ।
कुछ ना कुछ बतियाते रहते ,
हरदम शोर मचाते ।
धमकाती तो डर जाते ,
हँसती तो हँसते हैं मुँह बिचका कर ।
मेरी शाला......

तोतों सा मुँह चलता रहता ,
गिलहरियों से चंचल हैं ।
कुछ भालू से रूखे मैले,
कुछ खरहा से कोमल हैं ।
दिन भर खाते उछल कूदते
सारे हैं ये नटखट बन्दर ।
मेरी शाला.....

हिरण बने चौकडियाँ भरते ,
ऊधम करते जरा न थकते ।
सबक याद करते मुश्किल से
बात--बात पर लडते--मनते ।
पंख लगा उडते हैं मानो,
आसमान में सोन कबूतर ।
मेरी शाला.....।

पल्लू पकड खींच ले जाते ।
मुझको उल्टा पाठ पढाते ।
बत्ती खोगई ...धक्का मारा..
शिकायतें पल--पल ले आते ।
और नचाते रहते मुझको ,
काबू रखना कठिन सभी पर ।
मेरी शाला....।

पथ में कहीं दीख जाती हूँ ,
पहले तो गायब होजाते ।
कही ओट से ---दीदी...दीदी...,
चिल्लाते हैं , फिर छुप जाते ।
कही पकड लेती जो उनको ,
अपराधी से होते नतसिर ।
मेरी शाला....।

जरा प्यार से समझाती हूँ ,
वे बुजुर्ग से हामी भरते ।
मनमौजी हैं अगले ही पल ,
वे अपने मन की ही करते ।
बातें मेरी भी सुनते हैं ,
पर लगवाते कितने चक्कर ।
मेरी शाला ....

गोरे , काले, मोटे दुबले ,
लम्बे नाटे ,मैले, उजले ।
रूखे , कोमल,सीधे चंचल,
अनगढ पत्थर से भी कितने ।
पर जैसे, जितने भी हैं ,
लगते प्राणों से हैं बढ कर ।
मेरी शाला है चिडिया घर । .

--
गिरिजा कुलश्रेष्ठ
मोहल्ला - कोटा वाला, खारे कुएँ के पास,
ग्वालियर, मध्य प्रदेश (भारत)







मंगलवार, 24 अगस्त 2010

राखी के बदले

राखी के बदले


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नभ के हिंडोले पर, झूल रहीं घटाएं ।

गा रहीं हैं मल्हारें , रिमझिम फुहारें ।

इस बार राखी पर ,

बाँधूँगी भैया ,तुम्हारी कलाई पर ,

रेशमी डोरी आत्मीयता की ।

सजाऊँगी आरती आँखों में ।

और लगाऊँगी माथे पर ,

टीका विश्वास का ।

तुम भी , भैया इस बार ,

राखी के बदले --रुपए न देना ।

न ही कोई उपहार ।

दे सको तो दे देना मुझे ,

बचपन का एक दिन ।

जी लेना मेरे साथ ,

उस आँगन में बिताए कुछ मीठे पल ,

जहाँ हम मिल कर खाते -खेलते थे ।

और चिडियों की तरह चहकते थे ।

और ढँढ देना मेरी वो अठन्नी भी ,

जो खो दी तुमने बडे होते--होते ॥।

यदि कुछ खरीदना ही हो ,( राखी के बदले )

तो खरीद देना गाँव की हाट से ,

रंगीन रिबनों में लिपटा स्नेह ।

काँच के कंगनों में खनकती उन्मुक्त हँसी ---

जो कही खोगई सी लगती है ।

हो सके तो मेरे भैया ,

तुम छुट्टी लेकर आजाना ।

बरस जाना , सूखी फसल पर ।

भर जाना ----गाँव की सूखी पोखर ।

संझा-बाती की बेला में ,

जला जाना माँ की पूजा का दीपक ।

और ढूँढ देना ,

कहीं रख कर भूला हुआ

माँ का चश्मा ।

शनिवार, 31 जुलाई 2010

बारिश की दो कविताएं

1.8.2010
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आज ,बडी प्रतीक्षा के बाद आसमान में बादल हैं ,ऐसे बादल जिनसे बारिस की उम्मीद की जा सकती है ।कुछ दिन पहले ,जब यहां सरकस लगा था,क्या मोहल्ले के बुजुर्ग और क्या स्टाफ के कथित बुद्धिजीवी लोग बडे विश्वास से दावा कर रहे थे कि जब तक सरकस रहेगा ,पानी नही बरसेगा । सरकार को वर्षाऋतु के आगमन काल में इस पर प्रतिबन्ध लगा देना चाहिये। खैर मैं इस तथ्य से अनजान हूँ ।
मेरे लिये तो वर्षा मानो गोली खाकर सोयी जिन्दगी को झिंझोडकर जगाने का काम करती है ।जरा सी नमी पाकर ही आकांक्षाएं दूर्वांकुरों सी फूट पडतीं हैं ।जाने कितनी भूमिगत व्यथा-वेदनाएं कीडे-मकोडों सी बाहर आकर रेंगने -कुलबुलाने लगतीं हैं ।कहीं कुछ छूट जाने का अहसास बेजान पडे पक्षी सा पानी के छींटों से छटपटाने लगता है ।यहाँ बारिश की दो कविताएं हैं ।पढें और अपने विचार अवश्य लिखें ।

बादल दो चित्र
(1)
आग...आग....आग..
हर कोई चिल्लाया ।
घबराया ।
मौसम विभाग
उठा है लो जाग ।
भेज दीं हैं दमकलें ।
छोड रहीं बौछारें ,
रिमझिम फुहारें ।
(2)
धरती को आसमान के,
स्नेहमय पत्र ।
बाँट रहा पोस्ट-मैन ,
यत्र-तत्र-सर्वत्र

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हम कच्ची दीवार हैं
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बन कजरारे मेघ वो, उमडे चारों ओर ।
रिमझिम बरसीं टूट कर अँखियाँ दोनों छोर ।

घिरी घटा घनघोर सी यादों के आकाश ।
बिजली सा कौंधे कहीं अन्तर का संत्रास ।

चातक , गहन हरीतिमा , झूला , बाग, मल्हार ।
इनसे अनजाना शहर ,समझे कहाँ बहार ।

भीग रहा यों तो शहर पर वर्षा गुमनाम ,
कोलतार की सडक पर क्या लिक्खेगी नाम ।

उमड-घुमड बादल घिरे , भरे हुए ज्यों ताव ।
टूटे छप्पर सा रिसा फिर से कोई घाव ।

उनको क्या करतीं रहें , बौछारें आक्षेप ।
कंकरीट के भवन सा मन उनका निरपेक्ष।

टप्.टप्..टप्...बूँदें गिरें , उछलें माटी नोंच ।
हम कच्ची दीवार हैं गहरी लगें खरोंच ।

शनिवार, 24 जुलाई 2010

मैं---कुछ व्यंजनाएं

(१)
शाम के धुँधलके में ,
महानगर की व्यस्त सडक के किनारे,
वाहनों की तेज रफ्तार के बीच,
धुँए के गुबार से घबराया हुआ,
रोशनी के प्रहार से चकराया हुआ,
अजनबी भीड के सैलाब में धकियाया हुआ,
मैं.....
एक अकेला
पैदल यात्री
(२)
मैं ...
एक कहानी ।
अप्रासंगिक ,पुरानी ।
सुनना नहीं चाहता जिसे अब ,कोई भी।
फिर भी सुनाए जा रही है ,
बूढी--बहरी सी जिन्दगी ।
(३)
रिश्तों के दफ्तर में ,
मैं एक कर्मचारी ।
अतिरिक्त,
अनावश्यक,
अनाहूत ।
(४)
मैं...
मैला -कुचैला,
पीठ पर लादे ,
उम्मीदों का थैला ।
असहाय , उन्मन,
एक बचपन ।
कुरेदता रहता है ,कचरे का ढेर ।
तलाशने --लोहा,प्लास्टिक ।
कुछ सपने -अपने ।
(५)
मैं ...
दीपक की लौ,
जल रही है जो,
तेज रोशनी वाले बल्बों के बीच ,
व्यर्थ ही ...।
(६)
मैं ....
एक चालक,
नौसिखिया ,अनाडी ।
रिश्ते.....उफ्,
ब्रेक-फेल गाडी ।
(७)
मैं ....
गए साल का कैलेण्डर,
टँगा रह गया है जो ,भूल से ,
वक्त की दीवार पर ।
(८)
मैं ...
बेहद लापरवाही और,
गैर-जिम्मेदारी से ,
गलत पते पर डाला गया ,
एक पत्र।
पडा है अभीतक कोने में ,
अपठित, उपेक्षित ।
(९)
मैं....
एक अजनबी शहर के चौराहे पर खडा ,
गन्तव्य का नाम पता भूल गया,
एक अनपढ देहाती ।

सन्१९९८ में रचित

मंगलवार, 13 जुलाई 2010

मेरे पडौसी की लडकी

मेरे पड़ौस में 
एक लड़की ,
बड़ी हो रही है ।
बड़ी हो रही है वह,
वसन्त में अँखुआती टहनी की तरह ।
गुलमोहर और कचनार,
खिलतीं हैं उसकी आँखों में ।
बालों में महकते हैं ,शिरीष , मोगरा ,चम्पक ।
सतरंगी तितली सी नजरें ,
उडतीं फिरतीं है --यहां-वहाँ...
न जाने कहाँ ।
पीपल की कोंपलों से होंठ, 
काँप उठते हैं
हल्के से झकोरे की छुअन से ही...।


मेरे पड़ौस में एक लड़की ,
बड़ी हो रही है ---
टी.वी. पर धारावाहिक और फिल्में देखते -देखते,
अब उसे मामूली और घटिया से लगते हैं ,
अपने कपड़े ।
छोटा और बेकार सा अपना घर ।
उसके सपने नीचे नहीं उतरते ,
गाड़ी और बँगला से ।
उसकी आँखें...
अपना खोया सिक्का तलाशते 
बेचैन बच्चे जैसी,
अक्सर आतीं जातीं रहतीं हैं 
गली के नुक्कड़ तक ।


मेरे पड़ौस में एक लड़की ,
बड़ी हो रही है ,
बिना कुछ सीखे -समझे ही ।
वह पारंगत तो होगई है ,
कपड़ों का रंग ,डिजाइन चुनने में ।
कई तरह की हेअर-स्टाइल बनाने में ।
और बिन्दी, चूडी ,नेल-पॅालिश या पर्स की मैचिंग करने में ।
लेकिन ,नही आता उसे तुरपन करना या बटन टाँकना ।
नही भाता उसे गेहूँ बीनना या बर्तन माँजना ।
कतराती है वह सब्जी काटने या आटा गूँथने से ।
ताव खाती है टोकने पर कि,
कपड़े तहाने की बजाय क्यों ,छतपर खड़ी ,
ताकती रहती है ,उड़ती हुई पतंगों को ।
बड़ी होरही है वह ,
यूँ ही हवा में उड़ते ।
आसपास के खिड़की-दरवाजे ,
चिपके रहते हैं मेरे पड़ौसी के घर से ।
माता-पिता से ज्यादा ,
उन्हें चिन्ता है ...
दिलचस्पी है कि ,
बड़ी होरही है अब ,
उनके पड़ौस में वह लडकी ।
ढेर सारे सपनों के साथ...।
जैसे निकला हो कोई बैंक से
बैग में ढेर सारा रुपया लेकर
अकेला ही ,
अजनबी शहर में ।

रविवार, 4 जुलाई 2010

चाँदनी वाला मोहल्ला-----24 जून ग्वालियर
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हम जिस मोहल्ले में रहते हैं ,वह ग्वालियर की पुरानी और पिछडी बस्तियों में से एक है ।नाम है --कोटावाला मोहल्ला। कहते हैं कि सामने खण्डहर सी दिखने वाली हवेली कोटावाले राजा की थी ।मोहल्ले का यह नाम इसीलिये पडा ।इससे ज्यादा जानकारी रखने वाले लोग अब नहीं हैं ।न ही जानने की किसी को जरूरत व फुरसत है ।
-कुछ दिनों पहले मेरी एक परिचिता ने अपनी निजी जानकारियों के आधार पर इस मोहल्ले को - ,कोठावाला मोहल्ला -कहा । ।मेरे चौंकने पर उसने मुझे लगभग झिडकते हुए कहा --तुम तो न जाने किस दुनियाँ में रहती हो....।देखा नही अमुक लडकी के रंग-ढंग और तेवर कैसे बदल रहे हैं ।पाँच-पाँच सौ के सूट कहाँ से पहनरहीं है ,बालों की सेटिंग,मेकअप सेंडल..और क्या-क्या...।घर में नही दाने ,अम्मा चली भुनाने ।कहाँ से आ रहा है सब ।...अमुक की जनीं (पत्नी)को रात में कोई रोज कार से छोडने आता है ....।और..वो....धत् तुम्हें कुछ भी नही पता ।
मैं इन सब बातों पर गौर नही करती ।न ही विश्वास ।
मेरा भतीजा इसे--कुत्ता वाला मोहल्ला कहता है । जो कभी कभी सटीक लगता है ।जब यहाँ आदमियों से ज्यादा कुत्ते नजर आते हैं । काले ,भूरे,बादामी ,चितकबरे छोटे- बडे, सीधे-लडाकू --सभी तरह के बहुत सारे देशी कुत्ते (विदेशियों को ऐसी आजादी कहाँ )। दिन में खूब खिलवाड करते है।और रात में खूब मन भर रोते हैं ।भगाओ तो भाग जाते हैं पर कुछ देर के लिये, आपको यह तसल्ली देने ही कि आपकी आज्ञा का पालन होता तो है कम-से-कम ।
पर मेरे दिमाग में इस मोहल्ले का एक नया और प्यारा सा नाम उगा है ----चाँदनी वाला मोहल्ला ।
जी नही , यह चाँदनी चाँद से उतरी किरण नही है ।और ना ही कोई रूपसी युवती ।यह तो सामने शौचालय से लगी खोली में रहने वाली पारबती की डेढ-दो साल की बेटी है ,जो घर से ज्यादा गली में रहती है ।गाती, खेलती,गिरती,,रोती....।
पारबती को देख कर कोई भी कह सकता है कि भगवान जब देता है, सचमुच छप्पड फाड कर ही देता है ,समुचित रूप में खिडकी- दरवाजे से नही । पारबती के पास रहने ,खाने पहनने-ओढने की कोई समुचित व्यवस्था नही है।कमरा छोटा होने के कारण आधे से भी ज्यादा काम --कपडे ,बर्तन धोना ,नहाना ,आदि--बाहर ही होते हैं । जिन्दगी ने उसे भले ही दूसरे सुखों से वंचित रखा है ,पर मात्रत्व की निधि खुले हाथों लुटाई है ,हर दूसरे साल एक मासूम प्यारा बच्चा उसकी कोख में डाल कर। चाँदनी उसकी तीसरी या चौथी सन्तान है ।
सुबह होते ही चाँदनी अपनी कोठरी से बाहर आजाती है। दिखाने भर के लिये दूध डाली गई पतली काली कटोरी भर चाय के साथ बासी रोटी या माँ के बहुत लाड आने पर मँगाई गई पपडी खाकर घंटों तक चाँदनी गली में रमक-झमक सी घूमती रहती है ।कभी वह कुत्ते के गले में बाँहें डालना चाहती है तो कभी बैठी हुई गाय की पीठ पर सवारी करने के मनसूबे बनाती है ।यही नही ,जब उसका रास्ता रोकने की हिमाकत करता कोई सांड खडा होता है, वह उसके नीचे से निकल कर ऐसे खिलखिलाती है जैसे कोई बाजी जीत गई हो ।माँ बेपरवाह है तो क्या ,जानवर चाँदनी का पूरा खयाल रखते है ।इस मासूम परी को शब्दों में बाँधना आसान नही है ।मैंने तो बस कोशिश की है --

(1)
कुँए की मुडेर पर,
धूप के आते-आते
उतर आती है चाँदनी भी
कोठरी के क्षितिज से।
बिखर जाती है पूरी गली में ।
धूप ,जो---
उसके दूधिया दाँतों से झरती है ।
(2)
चाँदनी सुबह-सुबह,
भर जाती है मन में
नल से फूटती
जलधार की तरह
मन--- जो रातभर लगा रहता है ,
कतार में ।
खाली खडखडाते बर्तनों सा,
भरने कुछ उल्लास,ऊर्जा ।
दिन की अच्छी शुरुआत के लिये ।
(3)
भरी दोपहरी में,
चाँदनी नंगे पाँव ही
टुम्मक-टुम्मक..
चलती है बेपरवाह सी
तपती धरती पर
आखिर ,कौन है वह,
जो बिछा देता है ,
हरी घास या अपनी नरम हथेली,
उसके पाँव तले ।
(4)
दूसरे बच्चों की तरह,
उसके कपडे साफ नही हैं
बाल सुलझे सँवरे नही हैं ।
पीने-खाने को दूध-बिस्किट नही है ।
और दूसरे बच्चों की तरह ,
मचलने पर उसे
टॅाफी या खिलौने नही मिलते है।
पर दूसरे तमाम बच्चों से ज्यादा,
हँसती-खिलखिलाती और खेलती है।
वह नन्ही बच्ची---चाँदनी ।
--------------------

और अन्त में ------------
चिडियों की चहकार है चाँदनी।
ताजा अखबार है चाँदनी ।
गजक मूँगफली बेचने वाले के गले की खनक,
दूधवाले की पुकार है चाँदनी ।

पहली फुहार जैसी।
फूलों के हार जैसी ।
भर कर दुलार छूटी ,
दुद्धू की धार जैसी ।





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स्कूल ऑफ सिम्पैथी

कर्नाटक एक्स. में द्वितीय श्रेणी का वातानुकूलित,शानदार और सर्वसुविधा युक्त डिब्बा ।कोई भीड़-भाड़ या शोर -शराबा नही ।ठाठ से बैठो,लेटो ,गाने सुनो ,किताब पढ़ो या कोई भी मनपसन्द काम करो। मैं डायरी लिखते हुए सोच रही हूँ कि 'सफर से ज्यादा आरामदेह घर', वाली बात अब पीछे चली गई है ।अब तो घर से ज्यादा आराम सफर में रहता है ।कम से कम अब तो मुझे यही लगता है । 
बाजू में कोई ट्रेन खड़ी है ।मेरे सामने जनरल बोगी है।लोग थैले में ठूँसे गये कपड़ों की तरह भरे हैं । कुछ लोगों ने जैसे गर्मी को लाल झण्डी दिखाने के लिये ही अपने कपड़े उतार रखे हैं ।मक्खियाँ उड़ रही हैं ।कई जगह खिड़कियों से नीचे तक उल्टियों के निशान हैं ।नीचे दो-तीन लड़के पानी पाउच, पुड़िया, बड़ापाव और 'चना मसाला' बेच रहे हैं । सीट पर बैठे लोग तो खुशकिस्मत हैं ही पर खिड़कियों के पास भी खड़े लोग भाग्यशाली हैं कि थोड़ी बहुत हवा के साथ खाने-पीने की चीजें प्राप्त कर पा रहे हैं ।अन्दर गर्मी पसीने और बदबू के भभकों से जूझते हुए लोगों के लिये बाहर का दृश्य देखना भी दुश्वार है . चीजों के लिये खिडकियों के पास बैठे लोगों की मिन्नतें कर रहे हैं कि ,ओ भैया ,ओ लल्ला ,भैन जी जरा बड़ापाव वाले को बुला देना . ये पैसे लो भैया एक बिस्कुट का पैकेट ले लेना बच्चा भूखा है । धैर्य के अभ्यास के लिये ऐसा प्रशिक्षण कही और नही मिल सकता ।आगे उसी ट्रेन में वातानुकूलित डिब्बे हैं जिनमें मेरी तरह ही आराम बैठे लोग किसी ऐसी ही जनरल बोगी की एकदम अलग दुनियाँ को निरपेक्षता और हेयता के साथ देख रहे होंगे । एक ही दुनिया में बसे लोगों में इतना फर्क!
लेकिन मेरे मन में न हेयता का कोई भाव है  ना ही निरपेक्षता का ।आखिर कभी मैं भी ऐसी ही बोगियों की यात्री रही हूँ . वैसी ही घुटन और परेशानी को जिया है . मैं भी कभी इस भीड़ का हिस्सा रही हूँ । स्टेशन पर ट्रेन आने से लेकर ,सामान के साथ डिब्बे में पहुँच जाने की दुर्लभ जीत के बाद घंटों तक मैंने खड़े रह कर सीट खाली होने का इन्तजार किया है  .उमस और बदबू सहते हुए अखबार या रूमाल से हवा करके गर्मी को टक्कर दी है ।यह बात अलग है कि उस समय परेशानियों का अहसास न था। इसलिये वे परेशानियाँ इतनी कष्टकर व असहनीय प्रतीत नही होती थी । हमारे सुख-दुख प्रायः सापेक्ष होते हैं ।आराम और फुरसत में हम विगत व्यथाओं व कठिनाइयों को आसानी व विस्तार से याद कर सकते हैं । और आश्चर्य भी कि आखिर वह सब हमने कैसे सहा और जिया .
जनरल बोगी की यात्रा अब  भले ही मेरे लिये दूसरी दुनिया बन चुकी है ,अब मैं प्लेन या ट्र्रेन के प्रथम या द्विताय श्रेणी के वातानुकूलित कोच से कम में यात्रा नही करती लेकिन जनरल क्लास से कभी निरपेक्ष नही हो सकती । अनुभूति ,उसमें बैठने वाले हर व्यक्ति की पीड़ा सदा मेरे साथ है क्योंकि वह भी मेरी जमीन है, एक होगा हुआ यथार्थ  । और क्या पता संयोग या विवशतावश कब फिर कभी जनरल में यात्रा करनी पड़ जाय ...
नवमीं कक्षा में एक पाठ 'दि स्कूल ऑफ सिम्पैथी ' मुझे बहुत अच्छा लगा जिसमें एक स्कूल में हर बच्चे के लिये एक क्रमशः 'ब्लाइन्ड डे' , 'डेफ डे' , 'डम डे' और 'लेम डे' होता है जिसमें उसे एक दिन पूरी तरह अन्धेपन के लिये आँखों पर पट्टी बाँधकर रहना होता है , गूँगा , बहरा और लँगड़ा बनकर रहना होता है . प्राचार्य के अनुसार यह सब इसलिये ताकि बच्चे अपंग बच्चों के दर्द को महसूस कर सके और उसके प्रति उपेक्षा का भाव न रखे . 
मेरे विचार से जिन्दगी को ठीक से समझने के लिये हर व्यक्ति को कभी न कभी ऐसे अनुभवों से गुजरना चाहिये . 

बुधवार, 16 जून 2010

संवेदना की भाषा और निरक्षरता की पीडा

संवेदना की भाषा और निरक्षरता की पीडा---------बैंगलोर 16 जून
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वाणी
अम्मा अब काम पर नहीं आती। लगभग दो माह से वह बीमार सी दिख रही थी ।अक्सर नागा भी करने लगी थी ।अब बिल्कुल नही आरही ।अभी दो दिन पहले ही सरोज अम्मा से पता चला कि डा. ने वाणी अम्मा को कैंसर बताया है सरोज अम्मा नीचे सामने वाले घर में काम करती है ।वह हिन्दी समझ लेती है और टूटी-फूटी बोल भी लेती है, उसी तरह जिस तरह चलना सीखरहा बच्चा लडखडाते हुए ही सही कुछ कदम तो चल ही लेता है

इस
दुखद सूचना से हम सब स्तब्ध हैं ।दुखी भी हैं ।वाणी अम्मा पिछले चार साल से हमारे यहां काम कर रही थी ।गहरे रंग.छरहरे बदन और सरल हँसी वाली तमिल-भाषी वाणी अम्मा इतने समय में हमसे इतनी घुल-मिल गई थी कि हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी का एक हिस्सा ही बन गई थी ।भाव-संचार के लिये भाषा का माध्यम होने पर भी वह अपना सुख-दुख प्रकट करलेती थी ।जैसे कि मैं जब भी बैंगलोर आती ,वह अचानक सुबह-सुबह मुझे घर में देख खुशी के मारे दोनें बाँहें फैला कर कहती--...अम्मा----।इसीतरह जब मैं उसे उदास देख कर उसके कन्धे पर हाथ रख कर उदासी का कारण पूछती तो वह मेरे कन्धे पर सिर टिका कर फफक कर रो पडती थी ।तब मैं यह समझकर कि इसके साथ कोई गहरा दुख जुडा है ,उसे सान्त्वना तो दे देती थी पर......।मैं मानती हूँ कि प्रेम,पीडा,आनन्द,घ्रणा .आदि भाव व्यक्त होने के लिये शब्दों के मोहताज नही है। संवेदना की भाषा मानवीय,सर्वमान्य,और सर्वकालिक होती है ।वैसे भी उसे जो कुछ व्यक्त करना होता था कर लेती थी ।उसे कुछ शब्द अंग्रेजी के ---बकेट,सोप,क्लिप आदि---आते ही थे बाकी कामों ---खाना कपडा माँगने--वह संकेतों से का चलाती थी ।उसके लिये शायदयही काफी था ।पर मेरे लिये इतना काफी नहीं है ।मैं जानना चाहती हूँ कि उसने चप्पलें पहनना क्यों छोड दिया कि ,वह बडे जतन से खाना बचा कर किसके लिये ले जाती है

कि
,सरोजअम्मा के कथनानुसार उसका बेटा उसे घर से चाहे जब निकाल देता है तो क्यों उसका विरोध करने की बजाय उसकी फिक्र करती है ।और कि ........और जाने कितनी बातें ।मेरे लिये आँसू और मुस्कान की भाषा से आगे और ज्यादा महत्त्व शब्दों की भाषा का है ।वस्तुतः मानव जीवन दूसरे जीवनों से अभिव्यक्ति की क्षमता के कारण ही तो अलग है ।एक दूसरे की व्यथा-वेदना को,भाव-संसार को जानना ही नही उसे पूरी तरह समझना भी जरूरी है मेरा मानना है कि अपने आस-पास से ...जमीन से जुडे बिना आत्मीयता नहीँ आसकती ।और जुडाव भाषा-संवाद के बिना नहीं होता ।मुझे यह अखरता है कि मैं बडे-बडे सिन्दूरी फूलों वाले और जहाँ-तहाँ विशाल छतरी की तरह फैले गुलाबी फूलों वाले इन पेडों के नाम भी नही जानती , या कि किसी प्रतिमा को सजा कर फूल बरसाते हुए बैंड-बाजों के साथ जो जलूस निकला वह क्या ,कौनसा उत्सव था ।क्यों कि मुझे यह सब समझाने वाली भाषा उन्हें नही आती जो इसे जानते होंगे अगर सरोज नही होती तो वाणी अम्मा के बारे में हमें कहाँ से पता चलता

भाषायी
समझ की आवश्यकता के अनुमान के लिये एक और प्रसंग याद आरहा है ।एक सुबह जब मैं पार्क में टहल ही थी एक हमउम्र महिला की अपनत्व भरी सी मुस्कान ने मुझे संवाद के लिये प्रेरित किया ।पर विडम्बना यह कि उन्हें अंग्रेज तक नही आती (,हिन्दी की तो बात ही नही है ) और मुझे कन्नड ।विवश होकर हमें मुस्कान और अभिवादन तक ही सीमित रहना पडा
बैंगलोर
आकर मुझे निरक्षरता की पीडा का अहसास होता है ।जब मैं केवल कन्नड में(अंग्रेजी नही ) लिखी सूचना विज्ञापनों को देखती हूँ,तो पढ पाने की बेवशी कचोटती है ,एक अँधेरे का अनुभव होता है ।अक्षर -ज्ञान की महत्ता आवश्यक समझ आती है अक्षर उजाले का स्रोत हैं , दिमाग के दरवाजों की कुन्जी है ।चेतना के द्वार हैं ।अक्षर जमीन हैं आसमान हैं