रविवार, 12 दिसंबर 2010

दो लघुकथाएं
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(1) --सन्दिग्ध
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देखो, ऐसा करना-----चलते--चलते कनक ने पत्नी को समझाया ----अगर मुझे ऑफिस में जरूरी काम न होता तो राजन जी को मैं खुद ही अटेण्ड करता । अब तुम्हें ही करना होगा इसलिये कुछ न हो तो पडौस से टीनू या बबलू को ही बुला लेना कुछ तो मदद मिलेगी ही । और फिर.....कहते-कहते कनक रुक गया ।और सोनिया का चेहरा देखने लगा जिस पर हैरानी के भाव थे ।
राजन सोनिया के भाई का दोस्त है और सोनिया का सहपाठी भी । यहाँ विभाग के किसी काम से आया है। कनक से अनायास ही भेंट होगई तो औपचारिकतावश घर आने को कहना ही पडा ।अब उसकी ट्रेन शाम सात बजे है। और कनक छह बजे से पहले नही लौट पाएगा । तब तक सोनिया को अकेले ही सब देखना होगा और फिर......कनक आगे कहते-कहते रुक गया ।
पर इतने छोटे बच्चे भला क्या मदद करेंगे ---सोनिया ने हैरानी से पति को देखा । वैसे भी कोई खास काम नही है । बाजार से कुछ लाना नही है । खाना बन ही चुका है । बस परोसना ही तो है । टीनू--बबलू को बुलाने की क्या जरूरत ।
जरूरत है-------कनक ने जोर देकर कहा--- हर बात को अपने हिसाब से मत देखा करो । तुम घर में अकेली हो और.......सोनिया , लोगों को बात बनाते देर नही लगती ।बच्चे रहेंगे तो..........।
सोनिया कनक के आशय को समझ कर आहत होगई । बोली-----कनक , राजन मेरे भाई जैसे हैं ।
पर भाई तो नही है न । कनक ने तपाक से कहा और बाहर निकल गया । सोनिया अवाक् सी पति को देखती रह गई

( 2 ) फर्क
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माँ ,विनीता को साकेतनगर जाना है ।
सुनील की बात सुनकर मेरे मन में हल्का सा विरोध जागा और साथ में कई सवाल भी । साकेतनगर यानी अपनी माँ के घर । पर क्यों ....आज ही तो सुबह दोनों पूना से आए हैं वह भी सिर्फ हफ्ताभर के लिये । अभी बैग, सूटकेस खुले तक नही हैं । इसके अलावा विनीता की माँ अभी कुछ दिन पहले ही महीनाभर पूना रह कर लौटी हैँ । मुझे तो फिर भी दोनों छह माह बाद मिल रहे हैं । वैसे भी मेरी अपनी कोई बेटी नही है । विनीता ही मेरी बहू भी है और बेटी भी । कबसे उसके आने का इन्तजार था । उसके आने से घर कैसा भरा-भरा लगरहा है ।पहले कितनी सारी बातें सोच रखी थी मैंने । दोनों को --क्या बना कर खिलाऊँगी । कहाँ-कहाँ चलेंगे । कितनी सारी बातें करेंगे । और भी कितना कुछ । पर यह क्या ..विनीता ने आते ही माँ के पास जाने की योजना बना ली । मुझे बताए बिना ही .....।
ये सारी बातें सोचते हुए मैंने स्नेह व कुछ अधिकार से कहा ---
बेटी अभी तो हम लोग ठीक से मिले बैठे भी नहीं हैं । साकेत नगरभी चली जाना । पहले मेरे साथ तो....
आपके साथ तो रहूँगी ही-----विनीता ने मेरी पूरी बात सुने बिना ही कुछ उदासी के साथ कहा-----पर मम्मी अकेली हैं । भाभी मायके चली गईं हैं ।...मम्मी की तबियत भी ठीक नही है । इसलिये मैं सोच रही थी कि ....।
बातें सहज-स्वाभाविक होते हुए भी मुझे झिंझोड गईँ ।मायके जाने के पीछे विनीता के तर्क नही , वह आत्मीयता व संवेदना प्रमुख थी जो एक बेटी की माँ के लिये होती है । ये सारी समस्याएं मेरी भी हो सकतीं थीं यदि विनीता मेरी बेटी होती । पहली बार मुझे बेटी की कमी खली । बहू और बेटी के इस फर्क को स्वीकार करते हुए मैंने विनीता के जाने को सहज रूप में ले लिया । मेरे पास और कोई चारा भी तो नही था ।

9 टिप्‍पणियां:

  1. गिरिजा जी! आपको पढ़ना हमेशा अच्छा लगता है. अपना सा!! आज आपकी पहली लघुकथा पर तो अविश्वास का प्रश्न ही नहीं.. मेरी ख़ुद की बीती है...मगर सोच अभी भी नहीं बदली..
    दूसरी कथा, जिसे मैं घटना कहूँ तो उचित होगा,बस पड़ोस की बात है. आपने आस पास से जो कहानियाँ उठाई हैं उसका जवाब नहीं..एकदम खरा सोना, चौबीस कैरेट!!

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  2. "मेरी दुनिया चाहर दिवारी और एक छत,
    वास्तविक संसार में झांकता मेरा संसार, कुछ खिड़कियाँ और एक दरवाजा,
    उन खिड़कियों और दरवाजों पर सज्जित मेरे भ्रम, पर्दों की तरह,
    मेरी चेतना, छत पर लगे प्रकाशित बल्ब की तरह,
    पर प्रकाश की पहुँच हर कोने तक नहीं,
    और दरवाजे पर दस्तक सुनते ही छिपकली की तरह,
    छुप जाता मेरा सहस........"

    मेरी एक रचना की कुछ पंक्तियाँ आपकी इन लघु कथाओं के नाम....चंद कुछ पंकियों में बहुत गूढ़ता और रिश्तों की परिभाषा में किसी एक की अतृप्त उम्मीदें है.
    बधाई हो माँ, आपकी दो अद्भुत रचनाओ के लिए.

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  3. सलिल जी आपकी टिप्पणियाँ मेरे लिये बहुत महत्त्वपूर्ण हैं । धन्यवाद ।

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  4. गिरिजा जी,
    दोनों ही लघु कथाएं आम जीवन के सन्दर्भों को बड़े ही भावपूर्ण अभिव्यक्ति के साथ मुखरित कर रही हैं !
    लेखन शैली में प्रवाह है जो पाठक को साथ लेकर चलता है !
    आपके ब्लॉग पर आना सार्थक हुआ!
    धन्यवाद !
    -ज्ञानचंद मर्मज्ञ

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  5. वो दिन कब आयेगा जब कनक जैसे लोग अपनी पत्नी पर विश्वास करना सीखेंगे ? सुन्दर लघु कथाएँ।
    आभार।

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  6. मेरे मत में विश्वास जीता जाता है| ये सिर्फ औरत के लिए नहीं, आदमी के लिए भी लागू होता है |
    एक दूसरे के पूरक होने का अहसाह ही किसी रिश्ते को मजबूत करता है, और सिर्फ ये एक अहसाह होने में शायद कई जन्म लग जाते है.
    "मेरी स्वतंत्रता और मेरी पूरक की भावनात्मक संतुष्टी" ये एक ऐसा असंतुलित विषय है जो शायद कभी हल नहीं होगा| पर ऐसे लोग भी है जो इनमें संतुलन बनाते है|
    और ये संतुलन किसी एक के प्रयास नहीं, वल्कि दोनों के होते है|
    "किसी एक की स्वतंत्रता और उसका दूसरे पर विस्वास" इस तथ्य का अनुपात अगर आदमी और औरत में सामान नहीं है तो ऐसा होता है और ये प्रकिर्तिक है.
    हाँ अगर कोई एक दमन की चेष्ठा को विस्वास से जोड़े तो वो धूर्तता कहलाएगी| हम यहाँ दूर्ताता की बात नहीं कर रहे है शायद|

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  7. bade bhaiya bihari babu ne sach kaha Girija di.......:)

    bhai aur bhai jaisa.........ye bada ahmak prashn ban gaya hai..........:)

    dono kahani sarvottam

    pahlee baar aaya, ab follow kar raha hoon, barabar aaunga...........
    kabhi di hamare blog pe aana..

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  8. जी नमस्कार गिरिजा जी आप शायद हमारी मौसी हैं
    खैर अभी मैंने अपना ब्लॉग सृजन नाम से बनाया है
    और उस पर अपनी एक कविता पोस्ट की है
    यदि आप पड़े तो बहुत ही अच्छा लगेगा

    Dipendra Kulshreshtha

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