सोमवार, 21 मार्च 2011

कैसी होली , कैसा फाग


आप सबको होली की बहुत--बहुत बधाई ।
इस बार हमारे शहर में तो होली बडी फीकी-फीकी सी रही । न रंग--गुलाल से सजे बाजार, न उमंग भरे छींटे न ही मस्ती भरी बौछारें । सुबह-सुबह रोज नीम की सूनी होती टहनियों में ही बैठ कर कोयल भले ही कुहू-कुहू की टेर लगाती रही कि होली आने वाली है और कहीं भूले-भटके से रह गये कचनार की गुलाबी-जामनी फूलों लदीं टहनियाँ भले ही मन में एक अनकही सी वेदना के साथ-साथ उमंगों की हिलोरें जगाने के जी-तोड प्रयास करती रही , स्कूल में विद्यार्थी भले ही बॅालपेन से अपने साथियों की शर्ट पर लकीरें खींच कर मासूम से विवाद सामने लाते हुए याद दिलाते रहे कि होली आ ही गई है ।
लेकिन होली आई कहाँ ..।

रिश्तों में दिनोंदिन आती दूरियों , मोल-तोल और व्यापार-बुद्धि के चलते जीवन के रंग तो वैसे ही फीके होरहे हैं ,उस पर आजकल शहर के सौंन्दर्यीकरण के लिये , सडकों के चौडीकरण के लिये निर्ममता से मकान गिराए जारहे हैं ,दुकानें तोडी जारहीं हैं । सरकारी आदेश है कि सन् 1940 के नक्शे के आधार पर बने मकानों को ही वैध मान कर अतिक्रमण को हटाया जाय और सडकों का चौडीकरण किया जाय । गनीमत है कि मकानों को ही अवैध माना गया है जनसंख्या को नही वरना क्या होता । लोगों ने अतिक्रमण हटाने के नाम पर हाय-तोबा मचाई पर न्यायालय का सख्त आदेश के चलते अब लोग खुद ही अपने मकानों को तोड रहे हैं । वरना थ्रीडी मशीन किसी आतंकी हमलावर की तरह पल भर में इमारतों को धराशायी करने तैयार बैठी है । इस तोड-फोड में सडक ही नही , गली-मोहल्ला ही नही , या कि घर-आँगन ही नही, तन मन भी जैसे मलबे से पट गए हैं सारे रंग धूसर से हो गए हैं । होली मनाने की औपचारिकता के लिये जहाँ भी चार लोग जुड रहे हैं लौट--फिर कर तोड-फोड के मुद्दे पर आजाते हैं कि जब मकान बन रहे थे तब क्या निगम वाले सो रहे थे । कि आदमी कैसे--कैसे अपने लिये घर बनाता है । गरीब आदमी का तो मरना हो ही गया पर धन्धा चौपट होने से व्यापारियों का भी कम नुक्सान नही हुआ । देखना इस बार यह सरकार तो गिरेगी । मुख्य-मार्ग वाले घरों में गृहणियाँ गुझिया-मठरी बनाने की बजाय घर में बैठने की जगह बनाने की उलझन में उलझी रहीं । हर कोई कबीर के दोहे -माली आवत देख कर... में ,काल हमारी बार, की आशंका से त्रस्त हैं । जिस तरह लोगों ने इस बार होली मनाई है, मैंने भी बडी कोशिशों के बाद कुछ पंक्तियाँ लिखी हैं बिखरे मकानों की तरह ही । पढ कर आप यदि मुझे कोसने लगें ,जैसे लोग नगर-निगम वालों को कोस रहे हैं, तो कोई अचम्भा नही ।
(1)
हे प्रिय ,
जिस तरह अतिक्रमण का आरोप लगा कर
जब देखो , तुम तोडते रहते हो
निर्ममता से हमारा मन
उसी तरह आजकल थ्रीडी मशीन ,
ताबडतोड तोडे जारही है
सडक वाले भवन ।
तुम्हारी तरह ही
वह नही सुनती किसी का हाहाकार
पल भर में ध्वस्त करती दरो-दीवार
उडाती गर्द-गुबार ।
जापान में तो मकान भूकम्प ने गिराए
सुनामी ने बहाए ।
बेवशी थी उस कहर को सहना ।
पर यहाँ तो मुश्किल हुआ रहना
अपने ही हाथों ,अपने घर
खुद ही गिराए जारहे हैं
शहर को सुन्दर बनाने के 
सपने दिखाए जारहे हैं ।
बताओ तो कि ,
पलकों के नीचे बसतीं रहीं बस्तियाँ
तब कहाँ थीं ये हस्तियाँ ।
मैं तो हूँ तोड-फोड से त्रस्त
सामान समेटने में व्यस्त
तुम्हारे इस तर्क को समझने में 
मुझे अभी लगेगा वक्त
कि जरूरी होता है ,विध्वंस
नये निर्माण के लिये..।
(2)
चारों ओर लगी है आग
कैसी होली , कैसा फाग ।

रिश्तों में जंजीर नही है
काँटा तो है पीर नही है
जहाँ भी देखो, जिसे भी देखो
हंगामा और भागमभाग ।
कैसी होली कैसा फाग ।

अतिक्रमण की भेंट चढे हैं
टूटे बिखरे भवन पडे हैं

किसना का मकान कहाँ है
बिसना की दुकान कहाँ है
ईंट-पत्थरों की ढेरी में
रंग भरे अरमान कहाँ हैं ।

रस्ते में कचनार खडा था ।
गुलमोहर का पेड अडा था
पिछले साल आम की टहनी
गुच्छ-गुच्छे बौर जडा था ।

काट गिराए सडक बनाने ।
कोलतार बेधडक बिछाने ।
चेहरे की रंगत सब देखें ,
देखे कोई न दिल के दाग
कैसी होली कैसा फाग ।

आस नही विश्वास नही है
फिर भी कहें विकास यही है ।
टुकडा भर ही हिस्से में है
कहने को आकाश वही है ।

मोल-तोल और लेन-देन में
हुआ बेसुरा राग-विहाग
कैसी होली कैसा फाग ।
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सोमवार, 7 मार्च 2011

महिला--दिवस पर दो कविताएं

(1)
तुमने तो कहा था ...
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सस्मित स्वीकारोक्ति भरे
तुम्हारे दो शब्दों को ही नाव बना कर
मैंने तो पार कर लिया
विशाल सागर भी ।

लम्बी निर्जन खामोशी के बीच
सुनती रही तुम्हारी आवाज
अचानक आए
प्रतीक्षित कॅाल की तरह

पढती रही तुम्हारे अक्षरों को
जैसे पढता है कोई ,
अपनी पहली बार छपी कविता को ।

सहेज कर रखी तुम्हारी प्रतीक्षा
जैसे सहेज कर रखता है कोई सन्दूक में
अपने एकमात्र कपडों के जोडे को ।

फिर भी तो
तुम्हारे लिये
मेरा अर्थ रहा
सिर्फ एक देह होना
एक भावविहीन देह ।
परखते रहे हमेशा
जैसे उलट-पलट कर
मोलभाव कर परखता है कोई
फल--सब्जी ।
कसौटी पर खरी न पाकर
उतार दिया मुझे दीवार से
गुजरे साल के कैलेण्डर की तरह ।
पर ...
तुमने तो कहा था कि,
तुम मुझसे प्रेम करते हो ।
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(2)
लिखो तुम
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बेमन ही लिखते रहे तुम
असंगत वाक्य
अर्थहीन खुरदरी भाषा
ऊबड-खाबड शब्द
और फिर झुँझला कर
काटते रहे ।
अब मत करो
मेरा उपयोग
यूँ रफ कापी की तरह ।
देखो मेरा हर पृष्ठ
साफ है ,उपयोगी है ।
लिख सकते हो तुम
ह्रदय के गीत ।
खूबसूरत रेखाचित्र ।
बेशुमार यादगार पलों का
हिसाब किताब
उलझे सवालों के
सुलझे जबाब ।
अंकित करो उन पर
गहरे अहसास
विश्वास की धरती
और उम्मीदों का आकाश
पढे जिसे समय
भर कर विश्वास ।