शनिवार, 2 अप्रैल 2011

उन दिनों



यह बात उन दिनों की है ,
जब हमारे आँगन में
खुशियाँ महकतीं थीं
नीम और सरसों के फूलों में ही
और ठण्डक देती थी
बबूल की छाँव भी ।
पाँव नही थकते थे
मीलों चलते हुए भी
भरी दुपहरी में ।
बिताते थे हम अँधेरी रातों को
बिना किसी शिकायत के
गीतों के दीप जलाकर
प्रतीक्षा करते हुए उजाले पाख की ।
और चाँदनी सचमुच उतर आती थी
हमारी आँखों में ,निर्बाध.....
और बुनती थी छप्पर के तिनकों में ही
रुपहले रेशमी सपने ।
ऊँची नहीं होतीं थी
माटी की दीवारें ,
झाँक सकते थे पडौस के आँगन में
पंजों के बल खडे होकर
देखने ,कि सब्जी क्या बन रही है ।
या कि किस बात पर आपस में ठन रही है ।
कहीं किसी दुराव की जरूरत नही थी ।
बिना दस्तक दिये ,बिना पूछे ही
आँगन में ,आकर बैठ जाता था
पूरा आसमान,
बेझिझक पाँव पसार ।
नदी की राह में नही थी कोई खाई या दीवार
जरा सी आहट पर झट् से खुल जाते थे द्वार
यह उन दिनों की बात है
जब हर बार कुछ नया पेश करने की सूरत नही थी
मन बहलाने किसी साधन की जरूरत नही थी
खाली नही था मन को कोई कोना
मुट्ठी में था खुशी का होना न होना ।
क्योंकि तब हमारे बीच शहर नही था ।
शहर --जो अपनी असभ्यता व पिछडेपन से उबरने
खुद हमने ही बसाया ।
अपने आसपास ।
अब ,हम सभ्य हैं
प्रगतिशील हैं
हमारे आसपास चमक-दमक है
सुविधाएं हैं और सोने--चाँदी की खनक है
एक भरा-पूरा शहर आ बसा है हमारे बीच..।
और हम ढूँढ रहे हैं , अपनी खोई हुई
एक ठहाके वाली हँसी
किसी भीड भरे बाजार में ।

17 टिप्‍पणियां:

  1. "ठण्डक देती थी
    बबूल की छाँव भी ।
    पाँव नही थकते थे
    मीलों चलते हुए भी
    भरी दुपहरी में ।
    बिताते थे हम अँधेरी रातों को
    बिना किसी शिकायत के
    गीतों के दीप जलाकर"

    बहुत ही खूबसूरत अभिव्यक्ति ।
    आभार

    जवाब देंहटाएं
  2. "ऊँची नहीं होतीं थी
    माटी की दीवारें ,
    झाँक सकते थे पडौस के आँगन में
    पंजों के बल खडे होकर
    देखने ,कि सब्जी क्या बन रही है ।
    या कि किस बात पर आपस में ठन रही है ।
    खाली नही था मन को कोई कोना
    मुट्ठी में था खुशी का होना न होना ।"

    बहुत खूब । दिल को छू लिया गिरिजा जी आपकी रचना ने । एक एक शब्द एक एक पंक्ति सार्थक है ।
    इतनी अच्छी रचना के लिये साधुवाद ।

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  3. इसे मैं इधर की पढ़ी सबसे अच्छी कविताओं में शामिल कर रख रहा हूँ...

    ये सब बातें पढ़/सोच के अच्छा लगता है, वहीँ दुःख होता है
    मुझे तो लगता है वैसे दिन काश फिर आ जाए

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  4. बहुत खूबसूरत रचना ...




    चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 05 - 04 - 2011
    को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..

    http://charchamanch.blogspot.com/

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  5. यह उन दिनों की बात है
    जब हर बार कुछ नया पेश करने की सूरत नही थी
    मन बहलाने किसी साधन की जरूरत नही थी
    खाली नही था मन को कोई कोना
    मुट्ठी में था खुशी का होना न होना ।
    क्योंकि तब हमारे बीच शहर नही था ।

    सच कहा………शहर मे रहकर भी शहर अपना सा नही रहा अब्…………पहले की बात ही अलग थी फिर चाहे वो शहर हो या गाँव …………आत्मीयता से भरपूर ज़िन्दगी होती थी।

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  6. kya kahun is rachna ke prabhaw ko... bas aapse anurodh hai ki aap apni yah rachna vatvriksh ke liye rasprabha@gmail.com per bhej dijiye parichay tasweer aur blog link ke saath

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  7. एक भरा-पूरा शहर आ बसा है हमारे बीच।
    और हम ढूँढ रहे हैं , अपनी खोई हुई
    एक ठहाके वाली हँसी
    किसी भीड भरे बाजार में ।

    सचमुच, ठहाके वाली हंसी अब गुम हो गई है।
    अतीत और वर्तमान के दृश्यों को यह कविता जीवंत कर रही हे।

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  8. और हम ढूँढ रहे हैं , अपनी खोई हुई
    एक ठहाके वाली हँसी
    किसी भीड भरे बाजार में ।
    एक सच बयां करती ...अनुपम प्रस्‍तुति ।

    जवाब देंहटाएं
  9. नीम और सरसों के फूलों में ही
    और ठण्डक देती थी
    बबूल की छाँव भी ।
    पाँव नही थकते थे
    मीलों चलते हुए भी
    भरी दुपहरी में ।

    bahut pyari si abhivyakti:)
    ek ek pankti shandaar

    जवाब देंहटाएं
  10. शहर --जो अपनी असभ्यता व पिछडेपन से उबरने
    खुद हमने ही बसाया ।
    अपने आसपास ।
    अब ,हम सभ्य हैं
    प्रगतिशील हैं
    हमारे आसपास चमक-दमक है
    सुविधाएं हैं और सोने--चाँदी की खनक है
    एक भरा-पूरा शहर आ बसा है हमारे बीच..।
    और हम ढूँढ रहे हैं , अपनी खोई हुई
    एक ठहाके वाली हँसी
    किसी भीड भरे बाजार में ।

    ---

    इस तरक्की भी भाग-दौड़ में अपनेपन की खुशबू कहीं पीछे छूट गयी।

    .

    जवाब देंहटाएं
  11. अब ,हम सभ्य हैं
    प्रगतिशील हैं
    हमारे आसपास चमक-दमक है
    सुविधाएं हैं और सोने--चांदी की खनक है
    … … …
    …और हम ढूंढ रहे हैं , अपनी खोई हुई
    एक ठहाके वाली हंसी
    किसी भीड़ भरे बाजार में


    आपकी रचना का अंतर्निहित भाव अंदर तक छू रहा है ………
    बहुत भाव पूर्ण लिखा है आपने …!

    आदरणीया गिरिजा कुलश्रेष्ठ जी
    सादर सस्नेहाभिवादन !
    प्रणाम !

    कितनी बार पढ़ गया हूं आपकी यह कविता … लगता है कि मेरी अपनी कविता है … … …

    कहीं किसी दुराव की जरूरत नही थी ।
    बिना दस्तक दिये , बिना पूछे ही
    आंगन में आकर बैठ जाता था
    पूरा आसमान,
    बेझिझक पांव पसार ।


    आज स्थिति ऐसी हो गई है कि सगे मां-जाये-भाई को भाई के घर दस्तक दे'कर , डोर-बॅल बजा कर अंदर आने की हिदायत मिलती है , जबकि ठीक वहीं पराये ग़ैर लोग घर के अंतःकक्ष तक ठाठ से घुसते - निकलते पाये जाते हैं …

    पूरी कविता की एक एक बात मन को छू रही है …
    ( हालांकि यह स्थिति वहां भी व्याप्त है , जहां शहर नहीं … गांव - कस्बा ही है , लेकिन आपकी रचना का सत्य सर्वत्र देखा - अनुभव किया जा सकता है … )

    अच्छी रचना के लिए आभार !

    आज यहां गणगौर पर्व मनाया जा रहा है …
    आपको गणगौर पर्व और नवरात्रि उत्सव की शुभकामनाएं !

    साथ ही…

    *नव संवत्सर की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !*

    नव संवत् का रवि नवल, दे स्नेहिल संस्पर्श !
    पल प्रतिपल हो हर्षमय, पथ पथ पर उत्कर्ष !!

    चैत्र शुक्ल शुभ प्रतिपदा, लाए शुभ संदेश !
    संवत् मंगलमय ! रहे नित नव सुख उन्मेष !!


    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  12. गिरिजा जी! मुक्तछंद की कविता होते हुए भी इतनी लयात्मकता विरले ही दिखती है इन दिनों.. सबसे पहले इसके लिए मेरी बधाई स्वीकार करें.. जिन यादों को समेटा है आपने शब्दचित्र के माध्यम से वह तभी सभी संभव है जब आपने उसको जिया हो, सिर्फ किताबी बातें नहीं.. कविता में उन यादों की महंक मिलती है..
    स्ववास्थ ठीक न होने के कारण अनियमित हो सकता हूँ, किन्तु यहाँ न आऊँ तो मेरा ही नुक्सान है!! धन्यवाद आपका!!

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  13. अंतर्मन तक छु गई यह कविता |
    बार बार यही विचार आता है हम ऐसे क्यों को गये है ?
    क्या सुविधाए अपनों को अपनों से दूर कर देती है ?
    अपने नाम कहने वाली टिप्पणी पढ़कर बहुत अच्छा लगा |
    आभार

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