बुधवार, 1 जून 2011

ऊँचाई पर----दो व्यंजनाएं

(1)एक विस्तार
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एयर इण्डिया के विमान में
उडते हुए मैंने देखा कि
विशाल और शानदार दिल्ली शहर ,
जो धीरे--धीरे सिमट कर
बदलता हुआ सा लग रहा था
पत्थरों के ढेर में ,
अचानक अदृश्य होगया था
मानो रिमोट का गलत बटन दबाने पर
टी .वी. पर चलता कोई दृश्य
कहीं खोगया था ।
बहुत नीचे छूट गए थे
पहाड ,जंगल ,नदियाँ ।
अब कहाँ ! ,वे मोहल्ले की
छोटी--छोटी गलियाँ ।
घर--आँगन कमरे दीवारें...
दीवारों में कैद
मान--मनुहार
नफरत या प्यार
संघर्ष और अधिकार
द्वेष या खेद का
रंग और भेद का
नही था कोई रूप या आकार
धरती से हजारों मीटर ऊपर
चारों और था एक शून्य
असीम , अनन्त
दिक् दिगन्त ।
अहसास था केवल
अपने अस्तित्व का
या फिर गंतव्य तक पहुँचने का ।
शायद ,ऊँचाई पर पहुँचने का अर्थ
मिटजाना ही है ,सारे भेदों का ।
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(2) मुहावरों का फर्क
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एक अपार्टमेंट की
छठवीं मंजिल पर
सर्वसुविधा-युक्त फ्लैट
धूल, कीचड और दुर्गन्ध से मुक्त
देख सकती हूँ यहाँ से
चारों ओर ऊँची--ऊँची इमारतों की सूरत में
उग रहा शहर
सडकों पर रेंगते छोटे--छोटे आदमी
छोटी ,खिलौने सी कारें
इतनी ऊँचाई पर खडी
सोचना चाहती हूँ कि
अच्छा है ,परे हूँ अब-
गर्द--गुबार से ।
कीचड में खेलते बच्चों की
चीख-पुकार से ।
सब्जी वाले की बेसुरी सी आवाज
या पडौसन के खरखरे व्यवहार से ।
दूध लाने वाले बूढे की आह से भी
और किसी इमारत की छाँव में
दो पल को सुस्ताने बैठी
मजदूरिन की हसरत भरी निगाह से भी ।
महसूस करना चाहती हूँ कि
इसी को कहते हैँ
"पाँव जमीन पर न होना"
पर जाने क्यों
मुझे याद आता है -
"पाँव तले जमीन न होना ।"
छठवीं मंजिल के इस सर्वसुविधा-युक्त फ्लैट में
मानो अपने आप से ही दूर
सपाट.....संवेदना--शून्य
कहीं अधर में टँगी हुई सी मैं !
अक्सर करती हूँ
दोनों मुहावरों का विश्लेषण ।
और पाती हूँ कि ,
भले ही पाँव जमीन पर न हों लेकिन,
बहुत जरूरी है पाँवों तले जमीन होना ।
खुद के करीब रहने के लिये..।

12 टिप्‍पणियां:

  1. भले ही पाँव जमीन पर न हों लेकिन,
    बहुत जरूरी है पाँवों तले जमीन होना ।
    खुद के करीब रहने के लिये..।

    बिल्कुल सटीक व्याख्या की है……………शानदार प्रस्तुति।

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  2. दोनों रचनाएँ गहन चिंतन को दर्शा रही है ... सुन्दर प्रस्तुति

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  3. इतनी ऊँचाई पर खडी
    सोचना चाहती हूँ कि
    अच्छा है ,परे हूँ अब-
    गर्द--गुबार से ।
    कीचड में खेलते बच्चों की
    चीख-पुकार से ।
    सब्जी वाले की बेसुरी सी आवाज
    या पडौसन के खरखरे व्यवहार से ।
    दूध लाने वाले बूढे की आह से भी
    और किसी इमारत की छाँव में
    दो पल को सुस्ताने बैठी
    मजदूरिन की हसरत भरी निगाह से भी ।
    महसूस करना चाहती हूँ कि
    इसी को कहते हैँ
    "पाँव जमीन पर न होना"
    पर जाने क्यों
    मुझे याद आता है -
    "पाँव तले जमीन न होना ।"... zaruri jo hai zameen se jude rahna

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  4. शायद ,ऊँचाई पर पहुँचने का अर्थ
    मिटजाना ही है ,सारे भेदों का ।
    आह ...!
    कमाल की अनुभूति है और कमाल की अभिव्यक्ति भी। शुरु से कविता कहीं और ले जाती प्रतीत हो रही थी पर अंत इतना गूढ़ रहस्य की सहज अभिव्यक्ति के रूप में हुआ!
    बहुत सुंदर!

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  5. भले ही पाँव जमीन पर न हों लेकिन,
    बहुत जरूरी है पाँवों तले जमीन होना ।
    खुद के करीब रहने के लिये..।
    आपसे सहमत हूं।

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  6. गिरिजा जी!
    दूसरी से पहले बात रखता हूँ.. मुहावरों का इतना सटीक इस्तेमाल देखकर दांग हूँ आपकी सोच की "ऊंचाई" पर. बहुत खूबसूरत.. इन दोनों मुहावरों का इतना सुन्दर और उचित प्रयोग एक साथ देखकर दंग हूँ!!
    पहली रचना तो शहरी जीवन और कंक्रीट के जंगलों की व्यथा कथा है, जो आपके वर्णन से जीवंत हो गयी है!!

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  7. दोनों ही रचनाएँ बहुत गहराई से किये गए चिंतन से उपजी हैं और पाठक को कुछ सोचने पर विवश करती हैं, सचमुच जमीन से जुड़े रहना बहुत जरूरी है..खुद के करीब होने के लिये !

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  8. आप सबकी राय मेरे लिये बडा अर्थ रखती है । शुक्रिया । कृपया मेरे नए ब्लाग कथा--कहानी पर भी ,जब भी समय हो , अवश्य मेरी कहानियाँ पढें । मुझे एक सही दिशा मिलेगी ।

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  9. आपका लिंक देखा था, तो लगा आसमान का फ़ोटो भी साथ होगा, पर मिला छ्त का,

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  10. "भले ही पाँव जमीन पर न हों लेकिन,
    बहुत जरूरी है पाँवों तले जमीन होना ।
    खुद के करीब रहने के लिये..।"

    बहुत गहरी बात कही है गिरिजा जी ।
    दोनों रचनाएं बिल्कुल सटीक हैं ।

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  11. अपने सम्मोहन में समाहित कर लेने वाली हैं दोनों ही रचनाएं....

    क्या प्रशंसा करूँ ???

    अद्वितीय !!!!

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  12. उचाई पर पहुंचने का अर्थ सारे भेदों का मिट जाना तो है ही साथ आपकी दूसरी रचना के अनुसार व्यक्ति दूसरों के दुखदर्द चीख पुकार दयनीय गरीबी भूख सभी से परे हो जाता है

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