रविवार, 31 जुलाई 2011

वे दो शब्द

वे दो शब्द--
मरहम से,
दे दो उसे
जो गिरा है अभी-अभी
लगा लेगा
अपने ताजा जख्मों पर ।

वे दो शब्द--
उत्तीर्ण होने की सूचना जैसे,
पेपर बिगडने के बावजूद
दे दो उसे ।
जो फेल होजाने पर
शर्मिन्दा हो ।
अपने आप से
चल सके फिर से
नये हौसले के साथ ।

वे दो शब्द-
अनायास ही
किसी किताब के पन्नों में मिल गये,
नोटों जैसे
दे दो उसे
जो तलाश रहा हो बेचैनी के साथ
अलमारी का कोना-कोना
पर्स गुल्लक तकिया बिछौना
एक-एक अठन्नी के लिये
महीने के आखिरी दिनों की
तंगहाली में ।

मंगलवार, 26 जुलाई 2011

चलते--चलते

सीट-1
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गाडी जैसे ही स्टेशन पर रुकी । अनारक्षित डिब्बों में लोगों ने अपनी-अपनी सीट सम्हाली ।किसी ने पाँव पसार लिये किसी ने बैग रख लिया । जो लोग टायलेट के लिये निकले थे वे भी लौट कर अपनी सीट पर जम गए । पता नही कौन आकर बैठ जाए । और एक बार जम गए व्यक्ति को हटाना बडा मुश्किल होता है ।ऐसे में ही भीड का एक रेला डिब्बे में घुसा ।लोग चल कर नही मानो धक्कों के सहारे आगे बढ रहे थे । जैसे कोई बेतरतीबी से थैले में कपडे ठूँसे जारहा हो । पसीने की गन्ध मिश्रित भभका साँसों में घुटन पैदा करने लगा । सीट पर बैठे लोगों को यह आपत्ति थी कि खडे लोगों की भीड ने हवा का रास्ता भी बन्द कर दिया था ।वहीं खडे लोग कहीं किसी तरह पाँव रखने की जगह बना रहे थे और बैठे लोगों से कह रहे थे --"भैया यह सीट छह लोगों की है और बैठे पाँच ही हैं ।"
पहले तो बैठे लोगों ने यह बात सुनी ही नही । पर जब यही बात कई बार दोहराई तब एक ने ऊँघते हुए कहा--"दूर से आ रहे हैं भैया । थके हैं । आगे चले जाओ । डिब्बा खाली पडा है ।"
"बैठे--बैठे भी तकलीफ हो रही है तुम्हें । एक आदमी जो कुछ पढा-लिखा लगता था ,बोल उठा---आराम करना था तो घर पर ही रहते न !"
"किराया हमने भी दिया है । कोई सेंतमेंत नही जा रहे ।"--एक दूसरे यात्री को भी बल मिला ।
वही एक अधेड उम्र के सज्जन भी खडे थे ।ऊपर को सँवारे हुए खिचडी बाल ,लम्बी और आगे को झुकी नाक ,आँखों में अनुभव की चमक ।सफेद लेकिन कुछ मैले कुरता-पायजामा और कन्धे में लटका खद्दर का थैला उन्हें सबसे अलग बना रहा था । वे बडी व्यंग्य भरी मुस्कान लिये लोगों का वार्तालाप सुन रहे थे । मौका पाकर बोले--"जमाना ही बदल गया साहब । आदमी की गुंजाइश खत्म हो रही है वरना दिल में जगह हो तो कहीं कोई रुकावट है ही नही । पहले जवान लडके बुजुर्गों व महिलाओं को उठ कर जगह देते थे ।पर आज खुद को जगह मिल जाय बस...। अरे कुछ घंटों का सफर है । कोई लग कर यहाँ रहना तो है नही । सीट कोई अपनी पुश्तैनी थोडी है ।"
उन सज्जन की बातों से प्रभावित होकर लोगों ने सरक कर उनके लिये जगह बनादी ।उनके चेहरे पर असीम सन्तोष छागया । बैठ कर वे अपने अनुभव लोगों को सुनाने लगे । पर जैसे ही अगला स्टेशन आया वे कुछ अस्थिर व सजग होगए ।
इस बार उनकी सजगता व व्यग्रता सीट पाने की नही ,सीट बचाने की थी ।वे आने वाले हर यात्री से कह रहे थे --भैया जी आगे जाओ पूरा डिब्बा खाली पडा है
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सीट---2
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यह वर्षों पहले की बात है । जब एक दिन बस से मैं अकेली अपने गाँव लौट रही थी । जौरा बस स्टैण्ड पर जब बस पाँच मिनट के रुकी तो अमरूद खरीदने का विचार आय़ा । मैंने अपना बैग सीट पर रखा । बगल वाली सीट पर बैठे सज्जन को जता कर मैं फल खरीदने चली गई और दो ही मिनट में जब लौटी तो मैंने अपनी सीट पर एक सहारिया-महिला को बैठी पाया जो लकडियाँ बेच कर घर लौट रही थी । वह मेरे विरोध--भाव से पूरी तरह बेखबर सी इस तरह बैठी थी मानो वह सीट सदा से उसी की है । मेरा बैग हटा कर उसने एक तरफ नीचे रख दिया गया था । पहले तो मुझे गुस्सा आया । पर वैसा ही जैसा अखबार की खबरें पढते--पढते आता है । वह मेरे गुस्से से अप्रभावित ,अनजान ,अविचल भाव से बैठी रही ।
"यह सीट तो मेरी है । तुम कही दूसरी सीट देखलो ।"--मैंने खुद को संयत कर कहा ।
मेरी इस बात पर उस महिला ने पहले तो मुझे ऐसे देखा जैसे मैंने कोई अनधिकृत बात कह दी हो । और फिर बडे खरखरे से लहजे में बोली-- "काए, सीट पै का तेरौ नाम लिख्यौ है ? तुई कौं नई देखि लेती अपने काजैं सीट ?"
मैने आसपास देखा लोग दबे--दबे मुस्करा रहे थे । मुझे लगा कि एक अनपढ मजदूर महिला से विवाद करना ठीक न होगा । इसलिये मैं पीछे एक सीट पर जगह बना कर बैठ गई ।
लेकिन वर्षों बाद मुझे ,लकडियाँ बीन-बेच कर गुजारा करने वाली उस जाहिल आदिवासिन की उस बात के मायने समझ आए हैं कि सीट कैसे हासिल की जाती है । और इसके लिये पढा-लिखा व समझदार होना कतई जरूरी नही है । साथ ही यह भी कि ,सीट हासिल करना ही काफी नही होता ,उसे बचाए रखने की कवायदें भी जरूरी है । हालाँकि मैं इसे आजतक सीख नही पाई ,पर यह अलग बात है ।

शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

सूरज के साथ-साथ

सुबह--सुबह सूरज के साथ
उतरती है...गूँजती है
उनीदी अलसाई सी गली में
एक सत्तर साल के
आदमी की आवाज--
दूध ले लो...दूध
ठकुराइन..मिसराइन..
ओ दुकान वाली पंडिताइन
दूध ले लो ...।
उसे परवाह नही कि
साँसों के भँवर में डूबती हुई सी
उसकी आवाज चिल्लाते हुए काँपती है .
नापती हैं दूरियाँ 
झरोखों से झाँकती हुई सी आँखें
आखिरी पडाव तक
परवाह नही है उसे कि
अपना ही बोझ उठाने में असमर्थ से पाँव
डगमगाते हैं .
सूराख वाले जूतों को घसीटते हुए से
कसमसाते हैं ।
और उसे यह भी परवाह नहीं ..कि,
दमा की बीमारी बलात् ही
खीचना चाहती है उसे अस्सी तक
उसे परे हटाता है वह
दूध भरी बाल्टी का बोझ उठाए
वह रोज आता है ।
सूरज के साथ--साथ ।
क्योंकि उसे बचाना है अपने आप को
'निठल्ला' और ,रोटी-तोडा'
जैसी उपाधियों से ।
समेट लेना है उसे निरन्तर
ढेर सारी धूप अपने अन्दर ।
निकट आती नीरव शाम के धुँधलके से पहले
और  क्योंकि उसे मुस्कराते देखना हैं
अपने पोते--पोतियों को
उनकी नन्ही कोमल हथेलियों पर
चाकलेट व बिस्किट रखते हुए ।
इसलिये वह सत्तर साल का बूढा
आता है सूरज के साथ साथ गली में
और दूध के साथ भर जाता है
भगौनी में ढेर सारी ऊर्जा
उल्लास और सुनहरी धूप सा ही
एक विश्वास भी...।
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रविवार, 10 जुलाई 2011

कंगाल

खेत में झूलती बाजरे की रुपहली बालों को देख कर जिस तरह किसान की आँखें तृप्त होजाती हैं, उसी तरह अपने जवान और कमाऊ बेटे को देख कर विसनू की आखें तृप्त होगईं ।
"माँ की बीमारी की बात सुनी तो आना ही पडा बापू नही तो आजकल छुट्टी मिलना भारी मुश्किल है "---राकेश ने जूते उतार कर खटिया के नीचे सरकाते हुए कहा ।
तब तक रतनी ने हुलसते हुए नई दरी खटिया पर डालदी । दुबले पतले शर्मीले से राकेश की जगह ऊँचे और भरे-पूरे शरीर वाले ,सूट-बूट में सजे-सँवरे राकेश को देख रतनी का मन आषाढ-सावन की धरती हुआ जारहा था ।जिसमें अनगिन लालसाएं अंकुर की तरह फूट निकलीं थी । दो दिन पहले जो उसे साल भर बाद बेटे के आने की खबर लगी तो घर-आँगन लीप-पोत कर चौक पूर कर दीपावली की तरह सजा लिये थे । वैसे भी लक्ष्मी और कब तक रूठी रहेंगी रतनी से । रामदीन काका कह रहे थे कि "राकेश के यहाँ तो कपडे भी मशीन से धुलते हैं । भैया , गंगा में जौ बोये हैं विसनू ने ।"
"तो विसनू भैया ने भी राकेश की पढाई में कोई कसर नही छोडी । फटा-पुराना पहन कर , रूखा-सूखा खाकर भी कभी किसी के आगे तंगी का रोना नही रोया । इस पर भी दूसरों के लिये कभी ना नही निकला विसनू और उसकी घरवाली के मुँह से । भगवान एक दिन सबकी सुनता है ।"
गाँव वालों के मुँह से ऐसी बातें सुन विसनू का रोआं रोआं खिल जाता । आदमी की सबसे बडी कमाई तो यही है कि चार लोग सराहें ।
रतनी ने बेटे की मन -पसन्द भाजी बनाई थी । हुलस कर पंखा झलती हुई खाना खिलाने लगी ।
"बेटा बहू और मुन्नू को भी ले आता "-----विसनू बेटे के पास बैठ गया । वह बेटे से बहुत कुछ कहना चाहता था कि अब गाँव का माहौल बिगड रहा है इसलिये रज्जू को अपने साथ ले जा । कि बेटा इतने--इतने दिन मत लगाया कर आने में । कुछ नही तो एक चिट्ठी ही डाल दिया कर नही तो सरपंच काका के फोन पर फोन कर दिया कर । कि बेटा तू इधर ही बदली करवा ले ,हम लोगों को सहारा हो जाएगा ।.....
....और विसनू , बेटे के मुँह से सुनना भी चाहता था कि बापू मैं आँगन में ही एक हैंडपम्प लगवा देता हूँ । माँ कब तक बाहर से पानी ढोती रहेगी । कि किश्तों से कर्ज पटाने की क्या जरूरत बापू । मैं एकमुश्त रकम भर देता हूँ । कि एक दो पक्के कमरे बनवा लेते हैं । अब माँ को मिट्टी-गारा करने की क्या जरूरत । और..कि बापू अब तुम अकेले नही हो । गृहस्थी की गाडी खींचने में मैं भी तुम्हारे साथ हूँ । साथ क्या अब तो मैं अकेला ही काफी हूँ।----पर राकेश जाने किन खयालों में खोया रहा ।
"और शहर में क्या हाल-चाल हैं बेटा ?"--- आखिर विसनू ने बेटे की चुप्पी तोडने की कोशिश करते हुए पूछा ।
"सब ठीक हैं बापू ।"
"और... आमदनी वगैरा...।"
"आमदनी की क्या बताऊँ बापू ---शहर में जितनी आमदनी , उतने ही खर्चे हैं । मँहगाई आसमान छू रही है । मकान किराया, बिजली ,पानी और फोन के बिल...दूध--सब्जी दवाइयाँ..डा.की फीस ..तमाम झगडे हैं ।इस बार साइड नही मिली तो ऊपर की इनकम भी नही है । उस पर आने-जाने वालों का अलग झंझट..।"
विसनू ने हैरानी के साथ देखा कि सब--इंजीनियर राकेश की जगह कोई बेहद तंगहाल ,लाचार सा अनजान आदमी बैठा है । मन की सारी बातें मन में ही दबा कर उसके मुँह से बस इतना ही निकल सका---
"बेटा हाथ सम्हाल कर खर्च करो । जरूरत पडे तो राशन पानी घर से ले जाओ । और क्या....। हमने तो सोचा था कि एक बेटे को पढा कर हम निश्चिन्त होगए हैं पर .....।"