मंगलवार, 26 जुलाई 2011

चलते--चलते

सीट-1
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गाडी जैसे ही स्टेशन पर रुकी । अनारक्षित डिब्बों में लोगों ने अपनी-अपनी सीट सम्हाली ।किसी ने पाँव पसार लिये किसी ने बैग रख लिया । जो लोग टायलेट के लिये निकले थे वे भी लौट कर अपनी सीट पर जम गए । पता नही कौन आकर बैठ जाए । और एक बार जम गए व्यक्ति को हटाना बडा मुश्किल होता है ।ऐसे में ही भीड का एक रेला डिब्बे में घुसा ।लोग चल कर नही मानो धक्कों के सहारे आगे बढ रहे थे । जैसे कोई बेतरतीबी से थैले में कपडे ठूँसे जारहा हो । पसीने की गन्ध मिश्रित भभका साँसों में घुटन पैदा करने लगा । सीट पर बैठे लोगों को यह आपत्ति थी कि खडे लोगों की भीड ने हवा का रास्ता भी बन्द कर दिया था ।वहीं खडे लोग कहीं किसी तरह पाँव रखने की जगह बना रहे थे और बैठे लोगों से कह रहे थे --"भैया यह सीट छह लोगों की है और बैठे पाँच ही हैं ।"
पहले तो बैठे लोगों ने यह बात सुनी ही नही । पर जब यही बात कई बार दोहराई तब एक ने ऊँघते हुए कहा--"दूर से आ रहे हैं भैया । थके हैं । आगे चले जाओ । डिब्बा खाली पडा है ।"
"बैठे--बैठे भी तकलीफ हो रही है तुम्हें । एक आदमी जो कुछ पढा-लिखा लगता था ,बोल उठा---आराम करना था तो घर पर ही रहते न !"
"किराया हमने भी दिया है । कोई सेंतमेंत नही जा रहे ।"--एक दूसरे यात्री को भी बल मिला ।
वही एक अधेड उम्र के सज्जन भी खडे थे ।ऊपर को सँवारे हुए खिचडी बाल ,लम्बी और आगे को झुकी नाक ,आँखों में अनुभव की चमक ।सफेद लेकिन कुछ मैले कुरता-पायजामा और कन्धे में लटका खद्दर का थैला उन्हें सबसे अलग बना रहा था । वे बडी व्यंग्य भरी मुस्कान लिये लोगों का वार्तालाप सुन रहे थे । मौका पाकर बोले--"जमाना ही बदल गया साहब । आदमी की गुंजाइश खत्म हो रही है वरना दिल में जगह हो तो कहीं कोई रुकावट है ही नही । पहले जवान लडके बुजुर्गों व महिलाओं को उठ कर जगह देते थे ।पर आज खुद को जगह मिल जाय बस...। अरे कुछ घंटों का सफर है । कोई लग कर यहाँ रहना तो है नही । सीट कोई अपनी पुश्तैनी थोडी है ।"
उन सज्जन की बातों से प्रभावित होकर लोगों ने सरक कर उनके लिये जगह बनादी ।उनके चेहरे पर असीम सन्तोष छागया । बैठ कर वे अपने अनुभव लोगों को सुनाने लगे । पर जैसे ही अगला स्टेशन आया वे कुछ अस्थिर व सजग होगए ।
इस बार उनकी सजगता व व्यग्रता सीट पाने की नही ,सीट बचाने की थी ।वे आने वाले हर यात्री से कह रहे थे --भैया जी आगे जाओ पूरा डिब्बा खाली पडा है
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सीट---2
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यह वर्षों पहले की बात है । जब एक दिन बस से मैं अकेली अपने गाँव लौट रही थी । जौरा बस स्टैण्ड पर जब बस पाँच मिनट के रुकी तो अमरूद खरीदने का विचार आय़ा । मैंने अपना बैग सीट पर रखा । बगल वाली सीट पर बैठे सज्जन को जता कर मैं फल खरीदने चली गई और दो ही मिनट में जब लौटी तो मैंने अपनी सीट पर एक सहारिया-महिला को बैठी पाया जो लकडियाँ बेच कर घर लौट रही थी । वह मेरे विरोध--भाव से पूरी तरह बेखबर सी इस तरह बैठी थी मानो वह सीट सदा से उसी की है । मेरा बैग हटा कर उसने एक तरफ नीचे रख दिया गया था । पहले तो मुझे गुस्सा आया । पर वैसा ही जैसा अखबार की खबरें पढते--पढते आता है । वह मेरे गुस्से से अप्रभावित ,अनजान ,अविचल भाव से बैठी रही ।
"यह सीट तो मेरी है । तुम कही दूसरी सीट देखलो ।"--मैंने खुद को संयत कर कहा ।
मेरी इस बात पर उस महिला ने पहले तो मुझे ऐसे देखा जैसे मैंने कोई अनधिकृत बात कह दी हो । और फिर बडे खरखरे से लहजे में बोली-- "काए, सीट पै का तेरौ नाम लिख्यौ है ? तुई कौं नई देखि लेती अपने काजैं सीट ?"
मैने आसपास देखा लोग दबे--दबे मुस्करा रहे थे । मुझे लगा कि एक अनपढ मजदूर महिला से विवाद करना ठीक न होगा । इसलिये मैं पीछे एक सीट पर जगह बना कर बैठ गई ।
लेकिन वर्षों बाद मुझे ,लकडियाँ बीन-बेच कर गुजारा करने वाली उस जाहिल आदिवासिन की उस बात के मायने समझ आए हैं कि सीट कैसे हासिल की जाती है । और इसके लिये पढा-लिखा व समझदार होना कतई जरूरी नही है । साथ ही यह भी कि ,सीट हासिल करना ही काफी नही होता ,उसे बचाए रखने की कवायदें भी जरूरी है । हालाँकि मैं इसे आजतक सीख नही पाई ,पर यह अलग बात है ।

10 टिप्‍पणियां:

  1. जगह बन जाती है, कई बार हम सीट के कोने में लटक कर आये हैं, अपनी सीट दूसरे को देने के बाद।

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  2. चलो जी सिखना भी नहीं...प्रेरक

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  3. सीट तो नेता भी नहीं छोड्ते, फ़िर बस या रेल की ही क्यों?

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  4. यथार्थ को प्रतिबिंबित करती सुन्दर अभिव्यक्ति. आभार.
    सादर,
    डोरोथी.

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  5. यथार्थ!!मेट्रो में किसी महिला के सामने आते ही लोग ऊंघने लगते हैं!!

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  6. बहुत ही रोचक पोस्ट । गिरिजा जी आप बहुत अच्छा लिखती हैं । आभार ।

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