शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

छोटी सी बात




26 नवम्बर 2011
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समय के द्रुतगामी रथ पर सवार जिन्दगी कब कितने पडाव पार कर जाती है पता ही नही चलता । पर लगता है कि माँ के लिये समय ठहर जाता है । देखिये न ,आज प्रशान्त (बडा बेटा) तेतीस वर्ष पूरे कर चुका है ।पर मेरे लिये आज भी वैसा ही है जैसा बचपन में था । इस बार कुछ नया नही लिखा । इसलिये दो कहानियाँ पोस्ट कर रही हूँ ।एक यहाँ ''छोटी सी बात'' । और दूसरी--"पहली रचना" कथा-कहानी ब्लाग पर । पन्द्रह-बीस साल पहले लिखी गईं ये दोनों कहानियाँ पूरी तरह तो नही पर अधिकांशतः प्रशान्त (गुल्लू) पर ही केन्द्रित हैं । आप कृपया दोनों कहानियाँ पढें । हालाँकि ये दोनों ही कहानियाँ प्रकाशित हो चुकीं हैं लेकिन आप सबके पढने पर अधिक सार्थक होंगी ।
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"मम्मी !... मम्मी मेरी बात सुनो न ।"--गुल्लू ने मुझे फिर पुकारा ।
यह उसकी आदत है । चाहे कोई काम हो या न हो वह जब तब मुझे पुकारता रहता है--"मम्मी कहाँ हो मम्मी मेरी बात सुनो ..जरा यहाँ आओ न मम्मी । पढते समय भी बीच-बीच में भी वह मानो आस्वस्त होनेके लिये ही कि मैं घर में ही हूँ मुझे पुकार लेता है तभी निश्चिन्त होकर पढता है । अगर उसे लगता है कि मैं घर में नही हूँ तो पढाई छोड मुझे तलाशना शुरु कर देता है । किचन बाथरूम छत पडोस और जहाँ भी मेरी संभावना होती है तलाश करता है ।यहाँ तक कि लैट्रिन के दरवाजे पर जाकर भी एक--दो आवाजें लगा ही देता है ।
"यह भी कोई तरीका है ।" मैं उसे डाँटती हूँ । उसकी इस आदत से मुझ पर एक अनावश्यक सा बन्धन तो रहता ही है उसकी बात का महत्त्व भी कम होता है ।हाल यह कि वह पुकारता रहता है और मैं उसे अनसुना कर अपने काम में लगी रहती हूँ । उस समय भी जब वह मुझे जल्दी आने की रट लगाए था मैं रसोई में काम निपटाने में लगी थी ।
इस बात को आगे बढाने से पहले मैं वे बातें जरूर बताना चाहूँगी जिनके कारण मुझे उसके प्रति काफी असंवेदनशील होना पडा है । वह छुटपन से ही मनमौजी रहा है । मुझे याद है कि उसे दूध पीना जरा भी पसन्द नही था । निपल से तो बिल्कुल नही । चम्मच से पिलाना एक बडा और मुश्किल अभियान हुआ करता था ।पहले तो वह मुँह ही नही खोलता था । होठों को कस कर बन्द कर लेता था । जैसे तैसे करके दूध मुँह में डाल भी दिया जाता तो वह झटके से गर्दन मोड कर सारा दूध बाहर निकाल देता था । जब तक वह दूसरी चीजें खाने लायक नही हुआ अक्सर भूखा रहता था इसलिये कमजोर व चिडचिडा भी । पर जब सब कुछ खाने लगा तब भी उसके नखरे कम नही थे । एक चीज को वह दिन में सिर्फ एक बार ही खाता था । जैसे कि एक बार दाल-चावल खा लिये तो दूसरी बार कुछ और ही खाना होता था ।
वह अक्सर रूठ जाया करता था और उसे मनाने के लिये भी हर बार नया तरीका अपनाना होता था । जैसे एक बार कहानी सुनादी तो दूसरी बार कोई चित्र या खिलौना देना पडता था । फिर गीत या कविता ऐसे ही फिर कोई और तरीका...। चूँकि गुल्लू घर का पहला छोटा बच्चा था । खूबसूरत और प्यारा भी इसलिये घर का हर सदस्य उसके नाज़ उठाने तैयार रहता था । पर कभी--कभी सबका दिमाग जबाब देजाता था । एक बार ऐसा ही हुआ कि गुल्लू किसी बात पर रूठ गया । और ऐसा रूठा कि मनाने के सारे उपाय बेकार साबित हुए । मैंने तंग आकर दो-तीन तमाचे जड दिये । बस यह तो आग में मिट्टी का तेल डालना होगया । वह जोर से चीखने लगा और मैं खीज व ग्लानि-बोध से भरी निरुपाय सी उसे रोता हुआ देखती रही तभी उसके पापा आगे आए ।
हटो सब लोग--उन्होंने अपना रंग जमाने की कोशिश करते हुए कहा --"हमारे गुल्लू से बात करने की किसी को तमीज ही नही है ।" लेकिन उनकी इस बात का उस पर कोई अच्छा असर नही हुआ बल्कि वह और भी कोने में खिसक गया और रो रोकर आँख--नाक एक करता रहा ।
"भैया ,एक बार की बात है "---अचानक उसके पापा सबको चौंकाते हुए नाटकीय अन्दाज में बोले----"सब ध्यान से सुनना-टिल्लू ,पिल्लू, चीकू,मीकू, ..और हाँ बीना तुम भी..।" उन्होंने गुल्लू का नाम छोड कर हम सबका नाम लिया और रहस्यमय तरीके से सुनाने लगे---"हाँ तो भैया ..एक बार हम एक सुनसान जंगल से गुजर रहे थे । वह ऊँटों से भरा जंगल था । अचानक एक ऊँट चिघाडता हुआ हमारी ओर आया । "...
इतना कह कर वे कुछ रुके क्योंकि 'चिघाडता' शब्द सुनकर गुल्लू ने अचानक पलट कर ऐसे देखा मानो उसके पापा ने कोई गलत बात कह दी हो । पर तुरन्त ही उसने पहले की तरह मुँह फेर लिया । तब वे आगे सुनाने लगे----"हाँ तो भैया वह ऊँट हमारी ओर दौडा ..। उसके सूप जैसे कान थे । खम्बे जैसे पैर और एक लम्बी जमीन को छूती हुई सूँड...उस ऊँट को देखकर..."
"वह तो हाथी था ।"---गुल्लू अचानक चिल्लाया । हमने अपनी हँसी को जैसे-तैसे दबाए रखा । उसके पापा चहककर बोले---"देखा ,मैंने कहा था न कि हमसे ज्यादा नालेज हमारे गुल्लू को है । हाँ तो बेटा फिर ऊँट कैसा होता है ?"
"ऊँट की टाँगें तो लम्बी और पतली होतीं हैं ,टेढी-मेढी भी । पीठ पर बडा सा कूबड होता है । गर्दन खूब लम्बी होती है ।मुँह बैल जैसा और होठ लटके से रहते हैं यों "..उसने होंठ लटका कर दिखाए । और फिर हिलते हुए बताया कि ऊँट ऐसे चलता है । अब गुल्लू जिस तरह किलक-किलक कर बात कर रहा था कौन कह सकता था कि बच्चा रोता भी है ।
ऐसा ही एक और मजेदार वाकया हुआ । हम गुल्लू को मेला दिखाने लेगए । मेले में घूमते हुए गुल्लू बहुत खुश था । उसने अपनी कई मनपसन्द चीजें खरीदवाईं । आइसक्रीम खाई । नाव में झूले । अप्पूघर और डिज़नीलैंड की सैर की ।गुब्बारों पर निशाने लगाए और भी बहुत कुछ...।
पर शाम को जैसे ही लौटने लगे वह मचल गया ।
"आपने मेला तो दिखाया नही ।"
"मेला ?.. अरे बेटा दिन भर हम मेला ही तो देखते रहे ,जहाँ तुमने खिलौने खरीदे ,आइसक्रीम खाई ...।"
"वे तो दुकानें थीं । मुझे तो मेला देखना है ।"
मेरी अक्ल तो ऐसे मौकों पर टका सा जबाब दे जाती है । उसके पापा ही सोचते रहे कि कैसे अपने अक्लमन्द लाडले को मेले की परिभाषा समझाएं । कुछ सोच कर वे उसे ओवरब्रिज पर लेगए । वहाँ से पूरा मेला दिखरहा था । शाम के धुँधलके में रंग-बिरंगी रोशनी से जगमगाता हुआ मेले का विहंगम दृश्य।
"देखो बेटा मेला वो है । है न खूबसूरत !"
और तब गुल्लू महाशय सन्तुष्ट हुए ।
गुल्लू अक्सर ऐसे काम करता जो मेरी समझ से बाहर होते हैं । एक दिन मैंने देखा कि वह अकेला एकटक दीवार को देखे जा रहा था । जब मैंने टोका तो बडा उत्तेजित होकर बोला --"मम्मी ! क्या आपने कभी चींटियों को गौर से देखा है ?"
"चींटियों को ??"--मेरा दिमाग भन्ना गया --"लडका है कि अजूबा ! पढने में जरा दिमाग नही लगाता ।" मैंने उसे झिडकते हुए कहा ---"मेरे पास इन बेसिरपैर की बातों के लिये वक्त नही है । चलो बस्ता उठाओ और स्कूल का काम करो ।"
बस हमेशा काम काम--वह पैर पटकता हुआ बडबडाता रहा---"मेरी बात तो कभी ध्यान से सुनती ही नही । मेरे लिये किसी को फुरसत ही नही है ।"
इसकी बातें जब नही सुनी जाएंगी तभी यह आदत छूटेगी हर वक्त कुछ न कुछ फालतू करते रहने की । मैंने सोचा था । पर मेरा सोचा क्या पूरा हुआ । मैं सुनूँ या न सुनूँ उसे मुझे पुकारना ही है ।
मैंने अपनी बात यही छोडी थी कि तब भी मैं रसोईघर में अपना काम निपटा रही थी और गुल्लू मुझे पुकारे जारहा था---"मम्मी ! सुनो ना ...बस एक मिनट के लिये बाहर तो आओ । मम्मी..!"
"मुझे इस समय तंग मत कर गुल्लू । दूध गरम हो रहा है । मुझे ऑफिस भी जाना है ।"---मैंने तीखे और निर्णायक स्वर में कहा । मेरे मन में कही यह भय भी था कि यह जरा सा बच्चा जब अभी से मुझे अपने इशारों पर चला रहा है । यहाँ आओ ..वहाँ मत जाओ ..यह करो .वह मत करो ..यह सुनो वह सुनाओ .--हद होगई ।"-- इसलिये वह बुलाता रहा ,मैं नही गई । इससे मुझे एक सन्तुष्टि मिली ।
थोडी देर बाद जब मेरा काम पूरा होगया मैं उसे देखने गई । उसका यों चुप होजाना भी असहज लग रहा था । वह दोनों हाथों से घुटनों को बाँधे सीढियों पर अकेला बैठा था । उसकी गर्दन तनी हुई थी मोर की तरह । उसने मुझे देखा तक नही । बल्कि मुझे देख कर मुँह फुला लिया । होठों के किनारों से बुलबुले फूट रहे थे । गोरा चेहरा सुर्ख होगया था और आँखें पनीली । मुझे कुछ खेद हुआ । उसके पास बैठ कर उसके बालों में हाथ फेरते हुए पूछा---
"अब बता बेटा । क्या कह रहा था । क्यों बुला रहा था मुझे ?"
उसने मेरी बात जबाब नही दिया और मेरा हाथ झटक दिया ।
"अब मैं आगई हूँ न !"--मैंने उसे मनाते हुए कहा तो वह चिल्ला कर बोला---अब आने से क्या होता है । इतनी देर से बुला रहा था तब तो आई नही । यह कहते कहते उसकी आवाज भर्रा गई । गले की नसें फूल गईं होंठ काँप रहे थे और आँखें ,लगता था कि अभी निकल पडेंगी । मुझे लगा कि मझसे बडी भूल होगई है । मैंने उसे कन्धे से लगाया और पीठ सहलाते हुए यह जानने की कोशिश करने लगी कि वह क्या कहना चाहता था । कुछ देर बाद जब वह कुछ सहज हुआ तो बोला ---"पता है ,अमरूद के पेड पर एक बहुत सुन्दर चिडिया बैठी थी । मम्मी तुम देखतीं तो खुश होजातीं।"
चिडिया..। मुझे धक्का सा लगा । एक चिडिया के पीछे इतना हंगामा । पर मैं अब उसे नाराज नही करना चाहती थी इसलिये बोली---"मुझे क्या मालूम था कि तू इतनी सुन्दर चिडिया दिखाने वाला है । अच्छा कहाँ है वह ?"
"अब क्या हमारे लिये बैठी ही रहेगी !" ---वह कुछ ताव में बोला पर जल्दी ही दूसरी बातों में खोगया कि "मम्मी मिट्ठू है न वह जब गुस्सा होता है तो पत्तों को नोंच-नोंच कर गिराता है । और कौए हैं न कपडों से अपने दुश्मन की पहचान करते हैं । पता है मिंकू ने कौए का घोंसला गिरा दिया तो कौए मिंकू के पीछे तो पडे ही रहते हैं एक दिन उसके भाई ने मिंकू की शर्ट पहन ली तो कौए उसके पीछे भी पडगए । कितने बुद्धिमान होते हैं न पक्षी !"
हम बडों को तो इन बातों का पता ही नही रहता । बच्चों की अनुभूति कितनी गहरी व सूक्ष्म होती है ।---मैं यही सोचती हुई उस चिडिया को तलाशने लगी ।
"देखो ,गुल्लू कही वह तो नही है तुम्हारी वाली चिडिया ?" मैंने अनार की टहनियों में फुदकती हुई एक सुन्दर व चंचल चिडिया को देख कर पूछा ।
"हाँ..हाँ मम्मी ! वही तो है "---गुल्लू एकदम चीख कर बोला---"देखो न कितनी सुन्दर है ! चोंच कितनी नुकीली है ! और आँखें कितनी बडी और काली ! देखो पूँछ कैसे मटका रही है नटखट कहीं की ।"
वह चिडिया को देख मुग्ध हुआ जारहा था । पर मैं उसे देख रही थी उसकी आँखों को ,जिनसे खुशी झरने की तरह फूट चली थी । खुशी एक छोटी सी चिडिया को देख पाने की । और उससे भी ज्यादा मुझे दिखा पाने की खुशी । अपनी खुशी को मेरे साथ बाँट पाने की खुशी । इन छोटी-छोटी बातों में इतनी बडी खुशियाँ छुपी होतीं हैं मैंने तो सोचा भी नही था ।
"मम्मी ! यह चिडिया है न बहुत खबसूरत ?" उसने किलक कर पूछा तो मैं कहे बिना न रह सकी कि," हाँ सचमुच इतनी खूबसूरत चिडिया मैंने पहली बार देखी है ।"

10 टिप्‍पणियां:

  1. समय पंख लगा उड़ जाता है और नीचे दिखा जाता है सुन्दर सुन्दर दृश्य।

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  2. गिरिजा जी, विलम्ब के लिए खेद और क्षमा...
    मुझे याद आया जब मेरी बेटी के समय तो उसके डॉक्टर ने हमें बताया था कि आप जब उसको सीरियल दिन में तीन बार देते हैं तो इतना ध्यान रखें कि एक फ्लेवर रिपीट न हो.. यानी सुबह केले का फ्लेवर तो दोपहर में सेव और रात को प्लेन.. हमें तीन डिब्बे मंगाकर रखने होते थे.. खैर मैं क्यों बता रहा हूँ आपको ये सब.. आप तो माँ हैं दादी माँ भी हैं...
    वास्तव में हम पारंपरिक माँ-बाप (जैसे हम सब कुछ समझते हैं अपने बच्चे के बारे में)का रोल अदा करते रह जाते हैं.. मेरी बेटी इतना अच्छा गाती है ये हमें तब पता चला जब एक पारिवारिक उत्सव के बीच उसने गाया..
    बहुत अच्छी संस्मरणात्मक कथा... और अंत में प्रशांत के चिरायु होने का आशीर्वाद!!

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  3. Mummy, Bahut acchhee rachanaayen hain. Aur dono ke alag maayane. Hathee or Ount walee kahaanee, hi batatee hi ki Mother-Father hi badi assani se bachche kaa man badal sakate hain. Aur jo chidiyaa waali kahaanee hai, wo bas ekkk khushi hai mataa-pitaa se share karane ki, ekk shuruaat jaisee hai.

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  4. अरे लगता है गूगल ने मेरे कमेन्ट को डिलीट कर दिया,
    खैर,प्रशांत जी को फिर से एक बार बधाई दे देता हूँ, अब तो बहुत देर हो गयी, फिर भी:)

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  5. प्रशांत को बहुत बहुत शुभकामनाएं ...

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  6. बहुत विलम्ब से आई, इसका खेद है मुझे...

    सबसे पहले तो शुभकामनाये और आशीष...

    आपके संस्मरण में खो गयी थी...

    सचमुच एक उम्र के बाद ये संजोये पल ही जीवन में प्रकाश और उर्जा के संचारक होते हैं...

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