गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

पियक्कड

रात के लगभग ग्यारह बजे थे । पूरे मोहल्ले में ज्यादातर लोग सोगए थे । केवल ठाकुर धीरसिंह की हवेली से टी.वी. चलने की आवाज आरही थी या अपने साथ हुई किसी ज्यादती को याद कर, रह-रह कर रो उठते बच्चे की तरह गली में एक-दो कुत्ते भौंक उठते थे । अचानक गली में बलवा सा होता लगा । किसी औरत की चीख-पुकार, भाग--दौड ,गाली--गलौज ,बर्तन फेंकने की आवाज ...और मिली--जुली हुंकारें--
"मारो साले को ..हरामी कही का ..,'मूत' पीकर आए दिन नौटंकी दिखाता रहता है । धक्के मार कर बाहर करो ,माहौल खराब कर रहा है मोहल्ले का..पियक्कड साला...।"
देखा जाए तो इस मोहल्ले में इस तरह का माहौल कोई नया नही । शराब पीकर जरा-जरा सी बात पर कट्टा, तलवारें निकालना ,बोतल, ईंट और पत्थर फेंकना, औरतों को पीटना ,चीख-चीख कर माँ-बहन की गालियाँ देना आम रहा है । चूँकि ये लडाइयाँ पूरी तरह शुद्ध शाब्दिक और अहिंसक होती हैं, किसी को खरोंच तक नही आती सो लोग झगडों की ज्यादा चिन्ता नहीं करते । जिन्हें झगडे का तमाशा देखने में रुचि होती वे लोग दर्शक बन कर या बीच-बचाव का श्रेय लेने वहाँ पहुँच भी जाते ।
लेकिन यह झगडा न सिर्फ शाब्दिक था न ही शुद्ध रूप से अहिंसक ।
"यह सब किस्सू के कारण हो रहा है । जब से आया है आए दिन कुछ न कुछ फसाद होता ही रहता है ।" -लोग कह रहे थे । हालाँकि एक-दो लोग इसके लिये कंची( उसकी घरवाली) को जिम्मेदार मानते हैं ।
किस्सू यानी किसनलाल । गाँव से काम की तलाश में आया एक मजदूर । पर शहर में आकर उससे कोई काम न बना । किसी दुकान पर बैठा तो चीजें कम कीमत पर बेच दीं । हलवाई के यहाँ काम मिला तो दूध जला दिया या शक्कर की चासनी बनाने की बजाय बूरा बना दिया । और दूध बेचना शुरु किया तो भैंस वाला पहले ही इतना पानी मिला देता कि लाभ की जगह उसे शिकायतें व गालियाँ मिलीं । शरीर की हालत बिना पानी की फसल सी होगई है सो हम्माली या ईंट-गारा ढोने का काम तो कर नही सकता था । हाँ कभी-कभी किसी टेम्पोवाले का सहायक बन कर पाँच-पचास रुपए ले आता है । ज्यादा पढा-लिखा तो है नही । कुल मिला कर वह अब निकम्मे की उपाधि लेकर या तो अक्सर घर में बैठा घरवाली कंची और बेटी गुड्डन की , जिसकी उम्र रोम-रोम से वसन्त की कोंपल की तरह फूटने लगी है ,रखवाली करता रहता है या नुक्कड पर दिनभर ताश खेलते लोगों की चालें देखता रहता है । कंची लाली-पौडर लगाए देहरी में बैठी दिन भर बीडी बनाती है और उसे ताने और जली-कटी भी सुनाती रहती है ।
"कहाँ यह खूसट सा किस्सू और कहाँ बेचारी कंची , एकदम नरम लौकी सी । बन्दर के हाथों नारियल लगना और किसे कहते हैं ! शराबियों की औरतों की तो जिन्दगी ही नरक है । लोगों की सहानुभूति कंची के साथ है ।
"देखना ,अब भी वही कंची पिट रही होगी ।"---कोई अनुमान लगा रहा था । जिसका उत्तर तुरन्त ही आया---
"तो भैया तुम मोहल्ले में रहते भी हो या नही । अब वो दिन नही रहे । गट्टू और मंगल के होते किस्सू की इतनी हिम्मत नही है कि कंची पर हाथ उठा जाए...।"
गट्टू और मंगल मोहल्ले के दादा हैं । कई काण्ड करके जेल जा चुके हैं । ठाकुर रायसिंह के मकान में एक कमरा किराए से उन्होंने ही किस्सू को दिलवाया है । गट्टू ने कंची को बहन माना है । और मंगल ने भौजाई । अब उनकी बहन--भावज को कोई टेढी नजर से भी देख तो जाए । किस्सू की क्या शामत आई है ।
तब तो सचमुच किस्सू की शामत ही आई थी । वह कंची को पीट रहा था । दरअसल वह गुड्डन के बारे में पूछ रहा था कि वह रोज जाती कहाँ है । उससे बिना पूछे-बताए लडकी को कौनसे काम पर लगा दिया है जो लौटने में रोज दस--ग्यारह बज जाते हैं । और उसके पास ये नए-नए कपडे ,सैंडिल, कहाँ से आए ।
"यह सब तो वह पूछे जो कमा कर खिलाए"---कंची ने जो यह जबाब दिया तो किसनलाल तिलमिला उठा ।बस दो हाथ जमाए ही थे कि कंची की चीख गट्टू और मंगल के कानों तक पहुँच ही गई । दोनों तुरन्त आगए । आते ही गालियों की बौछार करते हुए किस्सू पर पिल पडे । और लगा कि मोहल्ले में बलवा होगया ।
किस्सू जमीन पर अधलेटा पडा रिरिया रहा था---"मंगल भैया ,गट्टू भैया मेरी बात तो सुनलो ..।"
"क्या सुनें तेरी हरामखोर.!"----मंगल पूरी ताकत से चिल्लाया ।--- "साला दो घूँट पीकर आए दिन नौटंकी करता रहता है । बीबी--बच्चों का खयाल नही है । दो लात पडेंगी तभी सही होगा । अब वो जमाना नही रहा कि मर्द औरत को जानवर की तरह पीटता रहे और लोग चुपचाप तमाशा देखते रहें । खास तौर पर मैं तो टाँग तोड कर हाथ में पकडा दूँगा समझे ।"
"मेरी बात सुनलो मंगल भैया फिर जो सजा दोगे मंजूर है '---किसुनलाल लडखडाते हुए मंगत के पैरों में गिर गया । शराबी की हेकडी तभी तक कायम रहती है जब तक कोई धमकाता नही । एक घुडकी उसे जमीन पर ले आती है
मंगल भैया , मेरी बेटी..मेरी गुड्डन अभी तक नही लौटी है । 'राँड' बताती नही है कि लडकी कहाँ गई है । फिर पीटूँ नही तो क्या पूजा करूँ इसकी !"
पहले ,चल दूर हट---मंगत ने पाँव झटका--- बडा आया लडकी की चिन्ता करने वाला ... चुपचाप जाकर अन्दर सो जा । वरना दो लपाडे धर दूँगा तो आँखें बाहर निकल आएंगी कौडियों की तरह..।
एक तो कुछ कमाता धमाता नही है और घरवाली को आए दिन पीटता रहता है । साले की रिपोट लिखादी तो जाएगा महीनों के लिये जेल में ...।
"अर् र् रे ऐसे कैसे कर दोगे रिपोट ! लडकी के मामा चाचा बने फिरते हो और....। मेरे क्या जबान नही है । मैं भी सब बता दूँगा कि मेरी लडकी को कौन बरगला रहा है । मुझे सब पता है । किस् सी से डरता नही हूँ "---किस्सू ने सीना तान कर खडे होने की कोशिश की । फिर लडखडा कर गिर पडा ।
अरे यह ऐसे नही मानेगा---मंगत और गट्टू ने उसे पकड -घसीट कर कमरे में बन्द कर दिया ।
कमरे में से बर्तनों के पटकने--फोडने की आवाज किस्सू की नशे में लडखडाती चीखें सुनाई देरही थी ---"अर् रे ,कोई तो सुन लेता मेरी बात । अरे 'अधरमियो' ! कीडे पडेंगे तुम्हारे । दगाबाजो ..!"
"चलो..चलो ..स्साला , पियक्कड है । पियक्कडों की बात का क्या भरोसा । रात भर ऐसे ही नाटक करेगा ,सुबह सही होजाएगा ।"---मंगल ने कहते हुए सबको धकेला और नाटक का पटाक्षेप कर दिया ।

6 टिप्‍पणियां:

  1. "लडकी के मामा चाचा बने फिरते हो और.."
    "स्साला , पियक्कड है । पियक्कडों की बात का क्या भरोसा ।"

    इन संवादों ने कहानी में बिना कहे ही सब कुछ कह दिया है।
    बहुत सुदंर । अद्भुत। सशक्त।

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  2. शराबियों की तार्किक क्षमता भी शराब के साथ ही उतर जाती है।

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  3. गिरिजा जी!
    यह कहानी, कहानी कम आँखों देखी गह्तना अधिक लगती है..ऐसा लगता है सबकुछ आँखों के सामने घट रहा है या पहले घट चुका है... बेरोजगारी की समस्या से जन्मे एक परिवार की दुर्दशा, जहाँ शराबखोरी और देह-व्यापार (कथा में छिपा)को सहने की मजबूरी है, का मार्मिक चित्रण किया है आपने.. पात्रों के संवाद ही कथा का प्रवाह निर्धारित करते हैं.. बहुत अच्छी कथा!!

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  4. सब चलचित्र सा saakaar हो गया सामने...असंख्य घरों/जीवन की कथा व्यथा है यह...

    मन कचोट और पीड़ा से भर आया...

    आगे क्या कहूँ...

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  5. सच है आँखों देखी घटना सी लगती है ...

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