रविवार, 8 अप्रैल 2012

एक साल पूरा हुआ



एक साल पूरा हुआ
उस दिन को
जब तेरे आने की आहट से
रोम-रोम तार बजे
तन-मन तम्बूरा हुआ ।

प्रतीक्षाओं व आशाओं के साथ समय का रास्ता कितना छोटा होजाता है । एक साल पहले दिल्ली में आज के दिन नेहा के माता-पिता और हम लोग सर गंगाराम हास्पिटल में नन्हे मेहमान के स्वागत में उत्सुक खडे थे । समय ठहर गया था । डा. खुल्लर खुद नेहा की देखभाल कर रहीं थीं । 9 अप्रेल को दोपहर बारह बज कर सात मि. पर एक मीठी सी आवाज सुनी तो ठहरा हुआ समय जैसे चल पडा । कुछ ही समय बाद वह नन्हा फरिश्ता मेरी बाँहों में था ।

आज वर्ष भर होगया । इस बीच विहान को मैं केवल दो बार ही मिल पाई हूँ । ( कम्प्यूटर पर देखना तो किसी प्यासे का दूर से पानी भरा गिलास देखने जैसा ही है )मैं मानती हूँ कि जीवन के वे पल बडे अनमोल और प्यारे होते हैं जब हम अपने शिशु को बढता हुआ देखते हैं । उसकी हर अदा पर निछावर होते हैं । उसकी हर नई गतिविधि का उत्सव मनाते हैं । मुझे तो नेहा या विवेक से ही पता चलता रहा कि अब वह मुस्कराने लगा है । ..अब पलटने लगा है .कि अब पेट के बल सरकने लगा है । कि अब बैठने लगा है कि अब ऊपर के दाँत आगए हैं । ..
और अब वह मान्या के बाल पकड कर खींचने लगा है और मान्या है कि उसकी हरकतों पर रीझती रहती है ।....यह सब मैं फोन पर ही सुन-सुन कर मुग्ध होती रहती हूँ । उसे अपनी साँसों में उतारने की प्यास अतृप्त ही है और अभी रहने वाली है मई के प्रथम सप्ताह तक । दो-दो टिकिट होने के बावजूद उसके जन्म-दिन पर नही जा सकी हूँ पर मन हर पल उसके आसपास है उसके लडखडाते कदमों में, उसके अस्फुट उच्चरित सम्बोधनों में ,उसकी किलकारियों में ,उसके मचलने में और खिलखिलाने में भी ।


दो कविताएं
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पाँखुरी के द्वार खोल
झाँकी मुस्कान है
पंख खोल चिडियों ने
भरली उडान है
नहा आई हवा भी लो
शायद किसी झरने में
कोयलिया छेड रही
भैरव की तान है
किरणें बुहार रहीं
गली-गली द्वार-द्वार
लेगया समेट चाँद
नींद के वितान हैं
मीठी सी धूप लिये
कोमल हथेलियों में
उतरा है आँगन में
मेरे- विहान है ।
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जरा इन्हें भी देखो
ये तो गंजे होगए हैं ।
बिखरे-निखरे शबनम-शबनम
बाल मुलायम रेशम-रेशम
आया कोई अगलम-पगलम
बाल उतारे अडगम-बडगम
अब कैसे क्या चोटी गुँथनी
चाँद होगई चिकनी-चिकनी
मक्खीरानी के तो
छक्के-पंजे होगए हैं ।
अब फिसलेगी सरपट-सरपट
जब चाहेगी चटपट-चटपट
चिडिया चुपचुप आएगी
चाकलेट खाजाएगी
मुन्ने को ललचा-ललचा कर ।
फुर्र र् से उड जाएगी ।

14 टिप्‍पणियां:

  1. कम्प्यूटर पर देखना तो किसी प्यासे का दूर से पानी भरा गिलास देखने जैसा ही ह.....खरा सच है...
    विहान को ढेर सारा स्नेह, खूब बढे, नाम कमाए, सबको खुश रखे....

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  2. बहुत प्यारी सी पोस्ट है...
    मैं तो बस तस्वीर ही देखते रह गया...
    :) :) :)

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  3. गिरिजा जी! आज बस इतना ही!!! आशीष सहित...
    /
    सुबह का सूरज
    जब सुनहरी शहद बिखेरता है
    मिठास पसर जाती है
    धरती पर.
    मुस्काती हैं कलियाँ
    चहचहाते हैं पंछी
    पेड़ बाहें फैलाए
    समेट लेना चाहते हैं सूरज को
    ऐसा लगता है
    ठहर जाए दिन यहीं
    उन कलियों पर,
    जो कोमल हैं बिलकुल तुम जैसीं
    पेड़ों की बाहों में
    जो तुम फैलाते हो हमें देखते हुए
    वो शहद सी मिठास
    जो छिपी है तुम्हारी किलकारियों में
    चमक उन रश्मियों की
    जो तुम्हारी दन्तपंक्ति में झलकती है
    आओ करें प्रभात का आह्वान
    हमारी बगिया का नव “विहान”!

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  4. 'विहान' के लिए ढेर सारी शुभकामनाएं

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  5. विहान को बहुत आशीष ... आपको बहुत बहुत बधाई ... प्रेम की रस धार बह रही है आपकी रचनाओं से ...

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  6. आप सबकी शुभकामनाओं के लिये आभारी हूँ । सलिल जी , थोडा कह कर आपने कितना कुछ कह दिया है । असीम, प्रेरक ऊर्जामय । विनत हूँ ।

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    1. अब जब परिवार बनाया है तो बच्चे भी अपने ही हैं.. 'विनत' कहकर आप लज्जित कर रही हैं मुझे और मेरी भावनाओं को!! वैसे भी ये 'सलिल' और 'विहान' की आपस की बात है, आप क्यूँ आभार, विनत आदि कह रही हैं.. दिल्ली में हूँ कभी मिलकर बच्चे के तोतले मुँह से सुन लूंगा!! हिसाब बराबर!! :)

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  7. विहान को ढेरों बधाईयाँ, बड़ा ही मोहक चेहरा है।

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  8. आपको बधाई और साथ में शुभकामनायें कि आपका लाडला आपका खूब ध्यान रखे ...

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  9. जीवन के सुखद पल .... इसे महसूस करना शब्दों से परे है , पर फिर भी शब्द आपके मुस्कुराते मन की गवाही दे रहे हैं ...विहान को आशीष

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  10. बहुत प्यारा लिखा है, माँ! समय वास्तव में बहुत जल्दी निकल जाता है, जैसे कल कि ही बात हो जब विहान ने पहली बार आँखें खोली थीं और चौंधियाती हुई आँखों से हमें देखा था!

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