रविवार, 27 मई 2012

जेठ हुआ मेहमान


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सूरज की दादागिरी,सहमे नदिया ताल।
,हफ्ता, दे देकर हुई हरियाली कंगाल।

तीखे तेवर धूप के हवा दिखाए ताव।
मौसम के आतंक से ,कैसे करें बचाव ।

चढी धूप तपने लगा भडभूजे का भाड ।
चित्त चना सा भुन रहा,तन हो रहा तिहाड ।

दिन भर चूल्हे पर तपे धरती तवा समान ।
रोटी सेके दुपहरी,'जेठ' हुआ मेहमान ।

चिडिया बैठी तार पर ,मन में लिये मलाल।
कंकरीट के शहर में दिखे न कोई डाल ।

अनशन कर मानो खडा पत्र-विहीन बबूल ।
बादल बरसेंगे तभी लेगा पत्ते -फूल ।

धूप प्रतीक्षा सी चुभे,झुलसा मन का गाँव ।
पेड कटे उम्मीद के सपना हो गई छाँव ।

उडे बगूले धल बन धरती के अहसास ।
उत्तर जाने मेघमय कब देगा आकाश ।

सोमवार, 21 मई 2012

सोचो तो जरा....


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अभी मैंने सोचा नही
तुम्हारे लिये
जैसे सोचता है कोई
अखबार में पढते हुए
राजनीति की सुर्खियाँ
कुढते हुए ,
पढ कर भ्रष्टाचार जैसे ही
 तमाम ज्वलन्त मुद्दों को
अभी सिमटी नही हैं उम्मीदें
जैसे सिमट जाती है एक पूरी दुनिया
महानगर के किसी फ्लैट में ।
अभी खामोश नही हुईं
अपेक्षाएं और उलाहने भी,
जैसे खामोश होजाते हैं देहात के रास्ते
अँधेरा होते ही ।
अभी यकीन भी नही हुआ पूरी तरह
कि व्यर्थ है मेरा होना
तुम्हारे लिये ,
गुजरे साल के कैलेण्डर की तरह
और...तुम्हारी उदासीनता के बावजूद
तुम्हें सोच कर मन होजाता है
नीम का झुरमुट
चिडियों के कलरव से गूँजता हुआ
सुबह--सुबह ।

और एकदम निरर्थक नही है
मेरा तुम्हें हर पल साथ लेकर जीना
जैसे जीता है कोई प्रेम में ,
निरपेक्षता को सर्वथा नकार कर
गलत 'पासवर्ड' की तरह ।
क्या यह काफी नही है 
यह सोचने के लिये कि
अभी शेष है कहीं कुछ
जो गूँज उठता है
घोर उदासी व सन्नाटे के बीच
किसी फोन काल की तरह ।  
कि , कितनी खुशकिस्मती है
यूँ कितना कुछ शेष होना,
जिन्दा इन्सानों के लिये।

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शुक्रवार, 18 मई 2012

तब आप थे कहाँ ?

19 मई 2012--- काकाजी ( पिताजी) की तृतीय पुण्यतिथि है । मुझे यह बात अक्सर गहराई से महसूस होती है कि आज भी एक सात-आठ साल की लडकी मुझमें जी रही है जो पिता की प्रतीक्षा में आज भी सूनी पगडण्डियों पर अकेली खडी है । अपने पिता से बहुत ही कम मिल पाने का मलाल लिये । एक कदम भी आगे नही चली । पिता का जाना शायद एक आसमान का हट जाना होता है ऊपर से । 
काकाजी को लेकर कितनी ही अविस्मरणीय यादें हैं ,एक विस्तृत फलक पर बिखरी हुईं । यहाँ भी उन्ही यादों की एक धुँधली सी तस्वीर है । हो सके तो पहली पोस्ट 'पिता से आखिरी संवाद'  भी पढें  
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  उस दिन काकाजी सुबह से ही इस उलझन में थे कि वह एक रुपए का नया नोट आखिर आया कहाँ से ,जो शिव जी की तस्वीर के पीछे उन्हें रखा मिला था ? 
कमरे में उनके व मेरे अलावा और कोई नही रहता था ।  पढ]ने वाले बच्चे स्कूल में तो आते थे पर कमरे में आना उनकी सीमा के एकदम बाहर था ।
उन दिनों मैं शायद दूसरी या तीसरी कक्षा में थी । छह--सात साल की उम्र में माँ और छोटे भाई से बहुत दूर एक पहाडी गाँव बडबारी में काकाजी के साथ पढने के लिये भेजी गई थी । काकाजी वहाँ के प्राइमरी स्कूल में दो साल पहले ही पहुँचे थे । 
डकैत-गूजरों के उस पथरीले गाँव में ,जहाँ बेतरबीबी से यहाँ-वहाँ बैठी भेड-बकरियों की तरह घर बने थे और हरियाली के नाम पर सिरस-बबूल के इक्का-दुक्का पेड थे ,काकाजी ने अपने व्यवहार से लोगों के मन जरूर हरे कर दिये थे । तीन महीने में ही उजाड पडे स्कूल में फुलवारी खिल उठी थी । वहाँ लोगों के लिये यह हैरत की बात ही थी कि गाँव के जो बच्चे केवल गाय-बकरियाँ चराना जानते थे ,जो आए दिन ,बन्दूक और गोलियों की भाषा सुनने सीखने के आदी थे और जो लूट और हत्या की घटनाओं को पंचतंत्र की कहानियों की तरह कहते सुनते थे , उन गाँव के उजड्ड बच्चों में कैसे पढने के लिये तथा काकाजी के आदेश का पालन करने के लिये प्रतिस्पर्धा होने लगी थी । 
गाँव में पानी का साधन केवल पहाडी से नीचे तलहटी में एक कुँआ ही था फिर भी छात्रों में काकाजी के अनुशासन और प्रेरणा का ऐसा प्रभाव था कि स्कूल के प्राँगण में हमेशा हरियाली के साथ-साथ मौसम की सब्जियाँ व फूल हँसते रहते थे । खैर यह तो एक लम्बी गाथा है पूरे उपन्यास का विषय । कुल मिला कर यह कि गाँव में उनकी अच्छी धाक थी     
 जहाँ तक मेरी बात है , बहुत संक्षेप में ही कहूँ तो मुझे काकाजी के साथ वहाँ रहना ज्यादा अच्छा नही लगता था बल्कि कहूँ कि अच्छा लगता ही नही था तो भी गलत नही होगा। इसके पीछे बहुत से कारण थे जैसे कि मुझे वहाँ माँ की और अपने गाँव की बहुत याद आती थी । पर यह बात मैं उनसे कह भी नही सकती थी । उनके आगे रोना तो दूर की बात थी । वे इस तरह माँ को याद करके रोने वाले बच्चों को उतना ही बुरा मानते थे जितना पढाई से जी चुराने वालों को । इसलिये मैं अकेले में ही चुपचाप रो लेती थी । यों कहूँ कि रोने के लिये ही मैं अक्सर अकेली हो जाया करती थी . और उस अकेलेपन में मैं माँ ही नही गाँव की गलियों पेड-पौधों खेत-खलिहानों ,कूल-किनारों , कजरी-गबरू सबको जी भर कर याद करती थी । 
मुझे काकाजी की कई बातें  खूब अखरती थीं . जैसे  कि वे हमेशा मुझे पढने व आगे बढने के प्रलोभनों में उलझाए रखते थे ....वे खूब तेज तेज चलते और  इस बात से बेखबर रहते थे  कि उनके साथ चलने के लिये अक्सर उनकी छोटी सी बच्ची को किस तरह दौडना पड रहा है ....इसके अलावा चाहे जब किसी के सामने मेरे बहुत समझदार व होशियार होने की बात कहते रहते थे....सबसे ज्यादा यह कि रात को सोते समय  भी कहानी सुनाने की बजाए गिनती-पहाडे रटवाते थे । 
 मेरे साथ वे दूसरे बच्चों की तरह ही बल्कि उनसे भी अधिक कठोरता से पेश आते थे . चाहे वह सबक अधूरा रहने की बात हो  या अपनी क्यारी में खुद पानी न देने का मामला हो .  या फिर किसी हाट-मेला में कंगन ,रिबन ,नेलपालिश या गुडिया लेने की चाह रखना हो । ऐसी बातों पर वे एकदम ऐसा चेहरा बना लेते थे कि मेरी सारी चाहतें उसी तरह गायब हो जातीं थी जैसे धूप आते ही पत्तों पर जमीं ओस गायब होजाती है । पढाई में किसी भी तरह की शिथिलता को वे क्षमा नही करते थे । 
मुझे याद है एक बार किसी ने मुझे उनसठ की गिनती पूछली थी । मैंने हडबडाहट में छह पे नौ उनसठ बोल दिया । उन दिनों हमें "वन-पन पाँच की सठ छह की तर सात की ..." जैसे नियम से ही गिनतियाँ याद कराई जातीं थीं । हालाँकि मैंने तुरन्त ही अपनी गलती को सुधार लिया था पर काकाजी ने पूरे दो घंटे मुझसे बात नही की । वह मूक सजा  क्या कम भयानक थी ?  अपने पिता का यों हमेशा शिक्षक बना रहना  मेरे लिये किसी त्रासदी से कम नहीं था .
हाँ कभी -कभी वे मुझे नीचे तलहटी वाली तलैया में खिले सफेद कमल और बतखें दिखाने ले जाते , या थाली पर ठेका लगाते हुए मुझसे गाना गवाते या शनीचरा के जंगल में साइकिल रोककर हिरणों का झुंड दिखाते तब मैं एक ऊर्जा और उल्लास से भर उठती क्योंकि तब मेरे सामने कोई शिक्षक नहीं मेरे पिता होते थे . मुझे लगता कि अपने उस आँगन में खड़ी हूँ जहाँ मैं चाहे जैसे खेल सकती हूँ , गलती भी करूँगी तो सजा नहीं मिलेगी .  उस समय न कोई डर होता न ही चिन्ता .  
बडबारी में हमें रहने के लिये स्कूल का ही एक कमरा मिला था लेकिन रात में सोने के लिये हमें रोज गाँव में उदयसिंह सरपंच जी के घर जाना पडता था । 'क्यों ?',... वह एक अलग किस्सा है डाकुओं वाला । उसे फिर कभी । 
स्कूल के उस छोटे से कमरे में काकाजी की कुछ किताबें थीं । एक घडा ,एक चूल्हा, आटे का कनस्तर ,दाल घी तेल व मसालों के तीन-चार डिब्बे व मेरे दो-तीन जोड कपडे व बस्ता । पूजा में शिवजी ,राम और कृष्ण भगवान की तस्वीरें---बस यही कुल गृहस्थी थी । काकाजी इस दोहे को अपना मूलमंत्र जो मानते थे ---
"पट पाँखे भख काँकरे ,सपर परेई संग ।
सुखिया या संसार में एकै तु ही विहंग ।" ( हे विहंग वस्त्रों के नाम पर तेरे पास पंख हैं , खाने के लिये सर्वसुलभ कंकड हैं और तेरी विहंगिन तेरे साथ है ही । भला तुझसे सुखी इस संसार में कौन होगा )
सुबह सात बजे लम्बी घंटी बजने से पहले काकाजी नहा-धोकर पूजा करके माथे पर रोली की बिन्दी लगा कर पढाने के लिये तैयार रहते थे ।
उस दिन पूजा करते समय उन्हें वह एक रुपए का नोट दिखा तो अचरज में पड] गए । पैसे-पैसे का हिसाब रखने वाले काकाजी के लिये, जबकि उन्हें पचास रुपए से भी कम वेतन मिलता था ,एक रुपया ऐसे ही रफा-दफा करने या  चुपचाप जेब में रख लेने की चीज नही था । किसी का एक पैसा भी उनके लिये अस्वीकार्य था । 
"बेटी तुझे कुछ मालूम है इस रुपए के बारे में ?"
"नहीं तो ."--- मैंने ऐसी अनभिज्ञता दिखाई जैसी विज्ञान का विद्यार्थी भाषा के ध्वनि सिद्धान्त के बारे में दिखाता है । वे अचरज में पड़ गए । आखिर यह नोट आया कहाँ से , कमरे में मेरे व पिताजी के अलावा कोई नही आता था । यदि मैंने नही रखा तो किसने रखा . हो सकता है किसी बच्चे ने तो छुपाने के लिये यहाँ रख दिया हो .. यह सोच कर उन्होंने स्कूल के सभी बच्चों को भी बुला कर पूछा  पर नतीजा ही ढाक के तीन पात  .   
 बच्चे बताते तो तब बताते , जब वे रुपए के बारे में कुछ जानते होते । उस रुपए के बारे में अगर कोई जानता था तो वह सिर्फ मैं थी । पर मुझे पूरा विश्वास था कि अगर मैंने तस्वीर के पीछे रुपया रखना स्वीकार कर लिया तो काकाजी सीधा गुलेल के कंकड जैसा सवाल मेरी ओर उछाल देंगे---"तेरे पास वह रुपया कहाँ से आया ? 
अब पाँच-दस पैसे की बात होती तो कही पडे मिलने की बात कही जा सकती थी । तब भी यह सवाल तो उठता ही कि पैसे मिले तो बताया क्यों नही ? तस्वीर के पीछे रखने का मतलब तो चोरी हुआ न ?
काकाजी के सवालों से तो मेरे विचार में भगवान भी नही बच पाते मैं किस किनारे की घास थी । फिर यह सवाल था पूरे एक रुपए का जिससे उस समय डेढ--दो सौ ग्राम घी खरीदा जा सकता था ।
उफ्..मानू जीजी ने मुझे जबरन वह रुपया थमाकर किस मुसीबत में फँसा दिया ।
मानू जीजी सरपंच काका की छोटी बेटी थी जो ससुराल में थी । रसाल भैया उन्हें लिवाने सुनारपुरा जा रहे थे । भैया ने मुझसे चलने को कहा । मैं तो जैसे चलने को तैयार ही बैठी थी । किसी नई जगह पर जाने का प्रलोभन बच्चों में कितना प्रबल होता है यह अनुमान इसी से लगाया जासकता है कि काकाजी की अनुमति लेने के लिये मैंने उनकी बडी-बडी कठिन और उबाऊ शर्तें भी मानलीं थीं . जैसे रास्ते में मुझे सत्रह व उन्नीस के पहाडे पक्के करने होंगे । ये पहाडे याद होने में दम खींच लेते थे । और हाँ दस पाठ तक मायने याद करके सुनाने होंगे वगैरा वगैरा..। 
जाते समय बैलगाडी का सफर पहाडे व मायने रटते हुए भी जितना मजेदार था ,लौटते समय उतना ही सूना ,उदास और उदासी से भी ज्यादा उलझन भरा था । एक तो, मानू जीजी को उनकी ससुराल वालों ने भेजने से मना कर दिया था सो एक तरफ मानू जीजी की उदास सूरत को याद कर रसाल भैया भी उदास थे । वे मुझे अब गीत और कहानियाँ सुनाने की स्थिति में नही थे पर अगर होते भी तो भी में उनका आनन्द नही ले सकती थी ।दूसरे , एक गहरी चिन्ता मेरे मन पर उसी तरह लदी थी जिस तरह हमारी जमीन के बँटाईदार की लडकी के सिर पर रोज शाम को घर लौटते समय घास का भारी गट्ठर लदा रहता था । इतना भारी कि कभी-कभी तो खीज कर वह पटक देती थी । मेरा भी मन हुआ कि उस रुपए के बोझ को मैं भी उसी तरह उतार फेंकूँ जो मानू जीजी ने चलते समय जबरन मेरी मेरी हथेली में दबा दिया था । मैं मना करते हुए पीछे हटती जा रही थी जैसे वह रुपया नही ,जलता कोयला हो । पिताजी का कडा आदेश था कि किसी से कोई चीज या रुपया हरगिज नही लेना चाहिये लेकिन मानू जीजी ने डबडबाई आँखों से सौगन्ध देकर मुझे कहा---"मैं तेरी बडी बहन नही हूँ क्या ? न लेगी तो मेरा मरा मुँह देखेगी ।" 
'हे भगवान ! इधर गिरूँ तो कुआ और उधर गिरूँ तो खाई । रसाल भैया वाली भाभी ने  एक बार बताया था कि अगर इस कसम को तोडते हैं तो कसम देने वाला सचमुच मर जाता है । 
"नही नही.. मानू जीजी के मरने से तो यही अच्छा था कि मैं वह रुपया ले लूँ" --मैंने घबराकर सोचा और रुपया ले लिया लेकिन रुपया लेने के बाद न तो मुझे बिसूरती मानू जीजी की भरी-भरी आँखें याद रहीं न वहाँ मिले प्यारे-प्यारे चूजे व बहुत सारे मेमने । वह रुपया हर पल दाँत में फँसे तिनके की तरह रास्तेभर अखरता रहा । उसे फेंकने का साहस जाने क्यों चाह कर भी न जुटा सकी । काकाजी को पता चलेगा तो कितनी शर्मिन्दगी झेलनी होगी । हिकारत से कहेगें कि मैंने मना किया था पर लडकी रुपए का लालच छोड नही पाई न । स्कूल के दूसरे बच्चो को देखा है । मुझे पूछे-बताए बिना वे अपनी क्यारी का टूटा हुआ टमाटर भी नही उठाते । और यह है कि एक रुपया तक लेने से मना नही कर पाई । यों काकाजी की नजरों में गिरने से तो बेहतर ही था कि झूठ बोल जाती । कम से कम दूसरे बच्चों से पीछे तो नही रहना पडता । फिर काकाजी को पता भी कैसे चलेगा । सो तस्वीर के पीछे रुपया छुपाने वाले उस तथ्य को छुपाना ही मुझे सबसे कारगर तरीका लगा । 
और मैं झूठ बोल गई--- 
"काकाजी ! मुझे नही मालूम । सच्ची कहती हूँ ।"----मैंने सारी ताकत समेट कर दृढता से कहा ।
"फिर यह रुपया कहाँ से आया ?"
"मुझे नही मालूम ।"
"पक्का ?"
"हाँ ।"
मैंने साफ इनकार कर दिया । तब सोचा था कि उलझन से छुटकारा मिल गया । पर भला छुटकारा कहाँ । काकाजी महीनों तक इसी सवाल में न केवल खुद उलझे रहे बल्कि मुझे भी लपेटे रहे कि आखिर वह रुपया आया कहाँ से । और मैं भी उस सवाल से भरसक बचते हुए भी अपराध बोध से दबी रही । 
सालों बाद जब एक दिन मेरे सामने कोई शिक्षक नहीं , मेरे पिता थे तब ,मैंने उस रुपए का सच उन्हें बताया । पहले तो वे हँसते रहे फिर वात्सल्य व करुणा भरे स्वर में बोले--- "बेटी तू बेकार ही इतनी परेशान होती रही । एक बार सच कह कर तो देखती । अपने पिता से भी भला कोई इतना डरता है ?"
काकाजी के इस सवाल का भी जबाब मुझे सालों बाद सूझा कि "तब आप थे कहाँ काकाजी ? एक कठोर शिक्षक था . कैसे बताती ? आप नहीं थे  तभी तो मैं हमेशा अँधेरों में घिरती रही । उजालों से डरती रही ।  आप मेरे पास होते तो क्या मैं इस तरह डरती ? यकीनन काकाजी ! कभी नही ।" 
और ....देखो न ...काकाजी मेरे पास अपने होने का यकीन कराए बिना ही चले भी गए !"    


मंगलवार, 15 मई 2012

और कुछ भी नही


मातृ-दिवस पर पूर्व-प्रकाशित एक पुरानी लघुकथा
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इन दिनों बैंगलोर में हूँ । मान्या व विहान के साथ । कुछ लिखना व प्रकाशित करना मुश्किल ही है । इसलिये फिलहाल यह पुरानी रचना ही है ।
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"भैया-भैया ,तुम्हें बुआ बुला रही है ।"----मैं बाहर बैठक में सोने की कोशिश कर रहा था कि मेरे छोटे भाई ने आकर मुझे झिंझोडा ।
"क्या हुआ भाई ?" मैंने पूछा तो वह संक्षेप में बता कर चलता बना---
" खबर आई है कि हरी भैया बीमार है ,सो बुआ जाने की कह रही हैं ।"
"जाने की कह रही हैं !!"--मैं चौंक पडा । ऐसा कैसे हो सकता है ? अभी पन्द्रह दिन भी नही हुए जब इसी हरी के दुर्व्यवहार से आहत हुई बुआ को मैं अपने साथ लाया था । अब बीमार भी होगया पन्द्रह दिन में ! मुझे यकीन नही हुआ । जरूर मक्कार ने बीमारी की झूठी खबर भिजवाई होगी ।
हरी उन लडकों में से है जो बेटे के नाम पर कलंक कहे जासकते हैं । माँ की सेवा-टहल तो बहुत दूर की बात है , उसके दो मीठे बोलों का भी सुख नही है बुआ को । ऊपर से मेहनत अलग । चाहे भैंस का चारा लाना हो ,या भरी दोपहरी में चूल्हे पर रोटी सेकना हो ,काम किये बिना बुआ को एक कप चाय भी नसीब नही होती । काम में जरा भी देर या लापरवाही होती तो गाली-गलौज ,अपमान और घर से बाहर निकल जाने की कहना उसके लिये 'तकिया कलाम' जैसा था । बहू मुँह से तो कुछ नही कहती थी पर उसकी मूक उपेक्षा हरी की मुखर कुटिलता से कम न थी । मैंने वहाँ रह कर यह सब देखा । बुआ की दीन दशा देखीं तो हरी को खूब फटकारा और बुआ को अपने साथ ले आया कभी वापस न भेजने का निश्चय करके । बुआ ने भी तब यही कहा कि अब वे इस 'निपूते' का मुँह भी न देखेंगी । फिर इतनी जल्दी कैसे भूल गईं बुआ । अभी इस तरह चली जाएंगी तो उसकी हेकडी और भी बढ जाएगी । नही मैं नही जाने दूँगा एक माँ को यों अपमानित होने के लिये । मैं इस लायक तो हूँ कि बुआ को आजीवन अपने साथ ससम्मान रख सकूँ । आखिर मेरा भी उनके लिये प्रति कोई दायित्त्व है । यही सब सोच कर मैं अन्दर गया ।
मैंने देखा ,बुआ सारे कपडे-लत्ते समेट-बाँध कर बैठी हैं । मुझे बोलने का मौका दिये बिना ही कहने लगीं---"सुनील बेटा , खबर आई है कि वह 'नासमिटा' बीमार है । पडा होगा सारा काम सिर पर । रहने और खाने-पीने का सऊर तो है नही । अब क्या माँ बैठी है जो फिकर करेगी । जरूर पछताता होगा । बहू पूरी अल्हड है । उमर की भी तो छोटी ही है न ! उसे अपना ही होस नही है ।... देख ,तू यह न समझना बेटा कि यहाँ मुझे अच्छा नही लग रहा । अरे यहाँ तो मैंने वो सुख पाया है जो नसीब वालों को मिलता है । मेरा जाने का मन थोडी है ! और तू देखना वहाँ जाकर भी मैं उससे बोलने वाली नही हूँ ...बस सोचती हूँ कि वह 'मरा' बीमार है ....।"
अपनी बात का समर्थन माँगती हुई सी वे मेरी ओर देखने लगीं । मैं हैरान था । कहाँ वह पन्द्रह दिन पहले वाला आक्रोश और दर्द और कहाँ यह व्याकुलता व चिन्ता । मेरे पास कुछ कहने को नही था क्योंकि उनकी नम आँखों में ,बिना माँगे ही क्षमा कर देने वाले हृदय में केवल और केवल स्नेह था और कुछ भी नही ।
फिर लौट आने का आग्रह करके मैंने उनका थैला उठा लिया । और मैं करता भी क्या ।