मंगलवार, 15 मई 2012

और कुछ भी नही


मातृ-दिवस पर पूर्व-प्रकाशित एक पुरानी लघुकथा
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इन दिनों बैंगलोर में हूँ । मान्या व विहान के साथ । कुछ लिखना व प्रकाशित करना मुश्किल ही है । इसलिये फिलहाल यह पुरानी रचना ही है ।
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"भैया-भैया ,तुम्हें बुआ बुला रही है ।"----मैं बाहर बैठक में सोने की कोशिश कर रहा था कि मेरे छोटे भाई ने आकर मुझे झिंझोडा ।
"क्या हुआ भाई ?" मैंने पूछा तो वह संक्षेप में बता कर चलता बना---
" खबर आई है कि हरी भैया बीमार है ,सो बुआ जाने की कह रही हैं ।"
"जाने की कह रही हैं !!"--मैं चौंक पडा । ऐसा कैसे हो सकता है ? अभी पन्द्रह दिन भी नही हुए जब इसी हरी के दुर्व्यवहार से आहत हुई बुआ को मैं अपने साथ लाया था । अब बीमार भी होगया पन्द्रह दिन में ! मुझे यकीन नही हुआ । जरूर मक्कार ने बीमारी की झूठी खबर भिजवाई होगी ।
हरी उन लडकों में से है जो बेटे के नाम पर कलंक कहे जासकते हैं । माँ की सेवा-टहल तो बहुत दूर की बात है , उसके दो मीठे बोलों का भी सुख नही है बुआ को । ऊपर से मेहनत अलग । चाहे भैंस का चारा लाना हो ,या भरी दोपहरी में चूल्हे पर रोटी सेकना हो ,काम किये बिना बुआ को एक कप चाय भी नसीब नही होती । काम में जरा भी देर या लापरवाही होती तो गाली-गलौज ,अपमान और घर से बाहर निकल जाने की कहना उसके लिये 'तकिया कलाम' जैसा था । बहू मुँह से तो कुछ नही कहती थी पर उसकी मूक उपेक्षा हरी की मुखर कुटिलता से कम न थी । मैंने वहाँ रह कर यह सब देखा । बुआ की दीन दशा देखीं तो हरी को खूब फटकारा और बुआ को अपने साथ ले आया कभी वापस न भेजने का निश्चय करके । बुआ ने भी तब यही कहा कि अब वे इस 'निपूते' का मुँह भी न देखेंगी । फिर इतनी जल्दी कैसे भूल गईं बुआ । अभी इस तरह चली जाएंगी तो उसकी हेकडी और भी बढ जाएगी । नही मैं नही जाने दूँगा एक माँ को यों अपमानित होने के लिये । मैं इस लायक तो हूँ कि बुआ को आजीवन अपने साथ ससम्मान रख सकूँ । आखिर मेरा भी उनके लिये प्रति कोई दायित्त्व है । यही सब सोच कर मैं अन्दर गया ।
मैंने देखा ,बुआ सारे कपडे-लत्ते समेट-बाँध कर बैठी हैं । मुझे बोलने का मौका दिये बिना ही कहने लगीं---"सुनील बेटा , खबर आई है कि वह 'नासमिटा' बीमार है । पडा होगा सारा काम सिर पर । रहने और खाने-पीने का सऊर तो है नही । अब क्या माँ बैठी है जो फिकर करेगी । जरूर पछताता होगा । बहू पूरी अल्हड है । उमर की भी तो छोटी ही है न ! उसे अपना ही होस नही है ।... देख ,तू यह न समझना बेटा कि यहाँ मुझे अच्छा नही लग रहा । अरे यहाँ तो मैंने वो सुख पाया है जो नसीब वालों को मिलता है । मेरा जाने का मन थोडी है ! और तू देखना वहाँ जाकर भी मैं उससे बोलने वाली नही हूँ ...बस सोचती हूँ कि वह 'मरा' बीमार है ....।"
अपनी बात का समर्थन माँगती हुई सी वे मेरी ओर देखने लगीं । मैं हैरान था । कहाँ वह पन्द्रह दिन पहले वाला आक्रोश और दर्द और कहाँ यह व्याकुलता व चिन्ता । मेरे पास कुछ कहने को नही था क्योंकि उनकी नम आँखों में ,बिना माँगे ही क्षमा कर देने वाले हृदय में केवल और केवल स्नेह था और कुछ भी नही ।
फिर लौट आने का आग्रह करके मैंने उनका थैला उठा लिया । और मैं करता भी क्या ।

7 टिप्‍पणियां:

  1. इसी का नाम तो माँ है.....................
    उसके पास सिर्फ दिल होता है,दिमाग नहीं...................

    सुंदर कथा....
    सादर.

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  2. नासपीटा, निपूता और मरा... ये शब्द जब किसी माँ कि मुंह से निकलते हैं तो इनका अर्थ बिलकुल ही बदल जाता है... क्योंकि वास्तव में ये शब्द उसके मुंह से ही निकलते हैं, दिल से नहीं.. दिल से तो वही निकलता है जो वो किसी से न कहती हुई मन ही मन बतियाती रहती है खुद से.. कैसे खाता होगा, कैसे रहता होगा, कौन ख्याल रखता होगा उसका वगैरह!!
    सारी दुनिया में बोली जाने वाली भाषाओं में इकलौता मीठा शब्द है यह, जिसे समझने के लिए सिर्फ दिल की भाषा जानना ज़रूरी है..!! गिरिजा जी, हर बार की तरह एक ममतामयी लघुकथा!!

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  3. क्रोध भी उसी पे ज्यादा आता है जिससे प्रेम होता है ... परवा नहीं करता ... पर माँ का मन उस फक्कड कों जानता है ... मन में उतरती रचना ...

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  4. गिरिजा जी, ये तो माँ का स्वाभाव ही होता है... बढ़िया प्रस्तुति...

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  5. हर माँ का दिल ऐसा ही होता है ...अच्छी प्रस्तुति

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  6. क्योंकि उनकी नम आँखों में ,बिना माँगे ही क्षमा कर देने वाले हृदय में केवल और केवल स्नेह था और कुछ भी नही । यही तो मां की निस्‍वार्थ ममता है ...

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