सोमवार, 21 मई 2012

सोचो तो जरा....


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अभी मैंने सोचा नही
तुम्हारे लिये
जैसे सोचता है कोई
अखबार में पढते हुए
राजनीति की सुर्खियाँ
कुढते हुए ,
पढ कर भ्रष्टाचार जैसे ही
 तमाम ज्वलन्त मुद्दों को
अभी सिमटी नही हैं उम्मीदें
जैसे सिमट जाती है एक पूरी दुनिया
महानगर के किसी फ्लैट में ।
अभी खामोश नही हुईं
अपेक्षाएं और उलाहने भी,
जैसे खामोश होजाते हैं देहात के रास्ते
अँधेरा होते ही ।
अभी यकीन भी नही हुआ पूरी तरह
कि व्यर्थ है मेरा होना
तुम्हारे लिये ,
गुजरे साल के कैलेण्डर की तरह
और...तुम्हारी उदासीनता के बावजूद
तुम्हें सोच कर मन होजाता है
नीम का झुरमुट
चिडियों के कलरव से गूँजता हुआ
सुबह--सुबह ।

और एकदम निरर्थक नही है
मेरा तुम्हें हर पल साथ लेकर जीना
जैसे जीता है कोई प्रेम में ,
निरपेक्षता को सर्वथा नकार कर
गलत 'पासवर्ड' की तरह ।
क्या यह काफी नही है 
यह सोचने के लिये कि
अभी शेष है कहीं कुछ
जो गूँज उठता है
घोर उदासी व सन्नाटे के बीच
किसी फोन काल की तरह ।  
कि , कितनी खुशकिस्मती है
यूँ कितना कुछ शेष होना,
जिन्दा इन्सानों के लिये।

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7 टिप्‍पणियां:

  1. अभी कुछ तो शेष है कहीं
    जिसे सोच कर---
    मन होजाता है ,नीम का झुरमुट..

    वाह...
    बहुत सुंदर भाव गिरिजा जी.

    सादर.
    अनु

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  2. 'कितनी खुशकिस्मती है, शेष होना'
    सोच के धरातल पर एक आवश्यक दस्तक...
    ज़रूरी है यह सोचना!

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  3. आशा का धरातल थामे रहना जरूरी है ... खुद का व्यर्थ होना तो कभी भी संभव नहीं जब तक सोच का दिया जलता रहता है ...
    सच है की बहुत कुछ है अभी ... मिलन की आशा में ... मिलन से अलग ...

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  4. सच बात कही है, इसके पहले कि जीवन निकल जाये, निश्चयात्मक जी लिया जाये।

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  5. इस कविता पर की गई मेरी टिप्पणी कहां गई :(

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  6. दीपिका जी सुधी पाठकों की टिप्पणियाँ ही तो रचना का सही आकलन करतीं हैं । मुझे आपकी टिप्पणी की प्रतीक्षा है । आप फिर से राय दे सकतीं हैं ।

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