गुरुवार, 7 जून 2012

अपनी खिडकी से


"अपनी खिडकी से" --यह वह संग्रह है जिसमें मेरी सत्रह बाल-कहानियाँ संकलित हैं ।जो बेशक अपनी खिडकी से नही बल्कि उनके ही आँगन में जाकर लिखी गईं हैं । आठवे-नौवे दशक में लिखी गईं इन कहानियों में अधिकांशतः चकमक, झरोखा, पाठकमंच ,बाल-भास्कर ,पलाश आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकीं हैं इसलिये कुछ नया तो नही है फिर भी पुस्तक के रूप में रचनाओं को देखना एक सन्तुष्टि तो देता ही है । इन कहानियों में से एक कहानी --हमने देखा मेला दो वर्ष पहले एस.सी.ई. आर.टी. उत्तरांचल की कक्षा 7 के हिन्दी (बुरांश) के पाठ्यक्रम में भी (फूफाजी शीर्षक (व्यंग्य) से )शामिल की जा चुकी है । यह संग्रह हाल ही में प्रगतिशील प्रकाशन दिल्ली से निकला है और उन सबको समर्पित है जिनकी प्रेरणा ने रचना में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई । आशा है कि छोटे-बडे सभी पाठकों को ये कहानियाँ पसन्द आएंगी । बाकी सही समीक्षा तो सुधी समीक्षक ही कर सकेंगे । संग्रह की ही एक कहानी रद्दी सामान यहाँ प्रस्तुत है । शीर्षक कहानी  अपनी खिडकी से कथा-कहानी में पढ सकते हैं । आशा है आप इन कहानियों को अवश्य ही पढेंगे और अपनी राय भी देंगे।
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रद्दी सामान
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वरुण भैया ने आँगन में बिखरे सामान को ऐसे देखा जैसे कोई मरे हुए जानवर को देखता है और  उतनी ही उससे जल्दी छुटकारा पाने की भी आतुरता दिखाते हुए उन्होंने अपना आदेश  जैसा कि वे हमेशा करते हैं ,मेरी तरफ गुलेल की गोली की तरह फेंका---
"राजन् ! जा जल्दी से किसी रद्दीवाले को पकड ला । कहीं भी मिल जाएगा ।आजकल तो रद्दीवाले गली-मोहल्लों में ऐसे घूम रहे हैं जैसे बरसात में मेंढक-केंचुए घूमते हैं ।"
यह कहते-कहते उन्होंने अपनी नाक ऊपर खींच कर होठों को कुछ इस तरह सिकोडा कि नाक के दोनों तरफ नालियाँ सी बन गईं । ऐसी जटिल मुद्रा वे किसी के प्रति गहरी उपेक्षा दिखाने के लिये करते हैं । पर उस समय उनकी उपेक्षा रद्दी सामान के लिये थी या उसे खरीदने वाले के लिये , कहना मुश्किल था ।
लेकिन मुझे खुशी हुई । भैया उस ढेर सारे पुराने सामान को अलविदा कहने वाले थे जो बेकार ही था और जिसके कारण हम घर में कभी नयापन महसूस नही कर पाते थे ।
हर साल दीपावली पर सफाई--पुताई होती और वह सामान इधर से उधर सरका दिया जाता था । पर कचरे में हरगिज नही फेंका जाता था ।
हमारे पिताजी को पुरानी चीजें जोडते रहने का विशेष चाव है । घर की कोई चीज उनसे बिना पूछे बाहर नही जासकती । चाहे वे फटे-पुराने जूते-चप्पलें ही क्यों न हों ।
"किसी जरूरतमन्द को ही दे देंगे ।"--इस संग्रह के पीछे पिताजी का यही तर्क रहता था ।
"लेकिन पिताजी जो चीज हमारे काम की नही उसे दूसरों को देना क्या ठीक होगा ?"--भैया कभी-कभी पूछते तो पिताजी एक ही बात कहते ---"कुतर्क करना तो सीख गए हो कुछ अच्छी बातें भी सीख रहे हो कि नही !"
इसी तरह एक बार चाचाजी ने कह दिया था कि 'पुरानी बेकार चीजों को तो निकाल ही देना चाहिये ।' 
बस पिताजी उनके पीछे पड गए । दादी से बोले----"सुन लो माँ ! पुरानी चीजें इनके लिये बेकार हैं । कल को हम-तुम पुराने हो जाएंगे तो ...।"
"अरे भाईसाहब !"---चाचाजी कुछ झेंप कर बोले---"मैं तो घर की फालतू और बेजान चीजों के लिये कह रहा था ।"
"क्यों भाई ! इन फालतू बेजान चीजों से क्या तुमने कभी काम नही लिया ?"--पिताजी किसी काबिल वकील की तरह अपने प्रतिपक्षी को पछाडने के लिये ढेरों दलीलें जेब में रखते हैं ।
"तुम इन्हें फालतू कह रहे हो वे क्या हमेशा से ही फालतू थीं ? इन चप्पलों को ही देखो ,जब खरीदीं थी तब तो नई थीं . थीं ना ?"
"जी हाँ नई थीं ।"
"और इनकी यह हालत इसलिये हुई कि तुमने खूब घसीट कर पहनीं । है ना ?"
"हाँ...तो ...?"----चाचाजी ने कुछ झिझकते हुए कहा लेकिन पिताजी विजयी भाव से बोले ---
"बस" -----"यही तो मैं तुम्हें समझाना चाहता था कि किसी चीज से हम काम लें और काम की न रहने पर फालतू करार दे दें क्या यही इन्सानियत है !"
"ओफ् ओ भैया !"---चाचाजी अधीर होगए पर पिताजी क्या किसी को बोलने का मौका देते हैं । कहने लगे --"सवाल बेजान या जानदार का नही है भाई , हमारी सोच का है । आज हम जो बात इन चीजों के लिये कह रहे हैं कल इन्सानों के लिये भी सोचेंगे । क्या मैं गलत कह रहा हूँ ?"
अपनी हर बात के पीछे पिताजी यह सवाल जरूर लगाते हैं --क्या मैं गलत कह रहा हूँ । जाहिर है कि इसका जबाब सबको 'नही' में ही देना होता है चाहे उनके तर्क कितने ही बेतुके क्यों न हों ।
आप समझ सकते हैं कि क्यों हमारे घर से अब तक कोई इस सामान को चाह कर भी नही निकालने की हिम्मत भी नही जुटा पाया ।
इधर दीपावली का त्यौहार दस्तक देने लगा था । चारों तरफ सफाई-धुलाई पुताई और रंगाई का काम युद्ध-स्तर पर होने लगा था , लेकिन हमारे सामने हमेशा की तरह वही सवाल खडा था कि 'पुराने बेकार सामान का क्या करें ?'
संयोगवश पिताजी को तीन-चार दिन के लिये बुआ के यहाँ जाना पड गया ।माँ ने जाते-जाते वरुण भैया के कान में चुपचाप एक वाक्य सरका दिया-- "सारे रद्दी सामान को निकाल फेंकना । लौट कर पिताजी थोडा बहुत बखेडा करेंगे और कुछ नही । बाद में सब ठीक हो जाएगा।"
भैया यह विशेषाधिकार पाकर खुश होगए । पर मैं उनसे ज्यादा खुश था । सो पूरे उत्साह के साथ पुराने सामान को निकलवाने व छँटवाने में उनके साथ लग गया । पूरे दो दिन की मेहनत के बाद आँगन में ढेर सारी पुरानी चीजों--लोहा--पीतल के टूटे-फूटे सन्दूक के साथ साथ बर्तन, पेटियाँ  बर्तन,पेटियाँ, कुर्सियाँ,बैग,चरखा ,लालटेन,डिब्बे-डिब्बियाँ किताबें ,खिलौने कुछ पुराने कपडे आदि बिकने के लिये तैयार थीं ।  
"लोहा..प्लास्टिक वाला...टीन-टप्परवाला ,रद्दी अखबार वाला ".--मैंने देखा गली में चार पहियोंवाला ठेला धकेलता हुआ एक आदमी आँखें बन्द कर समान की ओर पूरा मुँह खोले चिल्ला रहा था ।
"ओ रद्दी वाले भैया । रद्दी खरीदोगे ?"
मेरी बात सुन वह लपककर हमारे द्वार पर आ खडा हुआ ।
"भैया, भैया मैं उसे ले आया ।" मैंने उल्लास के साथ कहा पर भैया ने जाने क्यों मेरी बात जैसे सुनी ही नही ।
"भैया ,चलो न !" मैंने कहा तो कुछ खीजकर बोले----"रुक जा यार ।"
पाँच साल बडे भैया जब मुझे इस दोस्ताना सम्बोधन से पुकारते हैं तो मैं समझ जाता हूँ कि वे किसी असमंजस में हैं और उन्हें मेरी मदद की जरूरत है ।
"क्या बात है भैया ?" मैंने पूछा तो भैया बडे विचारशील व्यक्ति की तरह बोले--
"राज ,हमें एक बार फिर से देख लेना चाहिये कि इनमें कोई जरूरी सामान तो नही है !"
"दो दिन से हम क्या बैठे-बैठे गीत गा रहे थे ?"---भाभी व्यंग्य से बोली---"बाहर आदमी इन्तजार कर रहा है बेचारा ।"
"विनी तुम जरा शान्त रहोगी ?" भैया माथे का पसीना पौंछते हुए बोले । फिर मुझसे कहने लगे-----"देखो राज, सामान को बेचना जितना आसान है खरीदना उतना ही मुश्किल । तुम नही समझते कि जिन्दगी कैसे चलाई जाती है !"
भैया की बात सुन कर मेरी हँसी फूटते-फूटते रह गई । भला इस रद्दी सामान का जिन्दगी के चलने से क्या सम्बन्ध । लेकिन मैंने देखा कि भैया का जोश (सामान को निकालने का) अब उसी तरह धीमा होगया था जिस तरह सिग्नल न मिलने पर कारण गाडी की गति धीमी हो जाती है । रुक भी जाती है ।
हाँ मैंने भैया की बातों में एक खास बात देखी कि  न तो ये वाक्य भैया के थे न ही बोलने का लहजा । उनके मुँह से सरासर पिताजी बोल रहे थे । शरीर से सैकडों मील होने के बाबजूद पिताजी भैया के विचारों व शब्दों में बखूबी मौजूद थे । मैं हैरान रह गया । जाहिर है कि इसमें भैया का कोई दोष नही था । और तब जरूरी था कि हम उनकी बात समझते । वे कहे जा रहे थे--
"पुरानी चीजों की बडी अहमियत है राज । इस लकडी के सन्दूक को देखो । दादाजी के पिताजी ने मात्र तीन रुपए में खरीदा था । आज भी कितना मजबूत है !"
"इसे रहने देते हैं भैया "---मैंने उदार होकर कहा । हालाँकि मेरी हालत अच्छे भले उडते गुब्बारे में सूराख हो जाने जैसी होने लगी थी लेकिन...।
"यह लोहे का बक्सा देखो भले ही जंग खा रहा है पर मजबूती में कम नही है देखो--"--यह कह कर उन्होंने सन्दूक में दो-तीन मुक्के मार कर दिखाए---"पेंट करवा लेंगे तो नए को मात देगा । है कि नही ?"
मैंने लोहे का बक्सा भी एक तरफ सरका दिया । भैया को जैसे रास्ता मिल गया । चहक कर भाभी से बोले---"विनी देखो यह गुडिया और उसका सन्दूक । याद है तुम्हारी दादी ने जन्मदिन पर तुम्हें दिया था !"
भाभी बिना रुकावट के मुस्कराई और छोटी बच्ची की तरह झपट कर भैया से अपना सामान छीन लिया ।
"राजन् ये लकडी की पेटियाँ अलग रखदो ।" --भैया अब खुल कर आदेश देने लगे ।
"क्या है कि इनसे कई काम लिये जा सकते हैं । इनमें गैरजरूरी सामान भरा जा सकता है । चाहो तो टेबल का काम ले लो । कुछ नही तो मिट्टी भर कर गमले ही बना लो । देखो..यह लालटेन ..क्या हुआ जो बिजली के युग में कोई इसे पूछता नही पर बिजली भी तो चली जाती है कभी-कभी...। नही ?"
"भैया इसे भी रख लेते हैं "--भैया की बातें च्यूइंगम की तरह न खिचने लगें मैंने तुरन्त लालटेन उठा कर एक तरफ रखदी । फिर तो जादुई तरीके से सामान छँटने लगा ।सबके पीछे काफी दमदार दलीलें ---
"ये कुर्सियाँ जरा सी मरम्मत कराके नई हो जाएंगी ।... यह चरखा व चक्की माँ के जमाने की यादगार हैं । और सिंगारदान चाचीजी के ब्याह की निशानी ये खलौने व झूला भैया के बचपन का है तो पीतल के बडे भगौने दादी के दहेज की निशानी । ...किताबें तो सभी पढने लायक हैं और पत्रिकाओं में बुनाई व व्यंजनों के बढिया नमूने । ...अखबारों को गला-कूट कर माँ बढिया टोकरी व मूर्तियाँ बना लेंगी और भाभी पालीथिन से दरी और आसन । बैग की केवल चैन खराब है और जूतों की जरा सिलाई होनी है । ये चप्पलें बरसात में अच्छा काम देंगी ......।"
पूरा नाटक पुराना था । कथानक ,संवाद सब कुछ वैसे ही । सिर्फ पात्र बदल गए थे । चूँकि मुझे अभी तक इसमें कोई भूमिका नही मिली थी सो असमंजस में खडा था तभी भाभी ने पुकारा---"अरे राज, ये पेंट शर्ट छोटे तो होगए हैं पर होली पर पहनना काफी मजेदार रहेगा ।तंग शर्ट चार्ली चैपलिन जैसी और यह हैट आवारा के हीरो जैसा । दादाजी की छडी और पिताजी की घडी । मजा आएगा न !"
भाभी की बात से मुझे समझ में आगया कि मुझे भी एक छोटी सी भूमिका अदा करनी है वह यह कि दरवाजे पर आधा--पौन घंटे से खडे रद्दी वाले को जो कई बार हमें जल्दी करने को उकसा चुका था ,किसी तरह चलता करना था । इसलिये मैंने इधर--उधर से कुछ शीशियाँ ,जिनके ढक्कन गायब थे कुछ चप्पलें जिनमें मरम्मत की गुंजाइश न थी ,कुछ कागज, फटी किताबें और कील-काँटे समेटे और रद्दीवाले को देने चल दिया । इससे ज्यादा देने को हमारे पास कुछ था ही कहाँ !