रविवार, 22 जुलाई 2012

सावन के लोकगीतों में प्रेमाख्यान---1


आख्यानक गीत अर्थात् कथाबद्ध गीत । यह प्रबन्ध काव्य का ही एक स्वरूप है । हिन्दी साहित्य में झाँसी की रानी , सरोजस्मृति ,राम की शक्ति-पूजा आदि रचनाएं आख्यानक गीत की श्रेणी में आती हैं । लोक साहित्य में आख्यानक गीतों की समृद्ध परम्परा है । हरदौल, नरसी, आल्हा-ऊदल रूप-वसन्त ,राजा हरिश्चन्द्र व मोरध्वज आदि के जीवन के मार्मिक प्रसंग आज भी गीतों के रूप में बडी करुणा व श्रद्धा के साथ गाए जाते हैं ।
सावन के गीतों में भी कुछ छोटे-छोटे आख्यान सुनने मिलते हैं ,इनमें
अधिकांश आख्यान प्रेम के ही हैं । प्रेम जो शाश्वत है । सत्य है । झरने की तरह निर्बन्ध और स्वच्छन्द । भेदभाव व ऊँच-नीच से परे । फिर सावन का लरजता बरसता महीना तो है ही ऐसा कि मन की धरती में लालसाओं के अंकुर फूट पडते हैं । प्रतीक्षा के बादल उमड़ते हैं ,स्मृतियों की बिजली कौंध उठती है । उधर लहरका मारती पछैंया ,रिमझिम फुहारें ,झूले और मल्हारें ,हरियाते बाग-वन ,मोर--पपीहे की पुकार, सिल-बट्टे पर पीस कर रचाई मेंहदी की महक कलेजे में हूक उठाती है और इधर ललनाएं ऊँची अटारी पर चढी या तो परदेसी प्रीतम की बाट देखतीं हैं  ( जीविका के लिये महीनों सालों के लिये गए  ) या अपने 'माँ-जाये' की ।  
यहाँ सावन में गाए जाने वाले कुछ आख्यान हैं जो मैंने अपनी दादी व माँ से सुने थे । नही मालूम कि इन्हें किसने कब रचा और किसने संगीतबद्ध किया और यह भी नही पता कि क्यों राखी के इस महीने में गाई जाने वालीं मल्हारें भाई-बहिन के गीतों से कहीं अधिक प्रेम , वह भी अधिकांशतः परकीया प्रेम से रँगी-पगी हैं ?
 जैसा कि पुराण हों या इतिहास हो या फिर समाज---जाने क्यों हर कहीं वर्जनाओं की भूमि में उगे ,पल्लवित हुए तथा फूले--फले प्रेम को ही गीतों में गाया गया है । विद्यापति और सूरदास जैसे महान कवियों ने राधा-कृष्ण के प्रेम को ( कृष्ण-रुक्मिणी क्यों नही ) अपने काव्य का वर्ण्य विषय बनाया है . हालाँकि वह हिन्दी साहित्य की अमूल्य धरोहर है इसमें कोई सन्देह नहीं पर वह परकीया प्रेम ही है . खैर... 
जो भी हो माधुर्य से रचे-बसे इन गीतों में प्रेम की व्यापकता है ,पीडा है , बन्धनों की कसक और लोक-मर्यादा की गरिमा है, हास-विलास है और शाश्वत सौन्दर्य--बोध है . मार्मिक तो है ही । 
ये गीत दबे छुपे प्रेम की अभिव्यक्ति के साथ उस कालखण्ड के परिचायक भी हैं जब लोग रोजगार--व्यापार के सिलसिले में वर्षों तक घरबार छोड़ परदेस में पडे रहते थे । उनकी रूपसी पत्नियाँ किसी तरह सास--ननदों के ताने उलाहने सुनतीं सहतीं,  विरह को अपना व्रत बना लेतीं थी । रपटीली राहों में खुद को सम्हालने में लहूलुहान भी होती थी तो कभी गिर भी जातीं थीं । 
इन गीतों में जहाँ प्रेम का उत्सव है वहीं भारतीय नारी का मान-सम्मान और विस्तार भी है । साथ ही मर्यादा के लिये उत्सर्ग भी है । आख्यानों का दुखान्त इसी तथ्य की पुष्टि करता है । 
विशेष बात यह है कि सभी गीत मधुर रागों में रचे-पगे हैं ।
(1)
उड़िनी
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यह गीत सुनने में जितना मधुर है उतना ही करुण भी है । उड़िनी एक अत्यन्त सौन्दर्यवती नवोढ़ा है । तालाब की पार पर कहार उसकी डोली ले जा रहे हैं । वह रूपगर्विता जब डोली के परदा से बाहर झाँकती है तब उस पर अनायास ही एक बाँके नौजवान की नजर पड़ जाती है . वह रूपसी के सौन्दर्य पर मुग्ध होजाता है । पर उड़िनी उसे नजर अन्दाज कर देती है । अपने प्रति उड़िनी की लापरवाही उस नौजवान को अखरती है । वह मुग्ध हुआ कहता है -- "अरे गोरी नैकु चितहु मेरी ओर ..।" 
उड़िनी समझाती है कि ओ बावले ढोला मेरे साथ ससुर की फौज है ,जेठ का दरबार है ,चुलबुले देवर जी का पहरा है । तू पागल न बन अपनी राह चला जा । ढोला किसी भी तरह नही जाना चाहता । उड़िनी उसकी आतुरता देख उसे टालने के लिये कह देती है--
ठीक है ,--"जो तू बोल कौ साधिलौ , ढोला आइयो हमारे देस..।"
बस ढोला नए कपडे पहन पाँचौ हथियार बाँध कर नीले घोडे पर सवार हो अपनी प्रेयसी के देश चलने तैयार होता है । माँ-बहन और पत्नी आशंकित होकर उसे रोकतीं हैं---
"मैया नै पकरी बाँह री औरु बहना ने घोड़िला लगाम .धनि नै दुराई पनहीं औ दुराए पाँचौ हथ्यार...।" 
ढोला निवेदन करता है कि माँ मेरी बाँह छोडदे . हे बहन मुझे घोड़े की लगाम दे दे . मुझे हर हाल में उड़िनी के देश जाना ही है। इसी तरह पत्नी से भी पनही(जूते) व हथियार माँग लेता है । 
लेकिन चलते समय असगुन होते हैं---"छींकत पैरीं (पहनी) ढोला पनही और बरजत भए असवार ।" 
इस तरह लाख रोकने पर भी ढोला सारी बाधाओं को पार कर ,प्रिया उड़़िनी के देस पहुँचता है----"इक वन नापे ,दूजे वन नापे  तीजे वन धनि के देस..।"
परदेसी पति के विरह में दग्ध उड़िनी , ऐसे साहसी प्रेमी ढोला की अवमानना नही कर पाती । उसके लिये सुस्वादु व्यंजन (जो किसी अति प्रिय के लिये ही पकाए जाते थे )बनवाती है --
"चामर राँधे हैं ऊजरे ,ढोला हरिय मुगल धोआ दारि । 
आलम-सालम साग रे ढोला बैगन छौंकों बघार । 
लामन-लाडू सुख पुरी जलेबीनि संख समाय । ...
पापर सेकों जिगजिगे ढोला खोआ-खीर पकाय ।"
खाना तैयार कर उड़िनी ने ढोला को चन्दन की चौकी पर बिठाया और अपने अंचल से हवा करने लगी --"चन्दन चौक बिठाइकें ढोला,अँचरा से ढोरति ब्यारि ।"
और तभी गजब हुआ कि उड़िनी का पति परदेस से लौट आया । उड़िनी को खुद से ज्यादा ढोला की चिन्ता होती है । आखिर वह उसी के कारण तो संकट में फँसा था । कहती है कि मैंने तुझसे पहले ही मना किया था । अब जैसे भी हो अपने प्राण बचा कर भागले । ढोला कहता है कि अरी रूपसी कोई तो बहाना बता कि मैं यहीं रह जाऊँ । तेरे घर में चौपाए भी नही कि उन्हें चराने के लिये रुकूँ या कि छोटा बच्चा होता तो उसे ही खिलाने का काम कर लेता -- 
"नहि तौरैं ढोर चौपाइये ,ताहि चराइ रहि जाउँ ,
नहि कोऊ बारौ बेदरौ गोरी ताहि खिलाइ रहि जाउँ."
 उड़िनी फिर निवेदन करती है कि हे ढोला तू जैसे भी हो अपने प्राण बचा पर तभी उसका पति आजाता है । उसके शयनकक्ष में भला दूसरा पुरुष .!! मारे क्रोध के आव देखा न ताव ,तलवार चला ही दी---
"एक दई दूजी दई और तीजी पे हने हैं पिरान ..।" 
उडिनी अपने निर्दोष प्रेमी का ऐसा अन्त देख बिलख उठती है-" अरे निर्दयी प्रीतम उसे मारना तो जरूरी नही था । क्या प्रेम करना इतना बडा अपराध है कि उसकी सजा मौत ही हो ?"
"मेरे री राजा बुरौ कियौ ,परदेसी के लए हैं पिरान..।"
व्यथित उड़िनी को ढोला के घरवालों का ख्याल आता है .इसलिये 'सरग उडन्ती' चील को ढोला की अँगूठी देकर उसके घर सन्देश भेजती है । सन्देश पाकर  ढोला की पत्नी बिलख उठती है ---"देखि मूँदरा रोइयौ ढोला ठाड़े से खाति पछार ,मेरी तू सौति उड़िनिया मेरे ढोला के लए हैं पिरान...।"
लेकिन इसमें उडिनी का क्या दोष . परवाने की तरह ढोला खुद ही जलने चला आया तो उड़िनी बेचारी क्या करती !

(2)  मथुरावली
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यह गीत भी मधुर और सुरीला है . 
मथुरावली एक कुलवन्ती वधू है । आज्ञाकारिणी और सास-ससुर की सेवा करने वाली है । एक दिन उमस भरी दोपहरी में सास बिजना (पंखा) माँगती है । बहू बिजना ढूँढती है लेकिन बैरी बिजना कहीं नही मिलता--"मढ़हा ढूँढौ तिवारौ ढूँढौ ढूढी है राम रसोई ,...बैरी बिजना ना मिल्यौ..।"
तब सासूजी की आज्ञा के पालन के लिये मथुरावली खाती (पंखा बुनने वाला) से पंखा बुनवाने जाती है ---
"सासूजी कौ हुकम-अदूल बिजना गुहावन खाती घर चली ।"
खाती  पंखा बुनता है . इतने में तो बाजार पर तुर्क हमला कर देते हैं . वहीँ उनकी नजर सुन्दरी मथुरावली पर पड़ती है तो उसे बन्दिनी बना लेते हैं "जो नौं र खाती बिजना बुनि रह्यौ ,मुगलनि घेर् यौ है द्वार, बन्दी भई मथुरावली ।"
सरग उडन्ती चील री मेरे ससुरा से कहियो जाइ ,अपनी बहुअरि कौं लेउ छुडाइ बन्दी भई....।"
मथुरावली चील के माध्यम से ससुर जेठ देवर और अपने भँवर जी को सन्देश भेजती है । सन्देश पाकर ससुर हाथियों की ,जेठ ऊँटों की ,देवर घोडों की फौज तथा साहिब अशर्फियों की गठरी लेकर मुगल सरदार को भेंट करने तथा मथुरावली को छुडाने आते हैं --
"ससुर छुडावन कौं चले लै हथियन बगडोरि ...
जेठ छुडावन कौं चले लै करहनि बगडोर ...।"
पर मुगल सरदार उनकी एक नही सुनता । कहता है---मुझे न हाथी चाहिये न घोडा । न ऊँट और न ही असर्फियाँ । मैं तो मथुरावली को बीबी बनाऊँगा ---
"जाके हैं लम्बे--लम्बे केस ..जाके हैं बडे-बडे नैन बीबी बनाऊँ मथुरावली ।"
मुगल का ऐसा कठोर फैसला सुन मथुरावली को यकीन हो जाता है कि इस तुरक से जीतना असंभव है । उसके पास बड़ी सेना है ,हथियार हैं । ताकत है । इनसे लड़ाई करना अपने आपको मिटाना ही होगा । यह सोच कर वह समझाती है---
"जाउ ससुर घर आपने लै हथियन बगडोर, बीबी ना बनूँगी मियां तुरक की..राखूँ त्यारी पगडी की लाज बीबी ना बनूँगी ,मियां तुरक की ...। दै कें फांस मरौंगी ...,..।"
मथुरावली सबको समझा कर घर लौटा देती है । और सरदार के पास आकर कहती है कि --बीबी तो बनाओगे ही । अपने हाथ का पानी तो पिलादो । 
सरदार पानी लेने चला जाता है तब तक मथुरावली तम्बू में आग लगा लेती है --
"पानी पिलाइदेउ मुगला हाथ कौ जो मोहि बीबी बनाउ ..। 
जौनों र मुगला पानी लाइयौ तम्बुलनि दै लई आगि 
ठाडी जली मथुरावली ।
 हाड जरैं जैसे लाकडी ,केस जरैं जैसे लांक ठाडी जली मथुरावली ..ए जी बीबी ना बनी .मियां तुरक की ..।"
इस तरह मथुरावली अपनी इज्जत बचाने जलकर भस्म होजाती है . मुझे याद है ,गाँव में गाते गाते महिलाओं का गला अवरुद्ध हो जाता था .

(3) कान्हा
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कान्हा भी एक दुखान्त प्रेम का कर्णप्रिय आख्यान है । कान्हा एक घुमक्कड नौजवान है । एक दिन यों ही चलते-फिरते उसकी नजर एक केशराशि को सुखाती हुई कृशकाय सुन्दरी पर पडती है जो उसे सजल आँखों से देख रही है । कान्हा का हृदय पिघल जाता है वह उसकी उदासी का कारण पूछता है--
"कै तेरी सास दुसामती (सौतेली) री कै तेरौ पीहर दूर ..।" 
हे रूपसी, तू इतनी उदास और मलिन वेशिनी किस कारण से है क्या तेरी सास सौतेली है या तेरा मायका दूर है । ( भरे सावन में उदासी का और क्या कारण हो सकता है )
वह रूपसी कहती है कि , हाँ मेरी सास दुसामती है और मेरा पीहर भी दूर है लेकिन हे परदेसी  ! मेरी उदासी का कारण तो तेरी सूरत है जो मेरे साहिब से मिलती है जो परदेस में हैं और मुझे भूल भी गया है । कान्हा ऐसी रूपसी विरहिन को देख द्रवित हो उठता है और उसे अपने साथ ले जाने और उसे अपनाने के लिये ललचा उठता है ।
 "संग चलै तौ तोहि लै चलौं गोरी लै चलौं अपने देस .. हरवा गढाऊँ नाक बेसरि पैराऊँ और रनिया बनाइ कैं राखियों....।"
जीवन की तमाम खुशियों से वंचिता और उपेक्षिता वह भोली रूपधन कान्हा के साथ चलने तैयार हो जाती है । ससुराल में रहे भी तो किसके भरोसे । जिसे भरे सावन में अपनी प्रिया की सुधि नही आई उसकी बाट जोहना बेकार है । लेकिन कान्हा के देश जाकर उसे मालूम होता है कि अपना सब कुछ छोड कर जिसके साथ वह आई है वह पहले से विवाहित है ।
"धरि डोली में लै चल्यौ कान्हा लै चल्यौ अपने ही देस..।
जाइ उतारी महल में  कान्हा ब्याही र पूछै बात ।
कै लाए बहन भानैजिया ,पिया कै तुम लाए ल्हौरी सौत..।"
कान्हा की ब्याहता पत्नी पूछती है कि आखिर यह कौन स्त्री है जिसे तुम डोली में लाए हो । क्या यह तुम्हारी बहन है या भानजी या फिर मेरी सौत ले आए हो । दूसरी स्त्री के मोह में ब्याहता को नाराज थोडे ही करता । उसे मनाते हुए कहता है  कि न तो यह मेरी बहन है ना ही भानजी ना ही तुम्हारी सौत । यह तो दूसरी है( रखैल ,एक तरह से सेविका जिसका कोई कहीं अधिकार नही होता ) जो तेरे पाँव दबाएगी ,तेरा पीसना पीसेगी ,तेरी रोटियाँ सेकेगी, तेरा गोबर डालेगी और तेरे बच्चों को खिलाएगी ।
"ना लाए बहन भानैजिया गोरी ना लाए ल्हौरी सौत
तुम पर लाए हम दूसरी ,दिन भर हुकम बजाए ..।
रात पीसैगी तेरौ पीसनौ ,गोरी दो सौ रोटीनि की जेट ( ढेर)
रात दबाऐ तेरे पैरुआ गोरी दिन में खिलाऐ तेरौ लाल...।"
यह सुन कर कान्हा के साथ आई वह रूपसी हतप्रभ रह जाती है । इतना बडा धोखा । लेकिन वह अपना स्वाभिमान गिरा कर ,दूसरी बन कर हरगिज नही रह सकती । तभी तो साफ कह देती है ---
"जारौं रे बारों तेरौ पीसनों ,कान्हा आग लगाऊँ रोटी जेट ।"
"ज्हाँ ते र लायौ वहीं लै चलौ कान्हा लै चलौ म्हारे ही देस ..।"
तैनें तौ कान्हा मोसे छल कर् यौ ...।" 
अरे ,निर्मोही छली , तेरे पीसने में, रोटियों में आग लगा दूँगी । तेरा बच्चा मेरी बला खिलाएगी । भला यही होगा कि जहाँ से लाया है मुझे वही पहुँचादे ।
लेकिन कान्हा निर्ममता से कह देता है कि तुम्हें यों रहना पसन्द नही है तो जाओ----"पिछवारैं बनिया बसै गोरी धरि बेसरि बिसु खाउ ।"
"अपनी बेसरि को गिरवी रख कर जहर खरीद कर खाले और क्या । अब मैं लौटाने कहाँ जाऊँगा ।"
उस स्वाभिमानिनी को बात लग गई और सचमुच वह ---
'घोरि कटोरा बिस पीगई कान्हा सोगई दुपटा तान । "
आखिर उसने प्राण तज दिये । कान्हा की ब्याहता को दुख होता है वह करुणा से भर जाती है । कहती है--कान्हा यह बहुत बुरा हुआ । यह किसी की बेटी थी किसी की बहू । माँ सोचेगी कि बेटी ससुराल में है और सास समझेगी कि बहू मायके में है । पर यह हतभागी न इधर की हुई न उधर की बीच में ही प्राण गँवा बैठी ।
"जे तौ कान्हा बुरी भई ,परदेसिन ने तजे हैं पिरान
माइ कहै धिय सासुरैं, और सासु कहै पौसार
अपनी करी ना काऊ और की कान्हा अध बिच तजे हैं पिरान ..।"

इन गीतों में हमें कहीं न कहीं तत्कालीन पारिवारिक व सामाजिक परिस्थितियों की तस्वीर दिखाई देती है .  

जारी.........

6 टिप्‍पणियां:

  1. सावन में प्रेम का वातावरण परस जाता है, बड़ी सुन्दर पोस्ट..

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  2. बहुत ही सुंदर और मन को छू लेने वाले आख्यान हैं गिरिजा जी... इन लोक आख्यानों के जरिये हमारी विविध परंपराओं से परिचित कराने का शुक्रिया...

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  3. तीनो आख्यान हृदयस्पर्शी हैं। दूसरी और तीसरी किश्त भी देखता हूँ।

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  4. अहा क्या खूबसूरत विवरण है दीदी....आंख भर आयीं☺☺

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