सोमवार, 9 जुलाई 2012

एक शाम का लेखा-जोखा


आज का दिन भी चला गया
उम्मीदों की सारी धूप समेट कर
बिखर गई थी जो
रोज की तरह
सुबह-सुबह सूरज के साथ ही
हर पल अनछुआ सा ही गुजर गया
 करीब से,
बिना कुछ पूछे-बताए ही ।
नही किया कोई काम
सार्थक ...
प्रतीक्षाएं हुईं धूमिल, निरर्थक..।
नहीं आया कोई सन्देश
किसी अपने का
नही हुआ संवाद कोई मन का
बीत रहे हैं दिन-रात
आज की शाम की तरह ..।
यूँ हीं अनवरत
हर हसरत
पीछे छूट जाती है
ट्रेन से छूटते जाते हैं
जैसे पेड और पहाड
जिन्दगी आखिर होती ही कितनी है !

12 टिप्‍पणियां:

  1. जिंदगी की कई शाम और दिन ऐसे ही निकल जाते हैं... जिनका कोई लेखा जोखा नहीं हो सकता.

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  2. जीवन का लेखा जोखा ही तो है यह...!
    सच, जीवन होता ही कितना है!
    सुन्दर अभिव्यक्ति!

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  3. हर रात दिन की समीक्षा, हर दिन रात आने का डर...ऐसे ही जीवन बहा जा रहा है..

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  4. करीब से लिखी गई कविता, आभार..

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  5. ज़िन्दगी तो पल पल नए रूप लेती है ... सफ़र का विशवास बना रहे , यही ज़रूरी है

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  6. सरल शब्दों से अपनी बात बखूबी कहती कविता.. हालांकि निराशावादी स्वर है, लेकिन यह भी जीवन का एक रूप है..

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  7. कितनी आसानी से जिंदगी का सच कह दिया आपने..

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  8. सच है चाल पल ही बस ... और ऐसे में लेखा जोखा भी एक पल तो ले ही जाता है कम से कम ... पर शायद ये न हो तो चार पल बिताने भी आसान न हों ...

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  9. कविता का अंतिम छंद, डूबती हुई साँझ के साथ बीतते हुए दिन का एहसास और एक धूमिल होती आशा.. ऐसे में अचानक आपके अनुज सलिल का आपके ब्लॉग पर आगमन और यह सब कहना.. क्या आपको लगता नहीं कि समाप्त होने से पहले ये दिन आपकी आशाओं को एक चमक दे गया!!
    दीदी, आपकी कवितायें सचाई के इतने करीब होती हैं कि बस दिल से महसूस करें तो सामने आकर बैठ जाती हैं.. जैसे आज, अभी!!
    प्रणाम!!

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  10. सचमुच ,बुझते हुए दीपक में जैसे कोई घी डाल देता है, आपकी टिप्पणियाँ वही काम करतीं हैं । ब्लाग पर आप सबका आना एक नया उत्साह देता है ।

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  11. सुंदर भाव और शब्दों का मेल...

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  12. अच्छे से महसूस कर सकता हूँ मैं कविता को!!

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