रविवार, 9 सितंबर 2012

दर्द को सोने न देना ।


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यह 19 वर्ष पहले की बात है । सातवीं कक्षा एक का मासूम छात्र एक दिन स्कूल में अपने शिक्षक द्वारा पूछे गए सवाल का सही उत्तर देकर आत्म-विश्वास से भर उठा था ।
सवाल गणित का था । कक्षा में केवल एक वही था जिसने सही उत्तर दिया था । शिक्षक ने मुस्करा कर शाबाशी देने की बजाय उससे कहा कि ठीक है , चलो अब सबको एक-एक थप्पड लगाओ ।
सबको यानी अपने सभी सहपाठियों को । वह सीधा-सादा छात्र लडाई-झगडे से दूर रहने व सहपाठियों को अपना दोस्त मानने के अलावा डरता भी था । पर सबसे बडी बात तो यह थी कि वह इसे बिल्कुल गलत मानता था । अगर छात्र सवाल का जबाब नही दे पाए तो खुद सर को ही उन्हें दण्ड देना चाहिये न । वह अपने सहपाठियों को भला कैसे थप्पड मारता ,सो लडखडाती सी जुबान में बोल पडा---"सर मैं कैसे.?..क्यों ....??"
"अच्छा ! कैसे....!" बच्चे के कक्षाध्यापक ने आँखें निकाल कर कहा--- "आ देख मैं बताऊँ ! ऐसे...।" और उन्होंने बच्चे के गाल पर जोर का थप्पड लगा दिया ।
बच्चे को चोट लगी । गाल पर लगी तो लगी पर मन पर जो चोट लगी उसका दर्द बहुत गहरा हुआ । 'आखिर मुझे थप्पड क्यों मारा सर ने ? मैंने तो सही जबाब दिया था । क्या सही जबाब का ऐसा इनाम मिला करता है ?
इस बात को वह वर्षों तक नही भूल पाया । शायद आज तक भी उसे मलाल है कि आखिर लोग सही उत्तर को मान क्यों नही देना जानते । क्या इससे गलत और झूठे जबाबों की राह नही खुल जाती ?
वह बच्चा कोई और नही मन्नू (विवेक) था । जो आज 30 वर्ष का होगया है ,उस दर्द को भुलाने की  नाकाम कोशिश करता हुआ । मुझे मालूम है कि यह कोशिश बेकार ही होती है । सहृदय सरल व्यक्ति संवेदना को दरकिनार करके बहुत दूर तक सहज नही रह सकता । जो झूठ बोलना नही जानता वह कोशिश भी करता है तो पकडा जाता है ।
फिर कोशिश करने की जरूरत ही क्या है । दर्द कायम  रहे और वह रचनात्मक रूप लेता रहे , सकारात्मक रूप में व्यक्त होता रहे ।
अनन्त शुभ-कामनाओं व स्नेह के साथ यह कविता भी आज मन्नू और मन्नू जैसे हर सच्चे ,ईमानदार और संवेदनशील व्यक्ति के लिये है जो कहीं न कहीं निराश होकर विचारों का प्रवाह बदलने की कोशिश करता है -----

" याद रखो ,
दर्द को आबाद रखो ।
दर्द , जो होता है सही सवाल के
गलत जबाब का  ।
दर्द जो बनावटी व्यवहार और
झूठे हिसाब का ।
दर्द ,जो सरलता पर
छल के वारों का है
दर्द ,जो आँगन में उठती दीवारों का है
दर्द ,जो अन्याय की जीत का है
दर्द ,जो 'गोंडवी' के गीत का है ।
दर्द ,जो उठता है
अखबार की सुर्खियाँ  पढने पर
दर्द ,जो होता है खुले आसमान तले
राशन के सडने पर ।
दर्द ,जो जगा देता है ,
'अलार्म की तरह ।
दर्द जो चलाए रखता है
गंतव्य तक पहुँचने के 'चार्म' की तरह ।
इस दर्द को सोने न देना ।
यह पूँजी है जीवन की ,
दौलत है दुनिया की
इसे खोने न देना ।"

9 टिप्‍पणियां:

  1. बढ़िया सीख देती रचना .... शिक्षक ने एक गलत उदाहरण रखा ...

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  2. जिन प्रश्नों का उत्तर न मिले, वे ताउम्र साथ बने रहते हैं।

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  3. दीदी,
    आपकी पोस्ट हमेशा कुछ नया सिखाती है.. खैर इस पोस्ट के पहले हिस्से पर:
    "_मैं तब सातवीं में पढ़ता था . एक दिन अंग्रेज़ी के टीचर को मुझ पर इतना गुस्सा आया की उन्होंने आव देखा न ताव लगे अपने प्रिय हथियार से मेरी धुनाई करने . उनका प्रिय हथियार न तो छड़ी थी ना लात घूँसा . जानते हैं उनका हथियार क्या था? उनका हथियार था- बेल्ट . पीठ से पैर तक लगभग सौ निशान . लंच में अपने भैया को दिखाया और घर पर मम्मी को बताया . मम्मी ने सबसे पहले कारण पूछा . कारण कुछ होता तो बताता . उसके बाद मम्मी ने उनकी क्लास ली . आज का समय होता तो हफ़्तों न्यूज में छाया रहता . गुरुदेव का क्या होता वह तो राम जाने . मैं पढने में कमजोर था मगर अनुशासित बच्चा था . अनमने ढंग से पढ़नेवाला
    बच्चा बिलकुल ही अनमना हो गया पढाई के प्रति ."
    /
    यह मेरे छोटे भाई के अनुभव हैं. आगे उसके ब्लोग पर
    http://shashipriyavarma.blogspot.in/2011/07/blog-post.html
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    दर्द के बारे में जैसा आपने बताया वो सही है.. इतना दर्द बिखरा है कि वो आक्रोश बन गया है... आक्रोश जो तेज़ाब की तरह दिखता है अदम गोंडवी की गज़लों में.. यही दर्द तो सबसे बड़ी ताकत है, इसे सुला दिया तो पूरी एक नस्ल सो जायेगी..
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    बहुत ही सुन्दर और प्रेरक!!

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  4. बहुत ही अच्छा विषय है. दर्द पालना आसान नहीं होता. कई बार लोग उसे सहानुभूति के लिए इस्तेमाल कर लेते हैं और कई बार अपनी लाचारी मान कर खुद को कमतर महसूस करते हैं लेकिन सही मायनों में दर्द शक्ति का रूप है.
    "ज़िन्दगी में जिस कदम सहा मैंने दर्द है, वही दर्द बना दवा आज मेरा गर्व है".

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  5. बहुत अच्छा लिखा हैं माँ! संवेदनशीलता को परिभषित नहीं किया जासकता क्यूँ कि जो इन्हें परिभाषित कर सकते हैं (सम्वेधानशील लोग) उनके पास अभिव्यती नहीं होती!

    हर बच्चे कि मानसिकता, सहनशीलता, मानसिक स्तर अलग अलग होता है! हर बच्चे का चीजों को समझाने का तरीका अलग होता है! ऐसे में अगर शिक्षक सभी छात्रों को एक ही तरीके से पढ़ाये फिर वो छात्रों को समझ में आये या ना आये, तो वो गलत होगा! और उनको अधिकार नहीं की वो बच्चों के ऊपर हाथ उठाये! हाँ थोड़ा दर जरूरी है पर अगर दर मार का हो तो कुछ छात्रों की मानसिकता कुंठित कर सकता है! कुछ छात्र ऐसे भी होते हैं जो धीट हो जाते हैं, कारन उनका घर का माहोल या पढाई लिखाई की कम महत्ता...... ऐसे बच्चों को मर के तो ठीक नहीं किया जा सकता!

    हो सकता है मर का डर सही हो और बहुत लोग इस पर बहस भी कर सकते हैं पर मुझे लगता है की अगर इसके कारन किसी बच्चे के मानसिक विकास पर असर पड़े तो ठीक नहीं होगा! खामियां ज्यादा हैं मार के डर की अगर सभी छात्रों के एक ही तरीके से सिखाया जाये! दर्द जीवन के शंघर्ष में ही ठीक लगता है शिक्षा के तरीकों से उत्पान नहीं!.

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  6. बहुत ही सुन्दर पोस्ट है और बहुत प्रेरक भी...
    इसी तरह का एक वाकया मेरे साथ हुआ था, लेकिन वो दिलचस्प था....जब मैं आठवीं कक्षा में था, और मेरे टीचर ने कुछ प्रशन पूछे थे..मैंने सबका सही जवाब दे दिया था, और बाकी जिन्होंने जवाब नहीं दिया, वो खड़े थे...टीचर ने मुझसे कहा की बताओ इन लड़कों को क्या सजा देनी चाहिए..मैंने कहा, सर मैं क्या बताऊँ...उन्होंने फिर कहा...जल्दी बताओ क्या सजा देनी चाहिए, नहीं बताओगे तो तुम्हे खड़ा रहना पड़ेगा...मैं चुप ही रहा..और सर ने मुझे खड़ा कर दिया...और फिर तुरंत बाद लेकिन बैठा भी दिया ये कहकर की वो मजाक कर रहे थे!फिर बाद में छुट्टी के समय उन्होंने मुझे एक चोकलेट दिया!!

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