Wednesday, November 14, 2012
Monday, November 12, 2012
Saturday, November 3, 2012
करवा-चौथ स्पेशल
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न मेंहदी न महावर । न नए बेंदी-बिछुआ । कुन्ती सुहागिन है और कल ही करवा-चौथ व्रत था । मुझे पता है कि कुन्ती व्रत करती है और बडे चाव से साज सिंगार भी । गहने चाहे कांसे-पीतल के ही क्यों न हों वह नए ही पहनती है । पैरों में खूब गहरा महावर और हाथों में मेंहदी की टिकुलियाँ, छन छन करते बिछुए-पाजेब साँवली-सलौनी कुन्ती को और भी सलौनी बनाते हैं ।
कुन्ती हर साल माटी के 'करवा' देने आती है । गर्मियों में मटके-सुराही, महालक्ष्मी पूजा पर हाथी और दीपावली पर 'दिये-सरैया' लाने का दायित्त्व उसी ने ले रखा है मजाल क्या कि ये सामान मैं किसी और से ले लूँ । वह आँगन में बैठकर इस बात की अधिकार के साथ शिकायत करती है तब कुछ देकर उसे सन्तुष्ट करना ही होता है और यह वादा भी कि आइन्दा किसी और से ये चीजें हरगिज नही लूँगी ।
कुन्ती हर साल की तरह जब सुबह रात की पूजा का प्रसाद और खाना लेने आई तो उसे देख कर मुझे फसल कटे खेत जैसा अहसास हुआ । आँखें लाल व पलकें सूजी हुई सी थीं । यही नही आज उसने न साडी माँगी न ही सब्जी व पकवानों के विषय में पूछा । बस मायूस सी आँगन में आकर बैठ गई । यह देख मुझे अचरज के साथ कुछ खेद भी हुआ ।
"क्या हुआ कुन्ती, तूने करवा-चौथ की पूजा नही की ?"
"मैंने करवा-चौथ पूजना छोड दिया है दीदी ।" वह सपाट लहजे में बोली ।.मुझे हैरानी हुई । झिडकने के लहजे में बोली--
"अरे पागल, सुहाग के रहते यह व्रत कही छोडा जाता है !"
"कैसा सुहाग दीदी ?"--उसने निस्संगता के साथ कहा --"जिसे अपना होस नही रहता । रोज पीकर आजाता है । कभी यह भी नही सोचता कि हम भूखे सोरहे हैं कि बच्चों के पास नेकर-चड्डी भी है कि नही । चलो जे सब तो सालों से चल रहा है दीदी पर आदमी यह तो सोचे कि जो औरत उसके लिये दिन भर भूखी-प्यासी रह कर 'बिरत' करती है ,उस दिन उससे कुछ नही तो कडवा तो न बोले । मार-पीट तो न करे । दीदी, मेरे लिये तो यही जेवर समान है कि वह दो बोल 'पिरेम' के ही बोल दे । भले ही कोई काम धाम न करे पर मुझसे खुश तो रहे । पर ना ,उसे उसी दिन नंगा नाच करना है । जब तक आँसू नही गिरवा लेता उसे चैन नही । तो फिर क्यों भूखी-प्यासी मरूँ उसके लिये ? सो मैंने तो ....।" इतना कहकर वह फफककर कर रोने लगी । मैं निःशब्द खडी उसकी पीडा के प्रवाह को देख रही थी । व्रत न करने का संकल्प जहाँ उसके साहस व स्वाभिमान का प्रतीक था वहीं आँसुओं का सैलाव उसके स्नेहमयी वेदना की कहानी कह रहा था ।
"क्यों रोती है जसोदा ! ऐसे दुष्ट आदमी से तो आदमी का न होना....।"
औरत की मारपीट और अपमान मुझे इतने विरोध व रोष से भर देता है कि मेरे मुँह से निकल पडा होता कि ऐसे पति से तो स्त्री पति-विहीना ही भली है पर उसने तडफ कर बीच में ही मेरी बात काटदी---
"ना दीदी ,ऐसा न बोलो । वह जैसा भी है बैठा रहे । उसका बाल भी न टूटे । उसी के कारण तो मैं सुहागिन कहलाती हूँ । बिना 'पती' के औरत की जिन्दगी का ( क्या) है दीदी । कौन उसकी इज्जत करता है !"
कहाँ तो करवाचौथ का व्रत आज जेवर और मँहगे उपहारों का तथा पत्नी के प्रति पति के स्नेह व समर्पण का प्रतीक और पर्याय बन गया है और कहाँ निष्ठुर-निकम्मे पति की कुशलता व उसके दो स्नेहभरे बोलों में ही सब कुछ पा जाने वाली जसोदा की व्यथा-वेदना । मुझे लगा कि कुन्ती का व्रत दिन भर भूखी-प्यासी रहकर चाँद की पूजा करने वाली सुहागिनों कहीँ ज्यादा ऊँचा है ।
न मेंहदी न महावर । न नए बेंदी-बिछुआ । कुन्ती सुहागिन है और कल ही करवा-चौथ व्रत था । मुझे पता है कि कुन्ती व्रत करती है और बडे चाव से साज सिंगार भी । गहने चाहे कांसे-पीतल के ही क्यों न हों वह नए ही पहनती है । पैरों में खूब गहरा महावर और हाथों में मेंहदी की टिकुलियाँ, छन छन करते बिछुए-पाजेब साँवली-सलौनी कुन्ती को और भी सलौनी बनाते हैं ।
कुन्ती हर साल माटी के 'करवा' देने आती है । गर्मियों में मटके-सुराही, महालक्ष्मी पूजा पर हाथी और दीपावली पर 'दिये-सरैया' लाने का दायित्त्व उसी ने ले रखा है मजाल क्या कि ये सामान मैं किसी और से ले लूँ । वह आँगन में बैठकर इस बात की अधिकार के साथ शिकायत करती है तब कुछ देकर उसे सन्तुष्ट करना ही होता है और यह वादा भी कि आइन्दा किसी और से ये चीजें हरगिज नही लूँगी ।
कुन्ती हर साल की तरह जब सुबह रात की पूजा का प्रसाद और खाना लेने आई तो उसे देख कर मुझे फसल कटे खेत जैसा अहसास हुआ । आँखें लाल व पलकें सूजी हुई सी थीं । यही नही आज उसने न साडी माँगी न ही सब्जी व पकवानों के विषय में पूछा । बस मायूस सी आँगन में आकर बैठ गई । यह देख मुझे अचरज के साथ कुछ खेद भी हुआ ।
"क्या हुआ कुन्ती, तूने करवा-चौथ की पूजा नही की ?"
"मैंने करवा-चौथ पूजना छोड दिया है दीदी ।" वह सपाट लहजे में बोली ।.मुझे हैरानी हुई । झिडकने के लहजे में बोली--
"अरे पागल, सुहाग के रहते यह व्रत कही छोडा जाता है !"
"कैसा सुहाग दीदी ?"--उसने निस्संगता के साथ कहा --"जिसे अपना होस नही रहता । रोज पीकर आजाता है । कभी यह भी नही सोचता कि हम भूखे सोरहे हैं कि बच्चों के पास नेकर-चड्डी भी है कि नही । चलो जे सब तो सालों से चल रहा है दीदी पर आदमी यह तो सोचे कि जो औरत उसके लिये दिन भर भूखी-प्यासी रह कर 'बिरत' करती है ,उस दिन उससे कुछ नही तो कडवा तो न बोले । मार-पीट तो न करे । दीदी, मेरे लिये तो यही जेवर समान है कि वह दो बोल 'पिरेम' के ही बोल दे । भले ही कोई काम धाम न करे पर मुझसे खुश तो रहे । पर ना ,उसे उसी दिन नंगा नाच करना है । जब तक आँसू नही गिरवा लेता उसे चैन नही । तो फिर क्यों भूखी-प्यासी मरूँ उसके लिये ? सो मैंने तो ....।" इतना कहकर वह फफककर कर रोने लगी । मैं निःशब्द खडी उसकी पीडा के प्रवाह को देख रही थी । व्रत न करने का संकल्प जहाँ उसके साहस व स्वाभिमान का प्रतीक था वहीं आँसुओं का सैलाव उसके स्नेहमयी वेदना की कहानी कह रहा था ।
"क्यों रोती है जसोदा ! ऐसे दुष्ट आदमी से तो आदमी का न होना....।"
औरत की मारपीट और अपमान मुझे इतने विरोध व रोष से भर देता है कि मेरे मुँह से निकल पडा होता कि ऐसे पति से तो स्त्री पति-विहीना ही भली है पर उसने तडफ कर बीच में ही मेरी बात काटदी---
"ना दीदी ,ऐसा न बोलो । वह जैसा भी है बैठा रहे । उसका बाल भी न टूटे । उसी के कारण तो मैं सुहागिन कहलाती हूँ । बिना 'पती' के औरत की जिन्दगी का ( क्या) है दीदी । कौन उसकी इज्जत करता है !"
कहाँ तो करवाचौथ का व्रत आज जेवर और मँहगे उपहारों का तथा पत्नी के प्रति पति के स्नेह व समर्पण का प्रतीक और पर्याय बन गया है और कहाँ निष्ठुर-निकम्मे पति की कुशलता व उसके दो स्नेहभरे बोलों में ही सब कुछ पा जाने वाली जसोदा की व्यथा-वेदना । मुझे लगा कि कुन्ती का व्रत दिन भर भूखी-प्यासी रहकर चाँद की पूजा करने वाली सुहागिनों कहीँ ज्यादा ऊँचा है ।
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