शुक्रवार, 4 जनवरी 2013

29 दिसम्बर 2012 की कविता


माँ, सुनो--2
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.....और अन्ततः
मैं जिन्दगी से हार गई
जीत कर बोलो माँ ,
मैं करती भी क्या  
क्षत-विक्षत मेरा तन...मन
रोम-रोम...जर्जर
नही चल पाता दूर तक 
पीठ पर लादे ।
वीभत्स और बर्बर 
घटना के भयानक अनुभव का बोझ 
एक घिनौनी जोंक सा वह प्रत्यय
चिपका रहता 
चमडी से लेकर 
मांस-मज्जा तक 
कुरेदता रहता घाव 
रिसता रहता खून मवाद
जीती रहती मर मर कर प्रतिपल
दया और सहानुभूति 
नही सुला पातीं 
रात के सन्नाटे में चीखतीं ,सिसकतीं 
मेरी पीडा को ।
पल-पल मरते हुए वर्षों जीने से 
बेहतर है एक सार्थक, सोद्देश्य, मृत्यु ।
अब मेरी केवल मृत्यु नही बलिदान है माँ 
तुम आँसू मत बहाओ । 
मेरे बलिदान को तो पूर्णाहुति  बनाओ
क्रान्ति के महायज्ञ की 
इसे  रणभेरी की तरह बजाओ
सुनाओ आसमान तक...। 
माँ, आज मैं अकेली ,निरीह, 
हारी या बेचारी  एक लडकी हरगिज नही, 
वो.... देखो ...यहाँ, वहाँ 
जहाँ कहीं ,
बरस रहीं हैं आँखें 
सुलग रहीं हैं शाखें ।
मेरे कारण ही तो 
आज पूरा देश खडा है
मेरे लिये सडक पर अडा है । 
अकेली असहाय 
माँ , अब कहाँ हूँ मैं निरुपाय ?
आँसू और अंगारे भरे 
उठे हैं हजारों हाथ ,एक साथ 
तुमुल घोष करते हुए 
अन्याय के विरोध में ।
यही तो सबूत है एक देश और समाज के 
जीवित..., जीवित और जाग्रत होने का ....।
और ...मैं भी तो जीवित ही  हूँ
विशाल जन सैलाब में
उफनते हुए 
जोश और ताव में ।  
माँ ,उठो...
नमन करो उस हर जिन्दा इन्सान को 
जो खडा है अंगद के पाँव की तरह 
ललकारता हुआ 'असुर' को 
हानि-लाभ के गणित से परे ।
माँ , मैं बस अब चैन की नींद सोना चाहती हूँ
इस विश्वास के साथ कि 
अब सब बेटियों की इज्जत बचाएंगे
उनका सम्मान करेंगे और करना सिखाएंगे 
माँ ,....कहो तो,
मेरा विश्वास बना रहेगा न ?
मुझे सच्चा न्याय मिलेगा न ?
माँ , कहदो मेरे देशवासियों से ..
कि उन अत्याचारियों को 
मनचाही सजा तो दिलवा कर दम लेना ही 
लेकिन हरगिज मत सोच लेना कि ,
लडाई खत्म होगई है 
या जहर की तासीर कम होगई है, 
कमजोर न पडने देना कभी
मुझसे हुए इस मोह को 
सीने में धधकते इस विद्रोह को ।
समझना होगा कि,
ऐसे सिलसिले अभी तो आम हैं 
व्यभिचार ,हत्या या बलात्कार  परिणाम हैं 
कुसंस्कारों या विकृति के ही नही 
बाज़ारवादी मानसिकता के भी आयाम हैं ।
बाजार में जो बिकता है ..।
गलत या अश्लील हो ,पर धडल्ले से चलता है 
भट्ट या जौहर की फिल्मों की तरह
बाज़ार, जहाँ लाभ ही साध्य होता है ।
विज्ञापन व मनोरंजन के लिये बाध्य होता है 
नारी का शरीर ...।
क्यों नही चल सकता बाजार 
बिना नारी के देह प्रदर्शन के 
मिटानी होगी ऐसी मानसिकता भी 
जो उसकी अस्मिता का अपमान है 
उसे महज साधन माना जाना भी 
व्यभिचार के मार्ग का संधान है । 
माँ ,कहो मेरे देशवासियों से 
मुझे शान्ति नही मिलेगी 
सिर्फ मोमबत्तियों या फूलमालाओं से 
राजनीति की झूठी कार्यशालाओं से
मुझ पर हुए अत्याचार का प्रतिकार
होगा ,जब बदलेंगे दृष्टिकोण और विचार
केवल कानून ही नही व्यवहार भी      
हर घटना के होते हैं अनेक  कारण ।
कारणों के भी खोजने होंगे निवारण 
लडना होगा सबको अनवरत 
समाज से कानून से और...अपने आप से भी ।
मुझे न्याय दिलाने ...
माँ , इस तरह रोओ नही ।
रोकर भला , लडाइयाँ जीती जातीं हैं कभी !!!

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8 टिप्‍पणियां:

  1. रोकर शोक मनाया जाता है, आँसू सूखने के बाद ही जीवन राह पाता है।

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  2. बदलना ही होगा दृष्टिकोण
    कानून ही नहीं
    व्यवहार भी।

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  3. सुंदर संवाद, उम्दा रचना।
    ...नयी उम्मीदों के साथ नववर्ष की शुभकामनाएँ !!

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  4. मार्मिक....
    आँख भर आयी...मगर क्या रोकर लड़ाइयां जीती जातीं हैं कभी??

    सादर
    अनु

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  5. रोकर भला लड़ाइयां जीती जाती हैं कभी ...
    बिल्‍कुल सच ...

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  6. दीदी,
    वो.. जो भी नाम था उसका.. भारत माँ की बेटी थी.. उसके गले से आवाज़ नहीं निकल रही थी.. वह अपनी बात कहना चाहती थी, अपनी लड़ाई लड़ना चाहती थी.. आपकी कविता ने उसे स्वर प्रदान किया है.. अगर वह बोल पाती तो सचमुच यही कहती..
    कविता पढते हुए, चूँकि मैं कवितायें सस्वर पढ़ता हूँ, गला रूंध गया मेरा.. दीदी, यह कविता दिल को छूटी है और दर्द का एहसास कराती है!!
    मन भर गया!!

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  7. दर्द का एहसास कराती उत्कृष्ट मार्मिक रचना,,,,

    recent post: वह सुनयना थी,

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  8. अफ़सोस !
    मार्मिक, संवेदनशील कविता!

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