बुधवार, 13 फ़रवरी 2013

सर्वव्यापक


श्वास में ,प्रश्वास में तुम हो 
आस में विश्वास में तुम हो 
अश्रु में या हास में तुम हो 
दो दृगों की प्यास में तुम हो ।

उत्साह का स्फुरण हो 

सम्पूर्णता का वरण हो 
अन्तर के स्वर्णाभरण हो
आराध्य हित जागरण हो ।
वेदना तुम हो, तरल संवेदना तुम हो
देह संज्ञाहीन मैं हूँ ,चेतना तुम हो ।

चुभ रहे हों शूल 

या फिर खिल रहे हों फूल
तुम बसे हर भाव 
पश्चाताप हो या भूल ।
दृष्टि में तुम हो 
चिरंतन सृष्टि में तुम हो 
तप रही हो जब धरा 
घन वृष्टि में तुम हो ।
जीत में हो तुम 
हदय की हार में भी तुम 
उलाहनों में भी , 
मधुर मनुहार में भी तुम ।

विश्व में तुम हो 

अखिल अस्तित्व में तुम हो ।
कोई भी देखले चाहे
हृदय के स्वत्व में तुम हो । 
दर्द में हो तुम 
कि मीठी राहतों में तुम 
धडकनें जिनसे बढें 
उन आहटों में तुम ।

याद में भी हो 
मधुर संवाद में भी हो 
जटिल नीरस निबन्धों के 
सरस अनुवाद में भी हो ।
सभी हालात में तुम हो 
सभी जज़बात में तुम हो 
नही हूँ मैं कहीं कुछ भी 
मेरी हर बात में तुम हो ।

15 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति.
    मेरे ब्लोग्स संकलक (ब्लॉग कलश) पर आपका स्वागत है,आपका परामर्श चाहिए.
    "ब्लॉग कलश"

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  2. वही वही तो है सब ओर...सुंदर प्रस्तुति..

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  3. याद में भी हो
    मधुर संवाद में भी हो ...
    ...
    नि:शब्‍द करते भाव रचना के
    सादर आभार

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  4. न ढूढ़ूँ, तुम चहुँ ओर हो,
    ढूढ़ूँ, तुम छिपे किधर हो

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  5. हर जगह तुम हो....
    और कहाँ कहाँ नहीं खोजा किये हम...उम्र गुज़ार दी सारी....

    सादर
    अनु

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  6. सर्वव्यापी है वो.....
    बहुत सुंदर वर्णन ..!
    ~सादर!!!

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  7. उस सर्वशक्तिमान को नमन ...... अद्भुत भाव लिए हैं आपकी पंक्तियाँ

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  8. अपने पे सितम गैरों पे करम ...
    वाह ..
    बधाई एक मुक्त रचना के लिए

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  9. प्रेम ईश्वर का सत्य रूप है ....

    जहां प्रेम नहीं ईश्वर भी नहीं ....

    एक सशक्त कविता ...!!

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