शनिवार, 9 फ़रवरी 2013

सपने पतझर-पात होगए



ठूँठे से दिन-रात होगए ।
झूठे से जज़बात होगए ।
अरमां पंख--विहीन पडे हैं 
सपने पतझर पात होगए ।

जब सब था स्वीकार तुम्हें,
हर मुश्किल आसां थी ।
अब हर रोडा पर्वत सा,
हर राह बियाबां सी ।
अन्तहीन सी बाट रही 
और कितने-कितने घात होगए ।
सपने पतझर पात होगए ।

जिनको पढकर भोर 
महकने लगती थी आँगन ।
शाम सुनहरे शिलालेख
लिखती कोरे से मन ।
जीवन के वे गीत पत्र 
अब तो सपनों की बात होगए ।
सपने पतझर पात होगए ।

एक नदी उतरी थी 
कहाँ हुई गुम ,नही पता ।
 सजा सुनादी सूरज ने भी 
समझे बिना खता ।
सन्नाटे का शोर मचा है 
कैसे ये हालात होगए ।
सपने पतझर पात होगए

4 टिप्‍पणियां:

  1. कुछ न रहने से, कुछ न कुछ रहने के भाव में ही जाना होता है..

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  2. अच्छे गीत में कुछ शब्द खटक रहे हैं। जैसे और..अब तो..मैने तो बिना इसके गाया और अच्छा लगा।

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  3. अरमां पंख विहीन पड़े हैं ...

    शायद यही जीवन है !!

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