शुक्रवार, 5 अप्रैल 2013

अधिकारी विधाताय भवः


पहले हमारा विचार था कि 'अतिथि देवो भवः' की तर्ज पर 'अधिकारी देवो भवः' लिख कर सबको ,खास तौर पर अपने अधिकारी को चकित ,हर्षित और विस्मित कर सकेंगे । लेकिन अब महसूस हुआ है कि वह हमारा निरा 'बौड़मपना' था । 
अधिकारी की तुलना देव से नही की जासकती । देवों का क्या ,जरा फूल पत्ते और प्रसाद चढ़ाया ,भोग लगाया , "भाव-कुभाव अनख आलसहू" स्तुति बोलते हुए अगरबत्ती जलाकर चारों ओर घुमाई और देवता प्रसन्न ।

 अरे हाँ....देवताओं के प्रसन्न होने की बात से याद आया कि शिवजी बड़े विचित्र देव हैं ,'आशुतोष' हैं । उनके 'आशुतोषपने' से ब्रह्माजी भी उकता गए कि यह क्या ,शिवजी तो जरा नाम लेने पर ही प्रसन्न होजाते हैं और लोगों का उद्धार कर देते हैं । ब्रहमा जी आखिर पार्वती को अपना दुखड़ा सुनाते हैं कि हे भवानी तुम्हारा पति तो बावला होगया है । अरे जिनके भाग्य में कभी कोई सुख था ही नही ,उन्हें स्वर्ग भेजते भेजते मैं तो तंग आगया हूँ ।"
( "बावरो रावरो नाह भवानी
..जिनके भाग्य लिखी लिपि मेरी सुख की नही निशानी ,
तिन रंकनि कौं 'नाक' सँवारत हों आयौ नकबानी ।" ) 
सो राम भजो । जो आसानी से प्रसन्न होजाए वह कैसा अधिकारी !! नाराज होना और जब तक मन चाहे, नाराज बने रह कर अपने मातहत को बेचैन बनाए रखना तो अधिकारी होने का पहला प्रमाण है और मौलिक अधिकार भी ।
अधिकार से याद आया कि अधिकारी के अधिकार तो अनन्त हैं । राई को पर्वत और पर्वत को राई कर सकने जितने । 
वे अपने 'मूड' के अनुसार (मनोदशानुसार) ही अपने कर्मचारी से व्यवहार करने के लिये पूर्ण स्वतन्त्र हैं . लेकिन  ,'वह मूड हमेशा कर्मचारी के विचार-व्यवहार से तय होता है' --अगर आप ऐसा सोचते हैं तो आपकी बुद्धि पर तरस खाया जासकता है । अधिकारी का 'मूड' तो अपने आप ही जाने कब किस वायुमण्डल से शिरीष की तरह ( बकौल आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी) 'रस' खींच लेता है और कर्मचारी पर उँडेल देता है ।
वह रस तीखा भी हो सकता है और कडवा ,कसैला या खट्टा भी . ( मधुर रस तो उसी तरह दुर्लभ होता है जैसे टी.वी. चैनल्स पर किसी स्तरीय धारावाहिक या फिल्म का प्रसारण )। 
अच्छे मूड में अधिकारी आपको हाथी पर भी बिठा सकता  है, पर इसके लिये खुश होने की कतई जरूरत नही है क्योंकि कब आपकी जगह हाथी के पाँव तले होगी किसी को कुछ पता नही । 
मतलब कि कर्मचारी की डोर पूरी तरह अधिकारी के हाथ में होती है । वह जब चाहे आपको कठपुतली की तरह नचा सकता है . कुत्तों की तरह दुत्कार सकता है . अच्छा काम करने के बाद भी आपको अयोग्य ठहरा सकता हैं । किसी भी मुद्दे पर आपसे स्पष्टीकरण माँग सकता है । सी.आर. खराब कर सकता है । पाँच मिनट की देर के लिये पूरे दिन का वेतन काट सकता है । और सवाल करने पर आप पर कठोर अनुशासनात्मक कार्यवाही भी कर सकता है । और हाँ ,बहुत ही आवश्यक छुट्टी के लिये भी दो टूक मना कर सकता है । 
जी हाँ छुट्टियाँ आपको शासन द्वारा दी गईं हैं और छुट्टी लेना आपका अधिकार है ,ऐसा सोचने की भूल, भूल कर भी न कर बैठें क्योंकि छुट्टी आपको अधिकारी की मर्जी के बिना हरगिज नही मिल सकतीं । फिर आपकी बेटी हास्पिटल में भर्ती हो या बडी प्रतीक्षा के बाद आपको किसी पर्वतीय स्थान पर भ्रमण करने का अवसर मिला हो ,अगर अधिकारी की दृष्टि बंकिम है तो मन मार कर रह जाने के अलावा आपके पास कोई चारा नही । 
ज्यादा 'रिक्वेस्ट' करने पर आपको यह भी सुनना पड सकता है कि ---
"क्या आपको मालूम नही कि सरकारी नौकरी चौबीसों घंटे की होती है ?".
कि "अरे जितना कमा रहे हो उतना तो निभाओ नौकरी से वफादारी करो ।"
कि "ना छुट्टी अभी तो नही मिलेगी ।"  
कि "अच्छा ,अभी दिमाग मत खाओ बाद में आना ।" 
और सावधान, अगर अधिकारी कुपित होगया तो आपकी मौजूदगी में ही आपको गैरहाजिर मान सकता है । और बाकायदा वेतन काट सकता है । 
कुछ समझे कि इससे निष्कर्ष क्या निकला ? 
यही न कि 'नौन तेल लकडी'  की तिकडम में अधिकारी की भूमिका किसी विधाता से कम नही है । इसलिये बन्धु ! अगर चैन से नौकरी करनी है तो अधिकारी को जैसे भी बन सके अनुकूल बना कर रखो । अपनी हड्डियों को नरम और लचीली बनाओ। खास तौरपर रीढ़ की हड्डी को ।
 हालांकि जैसा पहले ही कहा है कि अधिकारी को अनुकूल रखना देवाराधन जैसा आसान बिल्कुल नही है । आपकी पूजा अर्चना  ठुकराई भी जा सकती है फिर भी अपने बॅास के सामने 'छोटा बने जो ,वो हरि पाए ' का ही शाश्वत भाव  रखो । देर-अबेर पर्वत पिघलेगा ही इस सकारात्मक दृष्टि को धुँधली मत पडने दो और अपने बॅास को सदा "प्रनतपाल भगवन्ता" (तुलसीदास) मानो । याद रहे कि हर छोटा-बड़ा अधिकारी मौलिक रूप से 'प्रनत-पाल' ही होता है। (यह बात अलग है कि  कुछ तो अपने 'प्रनत' को भी धराशायी करने से नही चूकते .पर यह आपके याद रखने की बात हरगिज नही है )
और हाँ अधिकारी के लिये 'तन मन धन सब तेरा ,.तेरा तुझके अर्पण ' जैसा समर्पण भाव भी अनिवार्य है ।
याद रहे , अगर सेवा सफल होगई तो फिर आप निर्विघ्न नौकरी कर सकते हैं । अधिकारी के अलावा कोई 'ऐरा गैरा नत्थू खैरा' आपकी ओर वक्रदृष्टि नही फेंक सकता । गारंटी है एक सौ एक परसेंट ।

9 टिप्‍पणियां:

  1. :)
    बढ़िया शिक्षा दे रहे हो ...
    कुत्ता बनने की !
    :))

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  3. बेहद रोचक एवं अनुपम प्रस्‍तुति

    आभार

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  4. तुमहि हमारे, भाग्य निहारे,
    तुम प्रसन्न तो जगमग सारे।

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  5. सही है..... हर मन की व्यथा लिख दी आपने ( अधिकारीयों के मन को छोड़कर)

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  6. कमाल है दीदी! इसे कहते हैं व्यंग्य और व्यंग्य की धार! आम तौर पर लोग व्यंग्य और हास्य में भेद नहीं कर पाते और व्यंग्य का अर्थ कटुता और हास्य का अर्थ फूहड़ चुटकुले... मगर यह आलेख कीर्तिमान स्थापित कर रहा है! दीदी, मैं यह सोच रहा हूँ कि इस आलेख पर हँसूं या रोऊँ... क्योंकि मैं तो बीच का अधिकारी हूँ... अप्ने ऊपर के अधिकारी भी हैं और मातहत भी है कई! इसलिये रहिमन निज मन की व्यथा...!!

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    1. आपकी व्यथा को समझ सकती हूँ . हम लोग एक ही मिटटी के बने हैं . मातहत के रूप में अधिकारी से त्रास पाने और अधिकारी के रूप में मातहतों से मात खाने के लिए बने है . नियति है यह . बदली नहीं जा सकती . इसे लिखने के बाद महसूस हुआ कि व्यंग्य गहरी पीड़ा और बेवशी के पार की रचना होती है . आपने इसे पढ़ लिया मुझे तसल्ली हो गई .

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