बुधवार, 29 मई 2013

गर्मी और मन---कुछ व्यंजनाएं

(1)
चिलचिलाती धूप 
तमतमाया रूप 
मौसम का
दौडते हैं वाहन छाती पर
लगातार,, धुँआधार
खुद को बचाए रखने 
बार-बार...बेमन
यूँ बन गया है 
कोलतार की सडक जैसा मन
(2)
एक तरफ तो
गर्मी और लू द्वारा 
फटकारा गया।
दूसरी तरफ
शानदार ,वातानुकूलित भवनों के
दरवाजों से दुत्कारा गया
सडक के किनारे
किसी गुमठी की छाँव में
हाँफते
'शेरू' सा मन
(3)
शाम ढले 
रौंदी जाती है 
कितने पैरों तले
पर हौसले ,
कभी नहीं दले
कहीं से भी 
जरा सी नमी पाकर
सिर उठाती 
मुस्कराती दूब जैसा मन
(4)
किसी सफेदपोश नेता सा सूरज
जाने कितने सब्जबाग दिखाकर 
सोखता है
रोज ही आकर
तब, अस्मिता के प्रश्न पर
होती है गमगीन
फिर भी हरियाली के कालीन
बुनने में तल्लीन
क्षीणकाय मजदूरिन सी
नदी जैसा मन

सोमवार, 20 मई 2013

पथरीली राहों पर


19 मई 2013
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काकाजी (पिताजी) को गए तीन साल होगए । इन तीन सालों में मुझे अनुभव हुआ है कि वे जाने के बाद भी गए नही है ,वे पहले से कहीं ज्यादा  प्रभाव के साथ मौजूद हैं मेरी यादों में । उनके सामने मैंने उनकी ऐसी निकटता को  कभी अनुभव नही किया था । काश कर पाती ।  या कि काश उनके जाने के बाद उनकी यादों को पूर्णता के साथ व्यक्त कर पाती । अनुभूतियों को सही अभिव्यक्ति न दे पाना मेरी सबसे बडी असफलता है ।शायद कभी कर पाऊँ । अभी तो  बस यूँ ही उन्हें याद करते हुए कुछ लिख रही हूँ । उन्हें जानने के लिये कहानी जरूर पढें । साथ ही बचपन के मेरे कुछ और अनुभवों के लिये  वह कौन था .. भी पढें ।
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जब मार्ग दुर्गम हो, पथरीला, और ऊबड-काबड हो तब विश्राम और कोमल लालसाओं के लिये कहीं कोई जगह नही होती । लू, धूप,या बारिश का भय छोड देना पडता है । कंकड-पत्थरों के बीच ठोकरों  को अनदेखा कर देना पडता है और काँटों की पीडा को सहज स्वीकार करना होता है अन्यथा गन्तव्य तक पहुँचना संभव ही नही है ।
इसे मैं बहुत बाद में समझ पाई कि अगर काकाजी( पिताजी) ने राह, जो आसान बिल्कुल नही थीं ,तय करते--कराते अगर धूप कंकड और काँटों की परवाह नही की ,अगर घनी छाँव में बैठ कर कभी आराम करने का विचार नही आया तो वह हमारे प्रति (खुद के लिये भी ) निर्ममता नही थी बल्कि हमें गन्तव्य तक पहुँचाने की धुन थी । 
काकाजी को लीक से हटकर चलना पसन्द जो था । 
जिया (माँ )बतातीं हैं कि विवाह के बाद पिताजी ने परिवार की कुछ दुर्व्यवस्थाओं के प्रति विद्रोहवश उन्हें आगे पढाने और नौकरी कराने का निश्चय करके निश्चित ही एक कठिन राह चुनी थी । उनके लिये भी और अपने लिये भी । विद्रोह सुविधाजनक कहाँ होता है । परिजनों की दृष्टि में वे परिवार से लगभग बाहर होगए थे और बाहर उनके लिये कोई घनी छाँव नही थी कोई सरल समतल राह नही थी । नौकरी में आने पर माँ के लिये एक नए तरह का संघर्ष शुरु हो गया था । एक बीस--इक्कीस साल की महिला का जीवन के प्रारम्भ में ही नव-परिणीता की स्नेहमय सुन्दर जीवन की कल्पनाओं ,जेवर साज श्रंगार आदि के मोह को दरकिनार कर एक अनजान गाँव में अपनी जगह बना लेना आसान नही था । पर अँधेरी दीवारों के बाहर देखने का अनुभव भी तो कम सन्तोषप्रद नही होता ।

कंकड-पत्थरों वाली जमीन पर पेडों के नाम पर एक दो सिरस ,एक दो नीम तथा दो चार विलायती बबूल के पेड ही थे । बाकी हरियाली या तो नीचे खेतों में खडी फसलों में या फिर थोडी बहुत बरसात के समय दिखाई देती थी । जहाँ-तहाँ मनचाहे तरीके से बैठ गईं भेड-बकरियों की तरह बेतरतीबी से बने मकान थे । पानी के लिये चट्टानों से उतर कर नीचे जाना होता था । स्कूल गाँव के बाहर था । 
पिताजी माँ के गाँव से दूर बडबारी गाँव के प्राथमिक विद्यालय में पदस्थ थे ।
 बडबारी ग्वालियर-भिण्ड के बीच ( लेकिन मुरैना जिला) ,फैली पहाडियों पर बसे छोटे-छोटे गाँवों में से ही एक है । अब तो औद्योगिक विकास ने उस क्षेत्र की पूरी तस्वीर ही बदल डाली है लेकिन जाट और गूजरों की बहुतायत वाला यह गाँव तब बेहद पिछडा व सुनसान ही नही था , घोर अशिक्षा के साथ-साथ डकैतों की गिरफ्त में भी था । लोग बात-बात पर लाठी--फरसा और बन्दूक तान लेते थे । आजीविका के नाम पर चोरी--डकैती का विकल्प ही ज्यादा आसान लगता था । काकाजी जब पहली बार उस गाँव में पहुँचे तब लोगों को हैरत हुई कि सालों से शिक्षक विहीन पडी शाला में किसी ने आने का साहस किया । भला कैसे , क्यों । एक महिला ने तो पूछ भी लिया--,"का त्याही म्हातारी को तुम्हन्से मोह प्रीति नही थी ,जो ज्हां भेजि दए मरिबे के लएं । डेढ पसुरिया के हो । एक फूँक ते ई उडाइ देगौ कोऊ ..।" 
ऐसे में अगर सुनसान पडे स्कूल की घंटी की गूँज रोज सुबह चट्टानों को झंकृत करने लगी, अँधेरे में खोए मैले-कुचैले बचपन को धूप के सपने दिखाने लगी  । बच्चों को हाथ पकडकर स्कूल लाने लगी, स्कूल का प्रांगण फुलवारी से जगमगाने लगा और गाँव के हर घर--आँगन को काकाजी अपने लगने लगे तो यह उनके अविजित लक्ष्यों , उन्हें पाने के अनवरत प्रयासों और अथक परिश्रम का ही प्रतिफल था जो उस संघर्ष की तुलना में बहुत अधिक था जो उन्होंने अपनेआप से लडकर किया । उन्होंने वह पाया जो वो चाहते थे । एक सुशिक्षित पत्नी जो उनके साथ कहीं भी ,बराबर खडी हो सकती थी । काकाजी ऐसा ही सोचते थे और जो सोचते समझते थे उसी को उचित व आवश्यक भी मानते थे ।
पिताजी का तो ,"पट पाखें भख काँकरे सपर परेई संग ,सुखिया या संसार में एकै तू ही विहंग" ,वाला सिद्धान्त था ही ,माँ ने भी अपने आपको वैसे ही ढाल लिया था । उन्होंने कभी इस बात पर ध्यान नही दिया कि जिन्दगी चलते फिरते गुजर रही थी चार बर्तनों और दो जोड कपडों वाली गृहस्थी के साथ । और ऐसे ही चलते फिरते शुरु हुआ था हमारा बचपन । 
काकाजी ने आगे भी न केवल अपने लिये बल्कि हमारे लिए भी एक अलग राह चुनी और उस पर विश्वास के साथ चलने की प्रेरणा दी ।  शिक्षा के लिये उनमें जो दृढता व प्रतिबद्धता थी वह सचमुच हैरान ( कभी-कभी परेशान भी) कर देने वाली थी ।
जारी..........

शनिवार, 11 मई 2013

साँझ ढले

उम्र के चमकते दिन में माँ प्यारी ,पूजनीया ,अतुलनीया और न जाने क्या- क्या होती है लेकिन सूरज के ढलते ही माँ बोझ बन जाती है । उसके काँपते हाथ-पाँव रास्ते का अवरोध प्रतीत होते हैं । उसकी झुर्रियाँ सौन्दर्य-बोध के स्वाद को बिगाड देतीं हैं । उसके लिये घर बहुत छोटा पड जाता है ।यह दुनिया का एक कडवा यथार्थ है, एक निन्दनीय, वीभत्स यथार्थ । यह कविता, ऐसी ही हर माँ को समर्पित है जो मैंने  एक माँ को ही लक्ष्य कर सन् 1997 में लिखी थी ।
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साँझ ढले 
पिछवाडे जुगनू सी 
जलती है माँ ।
वक्त पडे हर साँचे में 
हँस कर ढलती है माँ ।

कितने बच्चे 
उसने पाले-पोसे बडे किये
पर बच्चों को 
एक अकेली ही खलती है माँ ।

रखती सबसे दबा-छुपाकर
फटा हुआ आँचल ।
कहीं अकेले में 
चुपचाप उसे सिलती है माँ ।

बच्चे ही तो हैं ,
समझेंगे आज नही तो कल ।
सबको समझाती है 
या खुद को छलती है माँ ।

जलन तपन गर्मी की पाकर
सूख सहम जाती ।
मिले जरा भी नमी 
दूब सी फिर खिलती है माँ ।

जेबें सिकुड हुई छोटी 
रिश्ते होगए मँहगे ।
किन्तु अभीतक वैसी ही 
सस्ती मिलती है माँ ।

बुधवार, 8 मई 2013

मन पंछी सा क्यों नही है ?


मन जहाँ भी रमता है 
पौधे की तरह जमता है
कहीं भी किसी भी ज़मीं
मिले जरा सी भी धूप और नमी  
फैल जातीं हैं जडें गहरे तक
बिना पूछे ,बिना जाने
अपनी अस्थिरता या 
अप्रासंगिकता अनुमाने
अँकुरातीं हैं टहनियाँ, 
पत्ते, कलियाँ फूल ,
होती है यही भूल 
बार--बार 
बना लेता है घर-द्वार
बिना पूछे ,बिना जाने 
पौधा  नहीं जानता  
ज़मी अपनी है पराई है ,
नहीं मानता  ..
इसलिये फैला लेता है जड़ें .
नहीं जानता कि 
ज़मीन  भी  होती है अपनी पराई 
समझ ही नहीं  पाता कि 
पौधे भी बनते है अवरोध 
किसी  राह में . 
उखाड़  दिये जाते हैं  ..
जैसे खरपतवार 
होता है यही , बार-बार
पौधा उखड़ने से जमीन में 
जख्म सा बनता है 
बिखरती माटी का दर्द कौन सुनता है !
फिर भी तो....
छोड़ता नही है मन 
जमीन से जुड़ना किसी पौधे की तरह
जाने क्यों छोड़ कर अपनी जड़ता
नही उड़ता ,
मन किसी पंछी की तरह ।