सोमवार, 14 अक्तूबर 2013

कहानी-सम्राट के बहाने

पिछला सप्ताह अपेक्षाकृत कुछ अलग और उल्लासमय रहा । आदरणीय श्री जगदीश तोमर जी ने कई माह पहले ही मुझे बता दिया था कि आपको उज्जैन चलना है । 
सेवा-निवृत्त प्राचार्य श्री तोमर 'सृजन-संवाद' के सम्पादक ,बाल-साहित्य के रचनाकार , निष्पक्ष व प्रबुद्ध समालोचक ,मध्यभारत हिन्दी-साहित्य सभा ग्वालियर के अध्यक्ष होने के साथ प्रेमचन्द सृजन पीठ उज्जैन के निदेशक भी हैं । कहानी व उपन्यास के सम्राट प्रेमचन्द की जन्मतिथि व पुण्यतिथि के अवसर पर सृजन पीठ द्वारा कथा-गोष्ठी ,कहानी लेखन प्रतियोगिता के साथ अन्य साहित्यिक गतिविधियाँ आयोजित की जाती हैं । 
मेरे अनिश्चय को देखकर वे बोले कि "अरे आपको तो आना चाहिये । अच्छा रहेगा ।" मैं यह जानकर आश्वस्त हुई कि ग्वालियर से श्रीमती चतुर्वेदी भी जा रहीं थीं । हालांकि वे अपने पति को भी साथ ले जा रहीं थीं और वहाँ वे अलग स्पेशल कमरे में रहने वालीं थीं इसलिये उनका मेरा कोई खास मेल तो नही था । लेकिन ट्रेन में तो हम साथ ही जाने वालीं थीं फिर शिवपुरी से डा. पद्मा शर्मा भी जा रही थीं । खुशी की बात यह भी थी कि वहाँ मुझे मीनाक्षी स्वामी मिलने वालीं थीं ।
सुश्री डा. मीनाक्षी स्वामी इन्दौर के शासकीय महाविद्यालय में प्रोफेसर हैं । वे अपनी कृतियों ( भूभल ,नतोsहं आदि ) के लिये अनेक पुरस्कारों से सम्मानित भी हो चुकीं हैं । पर मेरे लिये उनका मिलना साहित्यिक की अपेक्षा व्यक्तिगत रूप से अधिक महत्त्वपूर्ण था । वे लखनऊ में आयोजित बाल-साहित्य लेखन की दो कार्यशालाओं में मेरे साथ थीं । मधु बी. जोशी जी ,मीनाक्षी और मैंने वहाँ काफी आत्मीय क्षण बिताए थे । उन पलों को फिर से जीने के साथ यह भी देखूँगी कि इतने सारे पुरस्कारों से सुसज्जित होकर अब मीनाक्षी कैसी दिखती हैं । मैं चलने के लिये तैयार होगई । सुयोग से मैडम ने भी अवकाश स्वीकृत करने में कोई बेरुखी नही दिखाई ।

जिस सुबह हम उज्जैन पहुँचे मन उल्लास से भरा था । पहली बार महाकाल की नगरी देखने का अवसर जो मिला था । मुझे यह देखकर काफी अच्छा लगा कि उज्जैन सादा और शान्त शहर है । हम लोग जहाँ भी गए बहुमंजिला इमारतें देखने नही मिलीं । हाँ मन्दिर कदम-कदम पर हैं ।
स्टेशन से विक्रम विश्वविद्यालय का अतिथि-गृह ,जहाँ हम ठहरे थे ,ज्यादा दूर नही है । हमारे साथ शिवपुरी से पत्रकार श्री प्रमोद भार्गव और मुरैना से श्री रामबरन शर्मा भी थे । मेरी नजरें मीनाक्षी को तलाश रहीं थीं । पता चला कि मैडम जी अपनी कार से आ रहीं हैं और आज ही अपनी कहानी पढकर वापस भी चली जाएंगी ।
 धत्.. मैं आज भी वही ठेठ देहातिनों जैसे विचार रखती हूँ कि पुरानी सहेलियों की तरह रात में एक साथ जागकर ढेर सारी बातें करेंगे । कुछ यादें ताजा करेंगे । मैं लेखन विषयक कुछ सूत्र जानूँगी कि वह लिखने के लिये कब और कितना समय देतीं हैं । उपन्यास लिखने के लिये भी कुछ निर्देश लूँगी । लोग धडाधड उपन्यास लिख डालते हैं और मैं हूँ कि बीस साल से एक उपन्यास को लेकर सिर्फ सोच रही हूँ । शायद लेखकों से मिलने का यह सबसे बडा लाभ होता है कि कलम चल पडती है । पर ऐसा कुछ नही हुआ । मीनाक्षी गोष्ठी से कुछ ही समय पहले आईं और कथा-पाठ के बाद जाने के लिये तैयार भी होगई । लेकिन यह देख अच्छा लगा कि मीनाक्षी अब भी वैसी ही हैं । अपनी सी । इन बारह सालों में उसकी खूबसूरती में कोई अन्तर नही आया । पर मुझे देखते ही वह विस्मित हुई---"अरे यह तुम हो ? लखनऊ में तो लगता था कि हवा के साथ कहीं उड न जाओ । हर समय बीमार लगतीं थीं । अब तो अच्छी खासी सेहत है ।" और हँसने लगीं । मन एकदम हल्का होगया । 
पहले दिन कथा-गोष्ठी 'कालीदास--अकादमी' में थी । शाम को जब मीनाक्षी जाने लगीं तो मुझे कुछ खालीपन का अनुभव हुआ । पता नही क्यों मैं ही मैत्री के लिये इतनी लालायित रहती हूँ । मुझे ही लगता है कि मुझे अभी बहुत कुछ सीखना है । और यह भी कि मुझे एक अच्छे साथी और निर्देशक की जरूरत है । 
मैं अपने कमरे में लौटी ही थी कि अचानक मीनाक्षी ने फोन किया--"जल्दी बाहर आओ । जरूरी काम है ।" बाहर आई तो आदेश मिला--"गाडी में बैठो ।" फिर ड्राइवर से बोली--"चलो ।"
"अरे ..अरे कहाँ ? मुझे पद्मा और दूसरे लोगों को तो बताने दो ।" मैं इस आकस्मिक और अप्रत्याशित सी 'घटना' पर हैरान हुई ।
"चुपचाप बैठो "--मीनाक्षी ने रौब से कहा--"तुम्हें किडनैप कर इन्दौर ले जा रही हूँ ।" और फिर हँस पडीं । बोली---"अरे तुमसे बातें ही नही होपाईं । सोचा कि काल-भैरव के दर्शन भी करलें इसी बहाने कुछ समय भी साथ बितालेंगे ।"
रास्ते में हम अपने अलावा लखनऊ में साथ रहे कुछ और साथियों की बातें भी करते रहे । मीनाक्षी ने 'नतोsहं' की रचना के बारे में कई बातें बताईं कि यह पूरी तरह उज्जैन और सिंहस्थ मेले पर केन्द्रित है । कि इसके लिये उन्हें इन्दौर से उज्जैन के सैकडों चक्कर लगाने पडे । कि इसके लिये साधु-सन्यासियों , अघोरियों व पुजारियों से भी संवाद रखने पडे वगैरा..वगैरा..। 
कालभैरव को शराब का भोग लगता है । पुजारी ने बोतल में से थोडी सी शराब निकाली और कालभैरव की प्रतिमा के होठों से लगादी । शराब बेचने वालों और पुलिस के बीच धरपकड और लुकाछिपी का नाटक कुछ पलों के लिये ही चला । जैसे ही पुलिस की गाडी मुडी, बोतलें फिर से निकल आईं । 
"तुम्हें एक छुट्टी और लेकर आना था ।" मैंने कहा तो बोली----"अरे यार मकान का चक्कर है । छुट्टियाँ भी कहाँ मिल रहीं हैं । फिर जितना समय मिल जाए काफी है । पर तुमसे मिलकर अच्छा लग रहा है ।"
"मेरी कहानी तो सुन लेतीं । कुछ कमियाँ बतातीं । कुछ....।" मैंने कहा तो वह मेरे कन्धे को दबाकर बोली--
"रहने दो । मैंने तुम्हारी कुछ कहानियाँ पढीं हैं ।" 
मैंने पाया कि मीनाक्षी आज भी वैसी ही है । रचनाकार से पहले वह एक महिला है मेरे जैसी यानी किसी भी आम महिला जैसी । भय और सन्देहों से भरी । स्नेह और ईर्ष्या से रची-बुनी । एकदम बच्चों जैसी ....। क्षितिज के पार देखती सी आँखों में एक मासूमियत..। 
डा. पद्मा शर्मा के दो कहानी संग्रह आ चुके हैं जिनका विमोचन उनके कथनानुसार प्रख्यात आलोचक डा.नामवरसिंह और ममता कालिया ,पद्मा सचदेव आदि जैसी कथाकारों द्वारा किया गया है । यह अपनेआप में बडी उपलब्धि है जिसकी अनुभूति उनके व्यक्तित्त्व से बखूबी छलक रही थी । वे भी शाम को लौट गईं । मुझे निराशा हुई कि कहानी के मर्मज्ञ रचनाकार तो चले ही गए । मेरी कहानी को पता नही कौन सुनेगा । सुनेगा भी या नही । 
दूसरे दिन सुबह बडी आसानी से हमने महाकालेश्वर के दर्शन किए । वहीं पोहा-जलेबी का नाश्ता किया जो वहाँ का एक आदर्श व स्वादिष्ट नाश्ता है । क्षिप्रा को देखना बहुत सुखद नही था । हालांकि घाट सुन्दर बने हैं । अभी तो पानी भी भरपूर है । पर निर्मलता का अनुभव नही हो रहा था । सुबोध दीदी का अनुकरण करते हुए मैंने अंजुरी में जल लेकर अपने ऊपर छिडक लिया । नहाने का विचार तो वैसे भी नही था ,पर होता तो भी वहाँ पहुँचकर छोडना ही पडता । सिर्फ धार्मिक भावना-वश मैं ऐसी जगह स्नान नही कर सकती जहाँ गन्दे पानी की बदबू आ रही हो । हम नदियों को माता भी मानते हैं और उनके साथ बिना किसी अपराध बोध के दुर्व्यवहार भी करते हैं ।मानव समाज की तरह ही जिसमें माँ और कन्या को पूजनीया कहा जाता है पर मात्र शब्दों में ।व्यवहार में उनकी हालत भी नदियों जैसी ही है । नहाने धोने व सींचने के साथ गन्दगी बहाने का भी साधन, नदियाँ हमारी 'पूजनीया माँ !!' 
दोपहर बारह बजे से विक्रम विश्व विद्यालय के हिन्दी विभाग में कहानी व लघुकथाओं का वाचन होना था । गणमान्य श्रोता-समीक्षकों में विक्रम विश्वविद्यालय और माधव महाविद्यालय के हिन्दी के तीन विद्वान प्रोफेसर, राष्ट्रीय साहित्य परिषद् के संगठनमंत्री श्री श्रीधर पराडकर जी ,ऋषिकुमार मिश्र (मुम्बई रेलवे) और बहुत सारे कथाकार थे । तीन-चार कहानियों में से सुनाने के लिये कहानी का चयन करना मुझे काफी उलझन भरा लगा । अन्त में कर्जा-वसूली कहानी पढना सुनिश्चित किया । 
कहानी पर उनकी टिप्पणियों को यहाँ देना अनावश्यक है । यहाँ महत्त्वपूर्ण है सर्वाधिक अपेक्षित आपकी राय । कहानी कृपया पढें ।
शाम को हमें इन्टरसिटी से वापस ग्वालियर आना था । 
बुधवार की सुबह ग्वालियर स्टेशन पर उतरते समय मन में भी कहानी-सम्राट को याद करने के बहाने की गई उज्जैन की य़ात्रा के खूबसूरत पलों की धूप खिल रही थी ।