शनिवार, 18 जनवरी 2014

एक याद-- अडतीस वर्ष पुरानी

19 जनवरी 1976 की वह शाम ..। उफ्..बिल्कुल ऐसी ही सर्दी थी । इसी तरह बारिश भी होगई थी। सरसों और गेहूँ की फसल खेतों में खड़ी नही ,पड़ी थी । आँगन, गली ,मोहल्ला सब जगह किचपिच.। उन दिनों गाँव में बिजली भी नही थी और बरात ठहरती थी पूरे तीन दिन । आज की तरह नही कि रातभर का धूम धड़ाका और सुबह सब कुछ सपने जैसा होजाता है । तब तीन दिन गाँवभर में बरात की धूम रहती थी । पहले दिन टीका
,दूसरे दिन बड़हार और तीसरे दिन विदा । पहले दिन  'पौरटीका ',भावरें और 'पैर-पखरनी 'होती थी और दूसरे दिन 'कुँवर-कलेऊ 'होता था  .
'कुँवर -कलेऊ ' मण्डप के नीचे दूल्हा और उसके भाइयों का विशेष भोज होता था । विशेष यों कि दूल्हे राजा के लिये कुछ और भी खास व्यंजन बनवाए जाते थे । और फिर दूल्हे-राजा यों ही खाना शुरु नही कर देते थे । खासी खुशामदों और अपनी मनपसन्द माँग पूरी होने या पूरी होने के पक्के आश्वासन के बाद ही निवाला तोड़ते थे । उधर लड़कियाँ दूल्हा के जूते छुपा देतीं और दूल्हा की हठ का बदला लेतीं । लेकिन व्यावहारिक तौर पर तब तो यही होता था कि घरवाले लडकियों को डाँट-डपट कर पाँच दस रुपए ,जबकि एक अठन्नी-चवन्नी भी अपना खासा महत्त्व रखतीं थीं ,दिलवाकर विवाद को खत्म करवा देते थे । लड़के वाले लेने के लिये और लड़की वाले केवल देने के लिये ही माने जाते थे दरवाजा रोककर साली-सलहजें चुहल करतीं---"अब दुलहा कैसें जाओगे ,अपनी बहना ऐ दैकें जाओगे..।"
दो दिन तो पूरे गाँव और नाते-रिश्तेदारों आदि सबका खाना होता था । विदा के दिन केवल बरातियों और मेहमानों  का होता था . विदा भी  तीसरे दिन दोपहर बाद ही होती थी क्योंकि 'फेरपटा ','पलकाचार ','धान-बुवाई ','देहरी पूजा 'जैसी कई रस्म। 'पाँव-पखरनी 'और 'पलकाचार 'दोनों रस्में काफी लम्बी होतीं थी क्योंकि पूरे गाँव की औरतें वर-कन्या के पाँव पूजतीं और तिलक करके नारियल-बतासे देतीं । विदा होते-होते दो तो बज ही जाते थे । अब तीन दिन बरात ठहराना कोई आसान काम नही था । वह भी शहरी बरात को । बराती भी ऐसे जो केवल कपडों से और  थोड़ा बोलचाल के तरीके से ही शहरी लगते थे  वरना  विचार-व्यवहार  में तो गाँव के अनपढ़ लोगों से भी गए गुजरे थे 
विवाह में विवाद या मतभेद न हो ऐसा तो अक्सर नही होता न । उसपर गाँव में आए हों शहरी बराती । मेरी शादी में भी कुछ विवाद हुए । कुछ जनवासे की व्यवस्था को लेकर ,कुछ भुकभुकाती गैस लालटेनों के नाम पर ,जिनमें बार बार हवा भरनी पड़ती थी नही तो रोशनी दिये जैसी होजाती और सबसे ज्यादा खाने में पूडियों को लेकर ।
मुझे याद है काकाजी ने बहुत दिल से खाना बनवाया था । उन दिनों चार-पाँच मिठाई न हों तो शादी की दावत कैसी । दूसरी दो -तीन सब्जियों के साथ खट-मिट्ठा 'मैंथीदाना 'भी जरूरी था । कचौरियाँ ,दही बडा़ा,पापड़ ,और भी कई चीजें । लेकिन पूडियों पर खूब हंगामा हुआ । 
हालाँकि इसमें न बरातियों का दोष था न 'घरातियों 'का । दरअसल गाँव में तब (अधिकांशतः अब भी) गाँववाले ही खाना पकाते थे । पूडियाँ बेलने का काम भी 'नौतारिनों 'और गाँव की औरतों का ही होता था । सुबह चार बजे ही गाँवभर में नाई--"पुरी बेलने चलो"-की पुकार लगा देता था । औरतें हर समय तो पूडियाँ बेलती नही रहेंगी न ? सो औरतें अपने अपने चकला--बेलन लिये आजातीं और गीत गाते-गाते पूडियों का ढेर लगा कर चली जातीं थीं ।  पूडियाँ सेककर कर बडे़ेबड़े कढाहों में पत्तलों में दबाकर रखदी जातीं थीं जो नरम तो रहतीं थीं पर गरम नही । जबकि शहर में तब भी गरम-गरम खाने का ही चलन था । 
हाल यह था कि इधर तो औरतें जेंवनार गा रहीं थी---"जाई री मामचौन ( मेरा पैतृक गाँव) की ऊँची रे अथइयाँ हाँsss, कि हाँss रेss ज्हाँ बैठे समधी करत बडइयाँ हाँ.." और उधर बराती पत्तलों से पूडियाँ उठाएं ,पटकें ।
"अजीब हैं ये लड़के वाले "---गाँववाले भी कह रहे थे---"हमारे यहाँ तो लड़की वाले की कोई गलती भी होती है तो लड़के वाले सम्हाल लेते हैं । कहते हैं कि कोई बात नही हमारे घर भी तो बेटियाँ हैं । गलती तो किसी से भी होजाती है .ऐसा ओछापन  तो कोई नही दिखाता ।"
लेकिन मेरे ससुरजी और जेठजी सज्जन थे । इन दो सदाशयों ने ही मुझे पसन्द करके यह रिश्ता पक्का किया था । उन्होंने काकाजी को दिलासा दी ।   
'लेकिन मुझे अपने काकाजी का ,जिनके समाने हर कोई सिर झुकाता था ,यों हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाना बहुत अखरा । मुझे रोना आगया । क्या लड़की का पिता होना कोई गुनाह है ?
मैंने उस समय सोलह वर्ष पूरे तो कर लिये थे ,ग्यारहवीं कक्षा उत्तीर्ण भी ,लेकिन दुनियादारी की समझ और सूझबूझ के नाम पर पहली पास भी नही थी ( वह तो शायद अब भी ,जिसके बुरे (अच्छे भी ) परिणामों का भी एक इतिहास है )
जब विदा हुई तो मेरी समझ में नही आरहा था कि मैं जीवन के एक बिल्कुल अलग ,अनजाने और दुर्गम मार्ग पर चल पडी हूँ ,जिसके लिये मैं सही मायनों में तैयार भी नही होपाई थी । मैं तो खुश थी कि किसी शहर को पहली बार देख सकूँगी। ग्वालियर का किला जिसके बारे में मैंने किताबों में पढा था अब मेरा घर-आँगन जैसा होगा । मुझे अच्छा लग रहा था कि पालकी में बैठने की मेरी बडी अभिलाषा पूरी होगई । उन दिनों सडक गाँव से तीन कि.मी. दूर थी । गाँव तक कच्ची सड़क भी नही बनी थी । बरात की बस तक मुझे पहुँचाने के लिये पालकी मँगवाई गई। गाँव का वह धूल भरा कच्चा रास्ता मुझे बड़ा भला लगा ।  हालाँकि काकाजी ,जिया ,भाई-बहिन को रोते देख मुझे रोना भी आया । पूरे परिवार से दूर जारही थी । मेरा गाँव , गलियाँ खेत ,नदी ,धरती आकाश सब छूट रहे थे इसलिये मन में ऐंठन सी तो हो रही थी लेकिन मैंने अपने गांव में देखा था कि नयी बहू को कैसे हाथों हाथ रखा जाता है . पलकों पर बिठाकर ..और मन में पुलक भरा अहसास भी था कि एक 'नाम' जिसे मैंने साल भर से अपना बिस्तर चादर तक बना रखा था वह साकार रूप में साथ ही उस बस में था । भारी और लम्बे घूँघट के कारण अभी तक चेहरा नही देखा था । तो क्या हुआ ,मन की आँखों से वह दुनिया का सबसे खूबसूरत इन्सान था ..( है ) । 

19 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति...

    आप सभी लोगो का मैं अपने ब्लॉग पर स्वागत करता हूँ मैंने भी एक ब्लॉग बनाया है मैं चाहता हूँ आप सभी मेरा ब्लॉग पर एक बार आकर सुझाव अवश्य दें...

    From : •٠• Education Portal •٠•
    Latest Post : •٠• General Knowledge 006 •٠•

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  2. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति...

    आप सभी लोगो का मैं अपने ब्लॉग पर स्वागत करता हूँ मैंने भी एक ब्लॉग बनाया है मैं चाहता हूँ आप सभी मेरा ब्लॉग पर एक बार आकर सुझाव अवश्य दें...

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  3. मीठी मीठी यादें ... मन को गुदगुदाती यादें ...
    अतीत को देखना कितना अच्छा लगता है प्रेम की पींगें भरते ...
    बहुत बहुत बधाई और शुभकामनायें ...

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  4. कितनी सुन्दर यादें हैं :-)
    खट्टी-मीठी-कड़वी........सतरंगी सी यादें!!
    बहुत बहुत बधाई आप को और दुनिया के सबसे खूबसूरत इंसान को :-)
    सादर
    अनु

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  5. ये गलियां ये चौबारा यहां आना न दोबारा अब हम तो भए परदेसी कि मेरा यहां कोई नहीं ...........ओ ले जा रंग-बिरंगी यादें, हसंने-गाने की सौगातें अब तुम तो भए परदेसी कि तेरा यहां कोई नहीं।.............................संस्‍मरण पढ़ ये गाना याद आ गया। नववधू की ये दो तरफा मनाकुलाहट कितनी महान होती है!

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  6. गिरिजा जी आपका संस्मरण बहुत अच्छा लगा यही तो खट्टी मीठी यादें होती हैं जो जेहन मे ताज़ी रहती हैं ………वैवाहिक वर्षगांठ की हार्दिक शुभकामनायें।

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  7. दीदी! अपनी शादी को याद करना वो भी अड़तीस साल बाद और सारे विवरण याद.. हों भी क्यों न एक मील का पत्थर होता है यह पल किसी के भी जीवन में!! कल मैंने भी पच्चीस साल पूरे किए इस साथ के आपके आशीर्वाद से!!
    हमारी शुभकामनाएँ...
    एक और बात याद आ गई.. मेरे गुरुदेव के पी सक्सेना साहब का..
    दूल्हा - दुह ला..
    दुल्हिन - दुह लिहिन!!
    बहुत बदलाव आया है इन परिभाषाओं में.. एक पोस्ट मैंने बहुत पहले लिखी थी शादियों में गालियों की परम्परा पर!!
    फिर से आपको हार्दिक शुभकामनाएँ!

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  8. आंखों के सामने सजीव हो उठी आपकी शादी.. ऐसा लगा जैसे किसी और जमाने में पहुंच गए हों। अब तो आपको भी ऐसा ही लगता होगा :)

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  9. बहुत मधुर यादें हैं आपके विवाह की..पढ़ते पढ़ते सब जैसे साकार हो गया, शुभकामनायें !

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  10. आपका संस्मरण बहुत अच्छा लगा वर्षगांठ की अनेकों शुभकामनाएं !!

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  11. बहुत कुछ है इस रचना के अंदर', पर सबसे पहले तो इतनी गहरी बात को एकदम सटीक तरीके से कहा है और काफी कुछ सोचने को मज़बूर करता है । शायद ये सारी बातें कहीं ना कहीं उत्तरदायी प्रतीत होतीं हैं, आजकल के परिवेश के लिए । कभी-कभी सोच होता है कि हमारे जिंदगी के कंसेप्ट शहरों ने ही खराब कर् दिए, गाँव तो पहले निर्मल और स्वच्छ सोच वाले हुआ करते थे । हालांकि ऐसे शहरी गंवार बेशक दंड के पात्र होते ही हैं ।

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  12. कितना अच्छा सजीव चित्रण गाँव की शादी का..simple था सबकुछ और भला लगता था..बहुत अच्छा लेख!

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  13. वाह वाह । कितना सुंदर शब्द चित्र खींच देती हैं आप । पूरा ब्याह अटेंड कर लिया हमने । पूड़ियाँ बेलने से लेकर हर रस्म हर विधि विधान में शिरकत कर ली । अपनी जीजी की शादी याद आ गयी जिसमें बारात तीन दिन ठहरी थी और यही सब उस शादी में भी हुआ था नाच गाने से लेकर रूठने मनाने तक ।

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