शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

मुझे तुम्हारी जरूरत है ।

कैसी व्यस्तता है कि , 
अब फुरसत नही मिलती 
यह देखने की कि 
बुलबुल कैसे चुगा रही है दाना
अपने बच्चों को ।
कि नीम की टहनियों में फूटते पल्लव 
कबकी सूचना दे चुके हैं 
वसन्त के आने की ।

रसखान और घनानन्द

हो चुके हैं निरानन्द    
अब हुसैन बन्धुओं के भजन
और गजलें गुलाम अली की  
भरी रखीं हैं बैग में जाने कबसे ।

मेरा ध्यान उलझा रहता है अक्सर 

कि वे नही सोचते मेरे लिये वैसा 
जैसा मैं सोचती हूँ उनके लिये 
नही होता अहसास 
लाली के उल्लास का 
नई साडी पहनकर 
जो उसके पति ने खरीदी है 
अपनी पहली कमाई से ,
और वह खिल उठी है
वसन्त सी ही..। 

मेरी सोच अटकी रह जाती है 

सूखी झरबेरियों में । 
कि बूढी माँ हताश है ,
अब बेटा पहचान नही पाता 
उसकी आँखों की भाषा का 
एक भी अक्षर 
जैसे कोई निरक्षर ।
लेकिन आता है उसे जोडना
माँ की पेंशन के महीने 
उँगलियों पर ही ।
वसन्त का स्वागत करने वाले पेड 
अब हैं कहाँ ।
सभ्यता व उन्नति की भेंट चढे हैं 
यहाँ--वहाँ ।
इससे पहले कि बूढे बरगद में
कोंपल बनकर आए वसन्त ,
चल पडता है लू का चलन । 
अखबार फैला देता है 
सुबह-सुबह आँगन में 
घोटालों ,व्यभिचार और स्वार्थ के परनालों का 
कीचड ,मलबा..।
ढेर सारा खून....
रिश्तों का ,ईमान और आदर्शों का 
उसे धोने के लिये 
कहाँ से लाऊँ पानी  
सूखे पडे है नदी, नहर, तालाब ।
नल में पानी नही आता आजकल..। 
गलियों सडकों से उठते नारों के शोर में 
दब जाता है चिडियों का कलरव
चाय को कडवी बना देता है
अपनों के बेगानेपन का अनुभव।
नही रहा भरोसा किसी के दावों पर 
अपने ही भावों पर 
वसन्त ,तुम आजाओ 
गमले के गुलाब में ही 
छा जाओ मन के कोने-कोने में
मुझे तुम्हारी बहुत जरूरत है ।

9 टिप्‍पणियां:

  1. दीदी! वो सब जिसका आना और होना बसंत कहलाता था, बस अंत हो चुका है उन सभी प्रतीकों और मान्यताओं का. या फिर इतनी विकृति है कि उनका आना भी बसंत सा नहीं लगता. ऐसे में परिवेश से सिमटकर गमले भर में समा जाने वाली बात दिल को छू गयी!

    हुसैन बन्धु मेरे पसन्दीदा गायकों में से हैं और आज भी अकेले उन्हें सुनता हूँ. लेकिन उनके भजन (शायद नहीं सुने मैंने) से अधिक उनके गीत और ग़ज़लें लोकप्रिय हैं!
    एक और बात, आपने इस कविता में कुछ परिवर्तन किया है क्या?? कल रात ही इसे मोबाइल पर पढा था तो इसमें कुछ पंक्तियाँ और थीं जो सुबह नहीं दिख रहीं! प्रदूषित बसंत ने तो कहीं उन पंक्तियों को नहीं निगल लिया!! :)

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    1. भाई आप तक बात का पहुँचना मुझे आश्वस्त करता है क्योंकि आप उस पर पूरा ध्यान देते हैं जिसका प्रमाण है परिवर्तन वाली बात । बदलाव तो किया । पहले लता के भजन फिर जगजीतसिंह की गजल और अन्त में चिडियों का कलरव । यह सब पढते-पढते हुआ । और मुझे लगा कि जो आवाज सबसे ज्यादा आत्मीय होती है वह चिडियों की ही होती है । वसन्त का अभाव ही तो है जो उस कलरव को भी नही सुनने देता चैन के साथ ।
      हुसैन बन्धुओं के भजन जरूर सुनिये । श्रद्धा व भावना एलबम में हैं । ये एलबम मुझे इतने प्रिय हैं कि लगभग आठ लोगों को भेंट कर चुकी हूँ । आपके लिये भी भेज दूँगी ।

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  2. रात की ठंड जाती है तो दिन बसंत लगने लगता है। मुझे तो पूरा दिन वर्ष सा लगता है।

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  3. एक सिहरन दौड़ पड़ी तन-मन में.....................पढ़ कर।

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  4. अपनापन जैसे बीते दिनों की बात हो गयी !! मंगलकामनाएं आपको !!

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  5. मेरी सोच अटकी रह जाती है
    सूखी झरबेरियों में ।
    कि बूढी माँ हताश है ,
    अब बेटा पहचान नही पाता
    उसकी आँखों की भाषा का
    एक भी अक्षर … यह समय इतना कैसे, किसलिए बदल गया !
    बरगद तो आज भी वही है

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  6. बनावटी जीवन के साथ आज तो मौसम भी बनावटी होने लगा है ... ड्राइंग रूम में बैठ कर सब कुछ मना लिया जाता है ...

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  7. समय बदल रहा है...बाहर कितना भी बदल जाये पर भीतर कुछ भी नहीं बदलता..

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