शुक्रवार, 7 मार्च 2014

एक कविता की असाधारण समीक्षा

महिला --दिवस के बहाने एक बार फिर ....
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हमारे संस्कृत के अध्यापक अक्सर कहा करते थे--"कवि करोति काव्यान् ,रसं जानाति पण्डितः ।" उस समय यह बात सिर के ऊपर से गुजर जाती थी । इसका मर्म समझा जब श्री मनोज जी जी ने 'रमपतिया' कविता की समीक्षा लिखी । एक असाधारण समीक्षा । साथ ही यह भी समझ में आया कि समीक्षकों का ही प्रताप है कि कुछ साधारण रचनाएं प्रसिद्धि पा जाती हैं जबकि उनसे श्रेष्ठ रचनाएं धूल खाती रहतीं हैं । 
यह सच है कि 'रमपतिया' का खाका खींचने में समय नही लगा पर उसे निष्कर्ष तक पहुँचाने के लिये बहुत सोचना पडा । रमपतिया एक काल्पनिक पात्र है जिसमें मुझसे सर्वथा भिन्न ,तीन स्त्रियाँ मिलकर एक सम्पूर्ण स्त्री का स्वरूप लेकर मुझे आन्दोलित करतीं हैं । पर ऐसी कोई महिला है भी तो उसकी साहित्यिक उपलब्धि क्या सिर्फ उसका आलंकारिक वर्णन है ? काफी सोचने पर जब अन्तिम पंक्तियाँ लिखी गईं तब कविता सार्थक प्रतीत हुई । 
इसमें कोई सन्देह नही कि महिला सशक्तीकरण की दिशा में यह एक समर्थ और सशक्त रचना है लेकिन इसे असाधारण शक्ति व सार्थकता देती है मेरे आदरणीय भाई सलिल जी और श्री मनोज जी की गहरी और तीक्ष्ण दृष्टि । रचना में जो उन्होंने देखा ,लिखते समय मेरे दिमाग में नही था । कविता तो मेरे प्रिय और आदरणीय लगभग सभी पाठकों ने पढी है  (फिर भी आप चाहें तो पुनःयहाँ पढ सकते हैं ) शायद समीक्षा भी ,लेकिन बहुत बाद में विचार आया कि इतनी अच्छी समीक्षा से क्यों न मैं अपने ब्लाग को भी समृद्ध करूँ । इसलिये विलम्ब से ही सही मनोज जी के प्रति पुनः कृतज्ञता व्यक्त करते हुए , महिला-दिवस पर उस पूर्व-प्रकाशित कविता की  असाधारण समीक्षा यहाँ दे रही हूँ ।    
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रमपतिया.....गिरिजा जी की असाधारण कविता
मनोज कुमार
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गिरिजा कुलश्रेष्ठ की एक कविता पर आज नज़र पड़ी। गिरिजा जी का ब्लॉग Yeh Mera Jahaan है। इस ब्लॉग पर अपने परिचय में गिरिजा जी कहती हैं - जीवन के पाँच दशक पार करने के बाद भी खुद को पहली कक्षा में पाती हूँ। अनुभूतियों को आज तक सही अभिव्यक्ति न मिल पाने की व्यग्रता है। दिमाग की बजाय दिल से सोचने व करने की आदत के कारण प्रायः हाशिये पर ही रहती आई हूँ । फिर भी अपनी सार्थकता की तलाश जारी है । इसी तलाश में उनकी भेंट एक ग्रामीण महिला रमपतिया से होती है और होता है सृजन रमपतिया की याद में कविता का।
स्त्री पर स्तरीय कविताएँ कम ही मिलती हैं। गिरिजा जी ने एक साधारण स्त्री पर असाधारण कविता रची है। कविता में नारी चरित्र और उसके जीवन से जुड़ी समस्त घटनाओं को उसके तीन भावों हँसना, रोना और प्रतिकार करना के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। कवयित्री ने हँसी और रुदन का इतना बारीकी से चित्रण किया है कि स्त्री को उसकी हँसी भी उतना ही सशक्त बनाती है, जितना उसका रुदन। कविता के अंतिम भाग में, जहाँ आम स्त्रियाँ (रमपतिया के परिवेश की) आँसू बहाती हैं, वहाँ रमपतिया नारी चरित्र को सशक्त रूप से मुखरित करते हुए चीत्कार करती है, विरोध जताती है और अपने रुदन को अपनी असमर्थता और लाचारी नहीं बनने देती। एक साधारण सी स्त्री रमपतिया के माध्यम से गिरिजा जी ने जहाँ नारीजनित स्वाभाविक ईर्ष्या को चित्रित किया है वहीं उसके स्वाभाविक गुण प्रेम को भी उद्घाटित किया है और अपने सम्मान, स्वाभिमान और अधिकार के लिए संकोच छोड़ मजबूती के साथ सामना करने के लिए उठ खड़े होने वाले  चरित्र के साथ नारीत्व को शक्ति दी भी है।
इस कविता में माटी की गंध और गँवई मिज़ाज पैहम है। वह एक ऐसी स्त्री है जो जीवन के हर पल का आनंद उठाती है। उसकी हँसी निश्छल है, वह  भोली है, सरल है और जीवट वाली स्त्री है। वह जीवन के हर छोटे-बड़े पल को हँसकर जीना जानती है और उनका खुलकर आनन्द भी लेती है।
"रमपतिया तुम हँसती थी
दिल खोल कर
एक बडी बुलन्द हँसी ।
छोटी-छोटी बातों पर ही "
कविता के प्रारम्भ में इस ग्रामीण, निरक्षर स्‍त्री की, गली-नुक्कड़ तक गूँजती हँसी से हमारा परिचय होता है. किन्तु इस साधारण सी घटना के मध्य कवयित्री ने हौले से जीवन की उन दुरूह परिस्थितियों को भी पाठक के समक्ष रखा जिनके बीच आम आदमी हँसी की कल्पना भी नहीं कर सकता और यही उस नारी की विजय है, क्योंकि उसकी हँसी से---
"हो जाते थे शर्मसार
सारे अभाव और दुख ,चिन्ता कि
शाम को कैसे जलेगा चूल्हा
या कैसे चुकेगा रामधन बौहरे का कर्जा
बढते गर्भ की तरह चढते ब्याज के साथ ।"
हम पाते हैं कि इन संघर्षों के बावज़ूद भी उसके चरित्र में संकोच का भाव, एक ग़रीबी का गर्व, एक गंवईपन का स्वाभिमान है। गिरिजा जी ने अपनी कविता के लिए कोई भारी-भरकम विषय नहीं उठाया है, फिर भी उनकी इस कविता की यात्रा करते हुए हम पाते हैं कि उन्होंने कुछ ऐसा अवश्‍य कहा हैं, जिसे नया न कहते हुए भी हल्‍का नहीं कहा जा सकता।
सरल, सहज रमपतिया इतनी हँस-मुख है कि कोई भी अभाव उसकी हँसी को म्लान नहीं कर पाया। कारण अगर दिल को आघात पहुँचाने वाला हो तो वह रोती भी है। अपने किसी नजदीकी की मौत पर या फसल, जो गरीब के जीवन यापन का एक मात्र आधार है, या भले ही अपने पति द्वारा दिल को दुखाए जाने पर। हर बार रमपतिया ने अपने दुख को मुखर अभिव्यक्त करके अपने से पूरी तरह बाहर कर दिया और फिर पहले की तरह ही सहज हो गई। यहाँ नाली में फँसी पॉलीथीन बिम्ब बहुत स्वाभाविक प्रयोग है। जिस प्रकार नाली में जब पॉलीथीन फँस जाती है तो कचरा अन्दर ही जमा होने लगता है और जब तेज बहाव में वही पॉलीथीन एक झटके में निकलती है तो बहाव बहुत सहज हो जाता है। गहन दुख की भी स्थिति कुछ-कुछ वैसी ही है। वर्णन कवयित्री के शब्दों में ही देखें
"तुम रोती थीं गला फाड कर
रुदन को आसमान तक पहुँचाने
तुम्हारे साथ रोतीं थीं दीवारें
आँगन ,छत , गली मोहल्ला और पूरा..गाँव
उफनती थी आँसुओं की बाढ
नाली में फंसी पालीथिन की तरह
रुके हुए दर्द बह जाते थे
तेज धार में ।"

ऐसा लगता है रमपतिया अचानक व्यक्तिवाचक संज्ञा से जातिवाचक संज्ञा हो जाती है और हर उस स्त्री का प्रतिनिधित्व करती है जिसके आँसू दिल दुखने पर आसमान के परमात्मा तक पहुँचने की शक्ति रखते हों.
तीसरे भाग में नारी को प्रताड़ित करने वालों और उपेक्षिता समझने वालों को रमपतिया के माध्यम से दिखाया है कि वह हंसती है मगर हंसते हुए जुल्म, अन्याय, उपेक्षा और चरित्र पर आक्रमण नहीं सह सकती। वह रोती है, मगर आँचल में छिपकर आँसू नहीं बहाती.---
"चीख-चीख कर जगा देती थी
सोया आसमान ।
भर देती थी चूल्हे में पानी
जेंव लो रोटी|
मारलो ।
काट कर डाल दो
रमपतिया नही सहेगी
कोई भी मनमानी ।"
और यही कविता की ऊंचाई है जो उस स्त्री के साथ परवान चढी है जिसका चरित्र एक कोमल ह्रदय नारी का भी है और अन्याय का विरोध करती चंडिका का भी!
"रमपतिया,
ओ अनपढ देहाती स्त्री
काला अक्षर भैंस बराबर
पर मुझे लगता है कि उस हर स्त्री को
तुम्हारी ही जरूरत है जिसने
नही जाना -समझा 
अपने आपको आज तक
तुम्हारी तरह ।"
इस कविता की जो बात मुझे अच्छी लगी वह यह कि वह न तो ज़्यादा क्रांति की बात करती हैं, न चटपट मज़ेदार कविता की रचना ही । स्त्री और उसका संघर्ष ही इसका बुनियादी लय है। परिवर्तन की बात है तो वह सिर्फ़ रस्मी जोश तक सीमित नहीं है । ये सब कुछ इनकी रचना में बुनियादी सवालों से टकराते हुए है। इनकी लेखनी से जो निकला है वह दिल और दिमाग के बीच खींचतान पैदा करता है। क्योंकि इन्होंने घिसते जाने के बीच अपने को सिरजने की और शोषण के प्रति उसके विरोध को उस स्त्री की जद्दोजहद को परिचित बिंबों से उतारा है।
इस कविता में एक ओर जहाँ उत्पीडन, शोषण, अनाचार और अत्याचार जैसी सामाजिक विसंगतियों के प्रति ध्यान आकृष्ट किया गया है तो दूसरी ओर मानवीय संवेदना, ममत्व, दया, कारुण्य भाव एवं विद्रोह की भावना अत्यधिक प्रखर है। नारी मन की गहराई, उसका अन्तर्द्वन्द्व, नारी उत्पीड़न, मान-अपमान में समान भावुक मन की उमंगे, संवेदनशीलता, सहिष्णुता आदि पर काव्य में अभिव्यक्ति दी गई है, जो कि वस्तुतः सुलझी हुई वैचारिकता की प्रतीक है।
कविता में काव्यात्मकता के साथ-साथ संप्रेषणीयता भी है। गिरिजा जी ने ग्रामीण स्त्री के जीवन के जटिल से जटिल यथार्थ को बहुत सहजता के साथ प्रस्तुत किया है। उनकी भा्षा काव्यात्मक है, लेकिन उसमें उलझाव नहीं है। कविता में प्रयोग किये गए परिवेश ग्रामीण हैं किन्तु दो जगह बड़ी सुंदरता से उन्होंने जिन बिम्बों का प्रयोग किया है वह उल्लेखनीय है. “बढते गर्भ की तरह चढते ब्याज के साथ” तथा “नाली में फंसी पालीथिन की तरह रुके हुए दर्द बह जाते थे” अपने आप में एक बेहतरीन प्रयोग है और अपना एक अलग मुहावरा रचती हैं। इस रचना की संवेदना और शिल्पगत सौंदर्य मन को भाव विह्वल कर गए हैं। इस कविता की स्थानिकता या ग्रामीण वातावरण इसकी सीमा नहीं है, इसकी ताक़त है। स्त्री जीवन के सामान्य घटनाक्रम के द्वारा इन्होंने जीवन के बड़े अर्थों को सम्प्रेषित करने की सच्ची कोशिश की है।
इस बदलते समय में सभ्‍यता की ऊपरी चमक-दमक के भीतर उजड़ती सभ्‍यता, सूखती और सिकुड़ती संस्‍कृति की इस त्रासद स्थिति में कवि का कर्त्तव्‍य होता है कि वह उदात्त को नहीं, साधारण को भी अपनी कविता में ग्रहण करे। यही आमजन सभ्‍यता और संस्‍कृति की नींव मजबूत रखते हैं । इसीलिए इस कविता में संवेदना का विस्तार व्‍यापक रूप से देखा जा सकता है।
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 पूरी कविता---

 

रमपतिया की तलाश में एक कविता

रमपतिया !
तुम हँसती थी
दिल खोल कर
एक बड़ी बुलन्द हँसी ।
छोटी-छोटी बातों पर ही
जैसे कि ,तुम्हारा मरद
पहन लेता था उल्टी बनियान
या दरी को ओढ़ लेता था
बिछाने की बजाय
या कि तुम दे आतीं थीं दुकानदार को
गलती से एक की जगह दो का सिक्का
तुम खिलखिलातीं थीं बेबाकी से
दोहरी होजाती थी हँसते-हँसते
आँखें ,गाल, गले की नसें ,छाती...
पूरा शरीर ही हँसता था तुम्हारे साथ,
हँसतीं थी घर की प्लास्टर झड़ती दीवारें
कमरे का सीला हुआ फर्श
धुँए से काली हुई छत
और हँस उठती थी सन्नाटे में डूबी
गली भी नुक्कड तक...पूरा मोहल्ला...।
ठिठक कर ठहर जाती थी हवा
हो जाते थे शर्मसार
सारे अभाव और दुख ,चिन्ता कि
शाम को कैसे जलेगा चूल्हा
या कैसे चुकेगा रामधन बौहरे का कर्जा
बढते गर्भ की तरह चढते ब्याज के साथ ।

रमपतिया !
तुम रोती भी थीं
तो दिल खोल कर ही
हर दुख को गले लगा कर
चाहे वह मौत हो
पाले-पनासे 'गबरू' की
या जल कर राख होगई हो पकी फसल
या फिर जी दुखाया हो तुम्हारे मरद ने
तुम रोती थीं गला फाड़ कर
रुदन को आसमान तक पहुँचाने
तुम्हारे साथ रोतीं थीं दीवारें
आँगन ,छत , गली मोहल्ला और पूरा..गाँव
उफनती थी आँसुओं की बाढ़
रुके हुए दर्द बह जाते थे
तेज धार में  .
नाली में फंसी पालीथिन की तरह.

ओ रमपतिया !
तुम्हें जब भी लगता था
कुछ अखरने चुभने वाला
जैसे कि बतियाते पकड़ा गया तुम्हारा मरद
साँझ के झुरमुट में,
खेत की मेंड़ पर किसी नवोढ़ा से
फुसफुसाते हुए ।
या  कि वह बरसाने लगता लात-घूँसे
बर्बरता के साथ
जरा सी 'ना नुकर 'पर ही
या फिर छू लेता कोई
तुम्हारी बाँहें...बगलें,
चीज लेते-देते जानबूझ कर
तुम परिवार की नाक का ख्याल करके
नही सहती थी चुप-चुप
नही रोती थी टुसमुस
घूँघट में ही
और दुख को छुपाने
नही हँसती थी झूठमूठ हँसी
चीख-चीख कर जगा देती थी
सोया आसमान ।
भर देती थी चूल्हे में पानी
जेंव लो रोटी
मारलो ।
काट कर डाल दो
रमपतिया नही सहेगी
कोई भी मनमानी ।
और तब थर्रा उठतीं थीं दीवारें
आँगन ,छत ,गली मोहल्ला गाँव ..
औरत को जूते पर मारने वाले
बैठे-ठाले मर्द भी...
बचो भाई ! इस औरत से,
क्यों छेड़ते हो छत्ता ततैया का ?

रमपतिया !
ओ अनपढ़ देहाती स्त्री !!
काला अक्षर भैंस बराबर
पर मुझे लगता है कि उस हर स्त्री को
तुम्हारी ही जरूरत है जिसने
नही जाना -समझा
अपने आपको ,आज तक
तुम्हारी तरह ।
रमपतिया तुम कहाँ हो ? 

9 टिप्‍पणियां:


  1. दीदी,
    आज भी वो रात नहीं भूलती... मैंने यह कविता पढी और मनोज जी को फ़ोन लगाया और तुरत इस कविता का लिंक देकर इसकी समीक्षा करने को कही. उन्होंने ड्राफ्ट मुझे भेजा और कुछ जोड़-घटाव के बाद समीक्षा तैयार थी प्रकाशन के लिये. लेकिन उसके बाद जो फ़िल्मी ड्रामा शुरू हुआ आपको ढूंढने का वो कभी नहीं भूल सकता.
    क्योंकि आपके ब्लॉग पर सूचना दिए जाने के बाद भी आप नदारद थीं अपनी प्रतिक्रिया/आभार के लिए. मुझे ख़ुद बड़ा ठगा सा प्रतीत हो रहा था.
    नेट पर जितने भी कुलश्रेष्ठ मिल सकते थे सब छान मारे. कुछ फ़ोन नम्बर मिले वो भी लगाए. कहीं घण्टी बजती रही, कहीं नम्बर नहीं मिला. फिर याद आई 'एकलव्य' की और बड़े भाई राजेश उत्साही जी की. उन्हें सम्पर्क किया, तो उन्होंने आपका नम्बर उपलब्ध करवाया. तब कहीं जाकर आपको सूचना दे सका. समीक्षा प्रकाशन के पूरे दो दिन बाद आप पोस्ट पर आईं और आभार व्यक्त कर गईं.
    ख़ैर, उस कविता से न सिर्फ खोई हुई कविता मैंने पाई, बल्कि एक नया रिश्ता भी पाया. देखिए उस पोस्ट पर मैंने आपको "गिरिजा जी" कहकर सम्बोधित किया है और आज आप मेरी बड़ी दीदी हैं! एक बार फिर उस रचना के लिये आपका आभार!!
    /
    पुनश्च: आपने मनोज जी के ब्लॉग का लिंक दिया है, जबकि उस समीक्षा वाली पोस्ट का लिंक यह है
    http://manojiofs.blogspot.in/2012/04/107_19.html

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  2. यह भी विचित्र संयोग है । अभी सोने से पहले मुझे ध्यान आया कि इस समीक्षा के पीछे की उस अद्भुत कथा का तो उल्लेख हुआ ही नही जो कम महत्त्व की नही है मेरे लिये । मुझे भी वह सब एक बहुत खूबसूरत दृश्य की तरह याद है । आपका फेसबुक खंगालना तो सबसे अधिक ..। लेकिन यह क्या । जैसे ही ब्लाग पर आई आप वहाँ वह सब याद कराने के लिये पहले से मौजूद हैं । अब क्या कहूँ ।
    निस्सन्देह ऐसे कुछ प्रसंग मेरे लिये अविस्मरणीय हैं मेरी रचनाओं से अधिक महत्त्वपूर्ण । सच कहूँ तो मैं लिखती नही , आप जैसे लोग लिखवा लेते हैं । मेरी यही उपलब्धि है कि कुछ बहुत खास लोग मेरे आसपास हैं जो मेरी रचनाओं को पढते ही नही , उनकी तह तक जाकर मुझे प्रेरणा देते हैं ।

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  3. रचना को उपयुक्त भावक और मूल्यांकनकर्ता मिल जाए तो वह सफल हो जाती है .
    गिरिजा जी ,सलिल जी और मनोज जी ,बधाई देने के लिए किसका नाम पहले लिखूँ ,समझ नहीं पा रही - आप तीनों मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें !

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  4. ओह.….
    क्या संयोग है , मनोज भाई से शुरू होकर सलिल भाई , गिरिजा जी व परम आदरणीय प्रतिभा जी !
    मैं आप सबको पढ़कर केवन नमन करना चाहता हूँ !!
    आजका दिन सफल रहा !

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  5. महिला दिवस पर प्रभावशाली कविता की इतनी सुंदर समीक्षा पढकर सचमुच आज का दिन सार्थक हो गया लग रहा है..आप सभी को बहुत बहुत बधाई !

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  6. समीक्षा ने कविता का मर्म और स्पष्ट कर दिया, कविता भी भायी थी हमें।

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  7. रचना इ मर्म को हूबहू समीक्षा में भी उतार है मनोज जी ने ... इस संवेदनशील और शशक्त रचना को पढ़ना भी किस्मत की ही बात है ...

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  8. वाह दीदी अद्भुत कविता की अद्भुत समीक्षा
    रचना दीक्षित

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