मंगलवार, 24 जून 2014

शायद...

हर ज़ख्म को सहेजा,
उम्मीद में कि कुछ भी,
आहों से फूट निकले 
शायद कि गीत हो ।

बाज़ार में सडक पर 

जो भी मिला विहँसकर 
हमने उसे पुकारा,
शायद कि मीत हो ।

अपनों के रूठने पर ,

कुछ पथ में छूटने पर
मानी है हार , उसमें 
शायद कि जीत हो ।

अन्तर खरोंच उमडी 

जो आँसुओं की धारा 
हमने कभी न रोकी 
शायद कि प्रीति हो ।

अब टूटती है डोरी 

बिखरी किताब कोरी 
माना है ज़िन्दगी की 
शायद ये रीति हो ।
(2006)

7 टिप्‍पणियां:

  1. अब गीत बहुत कम पढ़ने को मिलते हैं। सुंदर गीत.. आपके अनुभवों की आंच भी है इसमें और जीवन का मर्म..

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  2. इसी भ्रम में आदमी जिए चले जाता है..

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  3. आशा, उम्मीद, अपेक्षाएँ यह सब अंतत: विषाद को जन्म देती हैं... मेरा व्यक्तिगत अनुभव यही रहा है कि ज़ख़्मों को गीत की आशा में सहेजा तो तकलीफ़ मिली, किसी ने हाथ भी न मिलाया जिससे तपाक से हँसकर गले मिला, कई लोगों से जानबूझकर हार मान ली कि यही जीत होगी, अंतस के रूदन को भी किसी गीत की प्रत्याशा में सहेजा - लेकिन सब व्यर्थ, सब दु:ख देने वाला. अंत में प्रभु की बात याद आई कि हमें सुख और दु:ख में समभाव बनाए रखना है. न दु:ख से विचलित होना, न सुख से आह्लादित.
    यह रचना भी बहुत गहरा प्रभाव छोड़ती है, दीदी! सरल शब्दों में गहरी बात कहती सी!!

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  4. वाह: लाजवाब रचना..आभार गिरिजा जी...

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  5. शायद की कल्पना ही मन में आशा निराशा के भाव पल्लवित करती है ...
    बहुरत ही सुन्दर गीत ... मर्म को शूते हुए बंध ...

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  6. जीवन का सही नजारा प्रस्‍तुत किया है इस गीत के माध्‍यम से।

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