मंगलवार, 8 जुलाई 2014

देवता प्यासे ही सोगए !

आज देवशयनी एकादशी थी। माना जाता है कि अब देवता शयन करेंगे । चार माह बाद 'देवउठनी' एकादशी (दीपावली के ग्यारहवे दिन) को उनकी नींद टूटेगी। तब तक सगाई-ब्याह आदि कार्य सम्पन्न नही होंगे । ये चार महीने (चौमासा) बरसात के हैं। कहा जासकता है कि देवशयनी एकादशी वर्षाऋुतु के आगमन की विधिवत् सूचना है। हमारे ग्रामीण क्षेत्र में इस दिन की एक रोचक मान्यता है। 
सुबह नहाकर खुले आँगन में गोबर से लीपकर शुद्ध मिट्टी से बनाकर पाँच देवताओं को स्थापित किया जाता है ।
(' तीन देवता तो सुने हैं। ये पाँच देवता कौनसे हैं'---इस जिज्ञासा का समाधान गाँव के एक पंडित जी कुछ यों देते हैं --
"सदा 'भवानी' दाहिनी गौरी पुत्र 'गणेश' ,पाँच देव रक्षा करें 'ब्रह्मा विष्णु महेश।'" दाहिनी यानी अनुकूल)

हल्दी ,रोली ,दूब, अक्षत आदि से पूजा कर हलुआ-पूरी का भोग लगाया जाता है लेकिन जल नही दिया जाता। सामान्यतः भोग लगाने के बाद जल तो समर्पित किया ही जाता है। बचपन में मैंने एक दिन माँ को जल से भरा 'गंगासागर' लाकर दिया । मैंने सोचा कि माँ भूल गईं हैं । हमेशा 'अग्यारी' करने के बाद जल तो चढ़ाती ही हैं लेकिन वे लोटा को दूर ही रखने का संकेत करती हुई बोलीं---"आज देवताओं को केवल भोजन कराना है पानी नही पिलाना है ।"
"ऐ लो ! ऐसा कही होता है कि खाना खिलादो और पानी मत दो ! भला पानी कहाँ से पिएंगे तुम्हारे देवता?" 
"पानी वे अपनेआप पियेंगे।"
"कहाँ से? कैसे?"
"बादलों से माँगकर और क्या ।"
मैं चकित । लेकिन तब और भी अचरज हुआ कि शाम होने से पहले ही पानी बरस गया । इतना कि मिट्टी से बने देवता पूरे आँगन में फैल गए ।
इतना विश्वास ! ऐसी अधिकारपूर्ण हठ ! कि उसे टालने का सवाल ही न उठे । मैंने वर्षों तक यही होते देखा कि किसी और दिन बरसे या न बरसे लेकिन देवशयनी एकादशी जरूर पानी में सराबोर होती।
दादी कहतीं थीं कि "देवता बरसा के जल से ही 'तिरपत' होते हैं।" चातक के लिये भी यही कहा जाता था ।
मुझे लगा कि परम्पराएं जब गहन विश्वास के साथ निभाई जातीं हैं तो वे व्यर्थ नही जातीं। ईश्वर की आराधना में भी यही बात है। क्योंकि विश्वास ईश्वर का ही एक रूप है ।
हमारे गाँव में इसी तरह की एक और प्रथा थी। जिस वर्ष वर्षा की प्रतीक्षा सहनशीलता के पार होने लगती थी तब इन्द्र देवता को मनाने के लिये 'रोटी बनाने' का आयोजन होता था । चौकीदार पूरे गाँव में सूचना कर देता था कि आज अमुक मैदान या खलिहान में 'रोटी' बनेगी । उस दिन न कोई ऊँचा होता न नीचा । न अमीर न गरीब । सभी परिवार ( स्त्री-पुरुष मिलकर) एक साथ बनजारों की तरह गाँव से दूर पेड़ों के नीचे उपले जलाकर अपनी रोटियाँ बनाते थे। साथ में सब्जी , नही तो आलू या बैंगन का भुर्ता ही सब्जी का काम देता। उसीसे भगवान को भोग लगाते । प्यासी गायों की रँभाते हुए बादलों को पुकारते और फिर निर्जल ही कीर्तन करने बैठ जाते --"अब मेरी लै लेउ खबर गिरधारी ...।" 
ढोलक ,मंजीरा, झींका ,चिमटा (वाद्य ) के साथ भजनों का समां बँधता और ऐसी तल्लीनता से कि वह बादलों की गड़गड़ाहट और मोटी-मोटी बूँदों के स्पर्श से ही रुकता था। लोग अपना गीला सीला सामान बड़ी प्रसन्नता के साथ समेटकर भीगते हुए ही घर लौटते थे । 
नानी बताती थी (मैंने भी देखा) कि "ऐसा कभी नही हुआ कि इस आयोजन के बाद पानी नही बरसा हो।" 
अब रोटी बनाने की प्रथा है या नही और सफल होती है या नही ,मुझे नही मालूम ,लेकिन देवताओं के खुद पानी पी लेने की बात अब नही है क्योंकि आज देवता प्यासे ही सोगए । फोन से मालूम हुआ कि गाँव में भी पानी की एक बूँद तो क्या आसमान में बादल का एक टुकड़ा तक नही है। 
अब लोगों की पुकार में वह बात नही । वैसा विश्वास नही । देवता भी शायद कुछ तय नही कर पाते कि प्रार्थना कहाँ होरही है ,वरदान कहाँ देना है ।कि अपराध कोई करता है और सजा किसी को सुना दीजाती है ।


फिर भी हे देव ,भला सगुन की कुछ बूँदें तो गिरा देते। कंकरीट के भवन और सड़कों को  तुम्हारी प्यास की चिन्ता है या नही लेकिन खेतों की माटी को चिन्ता भी है और प्रतीक्षा भी । प्रथा के विश्वास को बनाए रखने कुछ फुहारें तो बरसा देते । हे देव ! इस तरह भी कोई बिना पानी पिए सोता है ? 


( गाँव में वर्षा के और दूसरे उपायों का ,जो पहले हुआ करते थे ,वर्णन अगली कड़ी में )


8 टिप्‍पणियां:

  1. सुना है एक गाँव में बारिश नहीं हुई, तो वहाँ एक सप्ताह का अहर्निश यज्ञ आयोजित किया गया. सातवें दिन पूर्णाहुति के दिन बारिश होने का विश्वास था. बताते हैं उस रोज़ एक छोटा सा बच्चा ही छाता लगाकर आया था.

    यह भी सुना है कि एक गाँव के सारे कुँए सूख गये तो एक साधु महाराज ने देवताओं का आह्वान कर एक कुँआ खोदा और सारे गाँव वालों से रात में एक एक बाल्टी दूध डालने को कहा, ताकि प्रात: उस कुँए की पूजा की जा सके जो सदा जल से परिपूर्ण रहेगा. सुबह वह कुँआ पानी से भरा था क्योंकि हर व्यक्ति यही सोचकर पानी डालता गया कि अगला तो दूध डालेगा ही, फिर उसके पानी डालने की किसको ख़बर लगेगी.

    फिल्म गाइड में एक थोपे हुये साधु (अपराधी) पर गाँव वालों की आस्था ने उस अपराधी को साधु बना दिया और उसकी प्रार्थना "अल्लाह मेघ दे" सुन ली.
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    दीदी! आस्थाओं के इस तरह खोखले होते समय में वे पुराने विश्वास भी हमारी माटी के देवताओं की तरह पिघलकर बह गए हैं. वह विश्वास और आस्था जो एक पत्थर को देवता और एक अपराधी को भी साधु बना देती है, न जाने कहाँ गुम हो गई है. जब आस्थाओं का अकाल होगा तो देवताओं को प्यासे ही सोना पड़ेगा!
    क्षमा करना प्रभु!

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  2. सार्थकता लिये सशक्‍त प्रस्‍तुति

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  3. बहुत बढ़िया संस्‍मरण। वर्षा नहीं हो रही है अब तक अौर पिछली बार वर्षा की अति ने नर्क मचा दिया था। इस असन्‍तुलन के कारण पहचाने जाने चाहिए।

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  4. देवशयनी एकादशी की सुंदर कथा पढ़कर अतंर भीग गया..कितना विश्वास और आस्था हुआ करती थी पहले निर्दोष ग्रामीणों के दिलों में...अब भी है पर वातावरण इतना प्रदूषित हो गया है कि देवता को भी प्यासे ही सोना पड़ता है

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  5. लोक परंपराएं भी कितनी जीवंत लगती हैं - और यह भी सच है कि मन का विश्वास फलता है -अब वह सहज विश्वास और आस्था जीवन में है ही कहाँ?

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  6. सच है प्रथा के विश्वास को बनाए रखना..सशक्‍त प्रस्‍तुति गिरिजा जी..आभार

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  7. बेहद उम्दा और बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपको बहुत बहुत बधाई...
    नयी पोस्ट@जब भी सोचूँ अच्छा सोचूँ
    रक्षा बंधन की हार्दिक शुभकामनायें...

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