मंगलवार, 11 नवंबर 2014

हिमालय की गोद में --2

3 नवम्बर
गंग्टोक से लाचेन

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कल नाथुला से लौटते हुए अँधेरा होगया था और इतनी थकान भी होगई कि बाजार जाकर कुछ शॉपिंग करने का विचार छोड़ना ही पड़ा । यहाँ जितनी जल्दी सुबह होती है ( हालाँकि सूरज किसी सभापति की तरह देर से ही आता है और शाम होने से पहले ही चल भी देता है ।) उससे कही ज्यादा जल्दी शाम होजाती है । चार बजे ही सूरज पर्वत के पार जाने की तैयारी कर लेता है इसीलिये सभी कार्यालय चार बजे बन्द होजाते हैं (जैसा रवि ने बताया) ।
आज लाचेन पहुँचना है । कल शाम को ही तय होगया था कि साढ़े सात बजे तक हम लोग निकल जाएंगे लेकिन रवि का दस बजे तक कोई अता-पता नही । होटल मालिक लामाजी सहित सभी परेशान हैं । कई बार कोशिश करने पर फोन द्वारा पता चला कि वह कहीं ट्रैफिक में फँसा है । 

व्यग्रता भरी प्रतीक्षावधि का अन्त दस बजे हुआ । तब तक सफर का उत्साह असन्तोष व हल्के तनाव में बदल चुका था लेकिन रवि का चेहरा देख रोष जताने की इच्छा लगभग खत्म होगई ।
लगभग 28 वर्ष का स्वस्थ सुन्दर हँसमुख रवि राय कुशल ड्राइवर है । बातों बातों में उसका बुलन्द ठहाका किसी तेज जलधारा की तरह खामोशी और उदासीनता की कालिमा को दूर बहा लेजाता है । देता है । हँसते समय उसकी छोटी-छोटी आँखें लगभग बन्द होजातीं हैं ।
रवि भाई आज का सफर कुछ ज्यादा ही लेट होगया --प्रशान्त ने कहा तो वह बड़े विश्वास से बोला--नही सर ..हाँ कुछ लेट तो हुआ है पर हम टाइम से पहुँच जाएंगे ।
लाचेन गंग्टोक से लगभग 130 कि.मी.दूर है । साधारण रास्ते में, फिर ज़ाइलो जैसी गाड़ी के लिये  लगभग ढाई या बमुश्किल तीन घटे का सफर है लेकिन लाचेन पहुँचते पहुँचते अँधेरा होगया ।

इलायची के पौधे । इलायची जमीन में मूँगफली की तरह लगती हैं ।
खूबसूरत तीस्ता हर मोड़ पर हमारे साथ रही

याद नही आता कि कितने शिखर पार किये या कि दो चार शिखरों पर ही गाड़ी ऊपर नीचे घूमती रही । कभी खिड़की से शिखर के ऊपरी भाग में कोई गाड़ी चलती दिखती तो आँखें खुली की खुली रह जातीं थीं कि हमें वहाँ तक जाना होगा या कि नीचे झाँकने पर हैरानी होती कि क्या इतने नीचे जाकर आ रहे हैं । सभी शिखर एक जैसे । नीचे तीस्ता नदी की कल कल बहती चंचल धारा हर मोड़ पर हमारे साथ थी । सघन वन के बीच सँकरा मार्ग घनी केशराशि के बीच निकाली गई माँग जैसा था जो वहाँ से गुजरते हुए ही नजर आता था ।
अगर जरा सी चूक से सैकड़ों फीट नीचे तीस्ता में जल समाधि लेने की आशंका को कोई जगह न मिले तो उस मार्ग में अपने आपको भुला देने के अनगिन मनोहर उपादान हैं। समझ में ही नही आता कि कदम कदम पर माँ की गोद से मचलकर उतरते चंचल बालक जैसे झरनों को गिना जाय या ,छोटी छोटी चट्टानों पर उछल-कूद करती तीस्ता की नीलाभ हरीतिमा वाली धारा की उन्मुक्तता के साथ साहचर्य बनाया जाय या घने जंगल में सुनसान रास्तों पर विचरती किशोरियों को अभयदान देती हुई सी पवित्र घाटियों पर मुग्ध हुआ जाय या पहाड़ की ममतामयी गोद में आराम से एक-दो घरों में ही पूरा गाँव बसा लेने की प्रवृत्ति पर चकित हुआ जाय या फिर कठिन दुर्गम राहों को आत्मसात् कर ,सीमित आवश्यकताओं में ही परिपूर्णता का अहसास करने वाली अलौकिक सी चेतना के आगे नत-मस्तक हुआ जाय ..। इतनी व्यस्तता में कैसी दुर्गम दूरी और कैसी थकान ।

छोटे चंचल झरने तो पग पग पर आपका स्वागत करते हैं ।

लाचेन में लामाजी ने कोई ईको-नेस्ट नामक होटल बुक किया था । मजे की बात यह हुई कि इस नामके होटल की जानकारी किसी को नही थी । ऊपर से नीचे ,इधर से उधर कई चक्कर लगाने और लोगों से पूछने के बाद जो मकान हमें ईकोनेस्ट के नाम पर मिला वहाँ से तो हम कई बार गुजरे थे ।
ईको नेस्ट होटल क्या ,एक मकान था जो घर भी था और उसी में तीन-चार कमरों को कुछ साज-सज्जा व सुविधायुक्त बनाकर होटल का रूप भी दे दिया था । वहीं एक कमरे में खाने का इन्तजाम था जिसे गृह-स्वामिनी ही संचालित करती थी । सो खाना अपने घर जैसा ही मिला ।
गहराती रात और सर्दी के चलते देर तक जागना-बतियाना संभव नही था । पर इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि हमें तीन बजे ही जागकर तैयार होना था । चार बजे तक हर हाल में गुरुडोंगमार झील की ओर प्रस्थान जो करना था ।
दरअसल लाचेन में रात्रि विश्राम उस लगभग 17500 हजार फीट की ऊँचाई पर स्थित झील तक पहुँचने का पड़ाव मात्र है।


4 नवम्बर
सुबह चार बजे जबकि आसमान में तारे पूरी चमक के साथ जगमगा रहे थे । दूर दूर तक सिर्फ अँधेरा था । न कोई पहाड़ न कोई नदी । बस अँधेरा और अँधेरा । लगातार एक घंटे तक गाड़ी की हेडलाइट में सिर्फ रास्ता दिखाई देता रहा । हमारे आगे दो गाड़ियाँ और भी थीं जो गुरुडोंगमार लेक जा रही थीं । सुनसान में तो एक चिड़िया भी सम्बल बन जाती है पर यह हमारा विचार था । रवि तो "चल अकेला...", वाली बेफिक्री के साथ गाने सुनकर झूमता हुआ गाड़ी चलाने में तल्लीन था ।
जब सुर्मई धु्न्ध धीरे धीरे धूसर उजाले में बदलने लगी थी हम ऐसी जगह पहुँच चुके थे जहाँ हरियाली के नाम पर एक झाड़ी भी नही थी । बस गन्तव्य तक पहुँचने की जल्दी में हड़बड़ाती-भागती ,चट्टानों से फिसलती-फलांगती तीस्ता नदी थी ,मटमैली पथरीली जमीन थी ,ऊबड़-खाबड़ रास्ता था और सिर पर सफेद तौलिया सी लपेटे मटमैले धूसर पहाड़ थे । चोटियों पर जैसे किसी ने बड़ी बेतरतीबी से चूना बिखरा दिया था । 

बर्फ को देखना रोम रोम में एक उल्लासमय तरंग जगा देता है । पहाड़ और समुद्र को देखने की अनुभूति लगभग समान ही महसूस हुई फिर भी जाने क्यों पहाड़ मुझे ज्यादा निकट महसूस होते हैं। हरियाली से पूर्ण वंचित हिमाच्छादित श्रृंग सांसारिक माया-मोह से मुक्त हुए तपलीन ऋषि की तरह शान्त ध्यान-मग्न लग रहे थे।
लाचेन से गुरुडोंगमार के लम्बे बर्फीले और थकान भरे सफर में थांगू नामक छोटी सी जगह पड़ाव का कार्य करती है । यहाँ चाय मैगी आदि के साथ बर्फ पर चलने के लिये जूते मिलते हैं । दुर्गम मार्ग में ऐसे पड़ाव अपने घर की अनुभूति देते हैं । बीच बीच में सेना के जवानों का भी सहयोग कम नही होता ।

गुरुडोंगमार झील--एक अलौकिक सा दृश्य

गुरुडोंगमार झील हिमालय की अत्यन्त ऊँचाई पर स्थित झीलों में से एक है । बताया गया कि गुरुडोंगमार बौद्ध गुरु पद्मसंभव का ही एक नाम है । कुछ के मतानुसार से झील का सम्बन्ध गुरुनानक से भी है ।
लगभग 17400 फीट ऊँचाई पर गुरुडोंगमार झील
झील के किनारे पहुँचकर हमारी आँखें झँपकना ही भूल गईं । निरभ्र नीले आकाश तले हिमाच्छादित शिखरों के बीच और नीली झील का सौन्दर्य अनुपम था । आसमान जैसे हमारे अगल-बगल था । झील बहुत बड़ी नही है पर एक बहुत बड़ी नदी को आकार देती है । इसी से निकलती धारा आगे तीस्ता नदी का रूप ले लेती है । रवि ने बताया कि असल में तो तीस्ता का उद्गम एक और झील है-शू लामो, जो यहाँ से चार पाँच कि.मी. दूर है ।
तीस्ता झील में से यों अपना रास्ता बना रही है
वहाँ सेना की इजाजत के बिना नही जाया जा सकता । इज़ाजत ले भी लेते पर हमारे पाँव तो इज़ाजत देने तैयार ही नही थे । वैसे भी वहाँ देर तक नही रुका जा सकता था । बेहद बर्फीली हवा के थपेड़ों के साथ साँसों पर भी एक शिकंजा सा कस जाता है । लगता है कि नसों में खून है ही नही । प्रशान्त के साथ मैं भी नीचे झील तक पहुँच गई । लेकिन वापस चढ़कर आना बहुत भारी पड़ गया ।
वापसी में एक बार फिर थांगू में रुके । लौटते हुए हमेशा ही रास्ता अपेक्षाकृत आसान व सुन्दर लगता है । पर इतना सुन्दर (और खतरनाक भी) होगा यह जाते समय अँधेरे में नही दिखा था ।


पर्वत तेरे कितने रंग
 ऊचाई कम होने के साथ ही पहाड़ों की हरियाली लौट आई थी पर काफी सँकरा और ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर खतरे की आशंका उस सौन्दर्यानुभूति में किसी रोड़े की तरह आरही थी ।कभी अचानक आया अँधेरा मोड़ साँसों को स्थिर कर देता ,था पर तीस्ता माँ की तरह हर समय हमारी उँगली थामे रही , यह कहते हुए कि डरने की क्या बात है ।
"झील के लिये इतनी जल्दी जाने का कारण समझ नही आया रवि "--मेरी बहुत देर से कुनमुनाती हुई जिज्ञासा आखिर उठकर बैठ ही गई । रवि ने उसका समाधान करते हुए कहा कि ग्यारह बजे के बाद यहाँ कोई नही रुकता क्योंकि यहाँ हवाएं तेज होजातीं हैं । कंकड़-पत्थर तक उड़ने लगते हैं ।
"तो सैनिक ?"
"उन्होंने तूफानों से दोस्ती करली है।" यह कहकर रवि हँस पड़ा । मैं एक बार फिर सेना के लिये नत-मस्तक होगई । 
लाचेन तक उतरते उतरते सूरज भी उतरने लौटने को तैयार था । हमने जल्दी-जल्दी खाना खाया क्योंकि अँधेरा होने से पहले हमें लाचुंग जो पहुँचना था ।

जारी......।

13 टिप्‍पणियां:

  1. दीदी! एक के बाद एक आपकी दोनों कड़ियाँ पढ गया. और पढते हुये ऐसा लगा कि आपके शब्दों के पर्वतों पर उपमाओं के आच्छादित हिमखण्डों का सौन्दर्य देखते हुये मैं भी आपकी इस यात्रा में सहयात्री हूँ. फिर भी जाने क्यों मुझे लग रहा है कि आपके अन्दर की मान्या इन दोनों पोस्टों में अधिक मुखर है बजाए गिरिजा कुलश्रेष्ठ के. एक कौतूहल, जिज्ञासा, उमंग, भय, प्रसन्नता और आश्चर्य, यह सारे भाव और ऐसे अनेक भाव दिख रहे हैं जो आपके और मान्या के मध्य आयु का अंतर समाप्त कर देते हैं!
    चित्र जीवंत हैं, लेकिन विश्वास कीजिये चित्र अपनी सम्पूर्ण सजीवता में भी आपके शब्दों के मुक़ाबले उन्नीस हैं!

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  2. कदम कदम पर माँ की गोद से मचलकर उतरते चंचल बालक जैसे झरनों को गिना जाय या ,छोटी छोटी चट्टानों पर उछल-कूद करती तीस्ता की नीलाभ हरीतिमा वाली धारा की उन्मुक्तता के साथ साहचर्य बनाया जाय या घने जंगल में सुनसान रास्तों पर विचरती किशोरियों को अभयदान देती हुई सी पवित्र घाटियों पर मुग्ध हुआ जाय ...अद्भुत और मनोरम वर्णन..रोमांचक भी..बधाई इस यात्रा के लिए और यात्रा विवरण के लिए..

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  3. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 13-11-2014 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1796 में दिया गया है
    आभार

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  4. धन्यवाद अनीता जी । आप जैसे ही कुछ मेरे अपने पाठक हैं जो मुझमें मेरे विश्वास को मजबूत बनाते हैं । सलिल भैया , आपने सही कहा है कि भावाभिव्यक्ति में मेरा बचपन झलकता है । इसे आप भी समझते होंगे कि जब गंभीर रचना को भी कोई बचकानेपन के साथ लिखता है तो निश्चित ही यह उसके भावों की गहनता ,अध्ययन व ज्ञान की अल्पता व भाषायी कौशल की न्यूनता होती है ।
    इसके अलावा हर नया अनुभव मुझे बहुत विस्मय व जिज्ञासापूर्ण बनाता है । गाँव में ऊपर उड़ते हवाईजहाज को देखकर बच्चे कितने चकित व उत्साहित होते हैं और पहली बार उसमें सफर करने वाले कितने आन्दोलित व रोमांचित होते हैं जबकि उसमें अक्सर सफर करने वाले लोग गंभीर बने रहते हैं । मुझे तो यही लगता है ।
    शब्दों को चित्रों से अधिक जीवन्त कहकर कितना कुछ तो कह दिया है आपने ।

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  5. उन्‍मुक्‍त करता यात्रा वृत्‍तांत। बहुत सुन्‍दर।

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  6. इन शब्दों में प्रकृति की सारी रमणीयता प्राणवंत हो उठी है -अपने विभिन्न रूपों और मुद्राओं के साथ यात्रा के सचित्र वर्णनों ने आभास कराया जैसे हम भी साथ-साथ चल दिये हों और उन अनुभूतियों का ग्रहण करते जा रहे हों .पढ़ने के क्रम में सहयात्री बना लेनेवाली इस संवेदनामयी अभिव्यक्ति हेतु आभार !

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  7. सुन्दर मनोरम यात्रा वृतांत में रमकर हिमालय की वादियों में खो जाने का मन करने लगा है ...
    तस्वीरों के साथ पोस्ट बहुत जानदार बन जाती हैं ...मेरा भी यह अनुभव है
    बहुत सुन्दर प्रस्तुति ...

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  8. यात्रा वृतांत की अनुपम प्रस्‍तुति .... एवं बेहतरीन छाया चित्र
    आभार

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  9. अद्वितीय नजारों के बीच से गुज़रती आपकी यात्रा का अंड हम भी ले रहे हैं ... लाजवाब फ़ोटोज़ से आपने जैसे प्राकृति को साँसें दे दी हैं ... अनुपम ...

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  10. चित्रों के साथ सजीव वर्णन... सरल, सरस और आपकी अपनी शानदार शैली.... मन मचल रहा है तीस्ता के साथ साथ बहने का....

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  11. आज पढ़ा ..हम तो रास्ते भर कभी मंगन और कभी चुंगथाँग में रुकते हुए गए थे और लाचेन में वैसी ही एक छोटे कमरे में चावल और आलू बंद गोभी की सब्जी खाकर अपनी क्षुधा पूरी की थी।

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    1. धन्यवाद मनीष जी ,दरअसल हम लोग गंग्टोक से निकलने में ही काफी लेट होगए थे . मंगन में रुककर खाना खाने के अलावा कहीं रुकने का अवसर ही नही था तब भी लाचेन पहुँचने से काफी पहले ही अँधेरा होगया था . जो भी हो यह यात्रा बेहद खूबसूरत थी .

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