रविवार, 9 नवंबर 2014

छह दिन हिमालय की गोद में




2 नवम्बर --गंग्टोक की सुहानी सुबह ।
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आँखें खुलते ही सामने दूर शिखरों पर चमकती हुई धूप ने मन में ढेर सारा उजाला भर दिया है । शहर के ऊपरी भाग में पेड़ों पर धूप की वह सुनहरी चिड़िया चहचहाने लगी है पर नीचे हिस्से में सड़कों पर अभी धुँधलका सा है । पहाड़ पर गहरी हरियाली के बीच अटके किरणों के उजले लाल सुनहरे गुच्छे देख अनायास ही मन से निकल उठता है--"ये कौन चित्रकार है ।"

धूप और धुन्ध का यह अद्भुत सम्मिलन मैंने पहली बार देखा हैं जो हिमालय में ही संभव है । बाहर हल्की सर्दी है पर सौ कदम चलने पर ही वह हाँफ और हल्की ऊष्मा में बदल जाती है अगर वे सौ कदम चढ़ाई की ओर हों । यहाँ सड़कों पर चलना ही अपने आप में भस्त्रिका प्राणायाम का जबरदस्त अभ्यास है ।
शायद यह शिखरों पर गूँजती सी धूप की ही ओप है कि मटमैली सी छाँव में डूबी सड़कें गलियाँ भी कुनमुनाती हुई जाग चुकीं हैं । यावची होटल के आरामदायक कमरे से दिखती सुदूर कंचनजंघा की दुग्ध-धवल चोटी ने मन को आश्चर्य और पुलक भर दिया है ।

गंग्टोक--हिमालय की गोद में बसा खूबसूरत शहर

प्रशान्त की तमाम आशंकाओं को मिटाती हुई ( वह मेरी चिन्ता किसी माँ की तरह करता है ) मैं कल 1नवम्बर को दिल्ली से बागडोगरा (पश्चिम बंगाल) पहुँच ही गई । दिल्ली से बागडोगरा तक का वायुमार्गीय सफर दो घंटे बीस मिनट का है । 'गो-एअर' का हवाईजहाज बादलों की जमीन पर सरकता हुआ ठीक एक-पचपन पर बागडोगरा एअरपोर्ट पर उतरा । कुछ ही देर बाद बैंगलोर से प्रशान्त व सुलक्षणा आगए । मान्या दौड़ती हुई आई और मुझसे लिपट गई मेरी सारी थकान छूमन्तर होगई । उत्साह से परिपूर्ण सुलक्षणा ने मुझे किसी अभिभावक की तरह शाबाशी देने के अन्दाज में कहा---वाह मम्मी...यह हुई न बात !"
फिर प्रशान्त से बोली---"देखा , मैं न कहती थी कि मम्मी 'मैनेज' कर सकतीं हैं ?"
एयरपोर्ट के बाहर 'ज़ाइलो' के साथ एक पहाड़ी युवक रवि राय हमारा इन्तज़ार कर रहा था ।
बागडोगरा से रांगपो तक पश्चिम बंगाल है उसके बाद सिक्किम शुरु होता है साथ ही तीस्ता नदी का मनोरम अंचल जिसे थामकर चलते हुए माँ के स्नेह की सी अनुभूति होती है ।


जब हम गंग्टोक पहुँचे ,आसमान जैसे अपना साज-सामान लेकर पहाड़ों में उतर आया था । उसने बेशुमार सितारों से पहाड़ों का बदन सजा दिया था । जिधर देखो सिर्फ दीपमालिकाएं जगमगा रहीं थीं । कहीं सुदूर जुगनू से भी चमक रहे थे ।
गंग्टोक काफी साफसुथरा और सुन्दर हराभरा शहर है । ढालान पर बसे इस शहर की व्यवस्था दर्शनीय है और अनुकरणीय भी । 
पैदल चलने वालों के लिये मजबूत रेलिंग वाला फुटपाथ है ।

बाजार में किसी भी तरह का वाहन ले जाना वर्जित है । कल शाम मुझे बड़ा अच्छा लगा कि लोग किसी मेले की तरह महात्मा गान्धी रोड बाजार में टहल रहे थे । बच्चे सड़क पर दौड़ रहे थे । बीच बीच में बैठने के लिये बैंच भी रखी गईं हैं ।

कविता सार्थक होगई
सुबह आठ बजते-बजते हम लोग नाथुला के लिये निकल पड़े हैं । नाथुला चौकी 14200 फीट की ऊँचाई पर भारत-चीन सीमा पर बनी है । गंग्टोक से नाथुला तक का लगभग पचपन किलोमीटर ( जैसा कि ड्राइवर ने बताया ) का रास्ता काफी संकरा और दुर्गम है । उत्तुंग शिखरों की उँगली थामे सँकरे पथरीले कच्चे और धूलभरे रास्ते पर चलती गाड़ियाँ उन बच्चों जैसी लग रही थीं जो किसी भी तरह अपनी जिद पूरी करना चाहते हैं ।


नाथुला-चौकी  
नथुला चौकी पर पहुँचना एक अद्भुत रोमांचक अनुभव है ।सर्वथा प्रतिकूल मौसम ,बर्फ की चट्टानों के बीच जहाँ साँस लेना भी कठिन होता है , जवानों का अपने देश की सुरक्षा के लिये अडिगता के साथ डटे रहना गर्व , कृतज्ञता और श्रद्धा से भर देता है । तब समझ में आता है कि माखनलाल चतुर्वेदी जी ने ऐसा ही कुछ अनुभव कर लिखा होगा---
"मुझे तोड़ लेना बनमाली उस पथ में देना तुम फेंक ।
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जाएं वीर अनेक ।"
अपनी सीमाओं के वीर प्रहरियों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने कविता की कुछ पंक्तियाँ मेरे मुँह से भी बरबस ही फूट पड़ीं--
..."जहाँ हवा भी जम जाती है
तुम भरते हुंकार ।
नज़र जमाए दुश्मन पर
हर आहट पर टंकार ।
पन्थ तुम्हारे पुष्प बना मन
करता अभिनन्दन ।
मातृभूमि के पहरेदारो
मेरा तुम्हें नमन ।"
मेरे साथ कई लोगों ने दोहराया---"मातृभूमि के पहरेदारो मेरा तुम्हें नमन ।"
कविता सुनकर जवानों की आँखों में जो भाव देखा , मुझे लगा कि कविता को ,जो सिर्फ कल्पनाओं व भावनाओंवश लिखी थी , अब सही अर्थ मिला है । सचमुच सारा देश उनका ऋणी है । 

एक बार किसी ने कहा था कि यह तो उनकी नौकरी है ,ड्यूटी है..। वे लोग आकर देखें कि ऐसी दुर्गम जगह पर क्या कोई सिर्फ वेतन के लिये जा सकता है ? वहाँ तो, 'सीस काट कर भुँइ धरै चलै हमारे साथ' वाला जज़्बा रखने वाले ही जा सकते हैं । उनके उत्सर्ग को मोल क्या चुकाया जा सकता है ? देश के लिये जीने मरने वाले लोग अपनी सुविधाएं नही देखते । ऐसा होता तो देश कभी आजाद ही नही होता ।


  
मुझे आश्चर्य के साथ खेद भी हुआ कि देश की सबसे महत्त्वपूर्ण व संवेदनशील जगह कितनी उपेक्षित व वीरान सी है । हालाँकि मुश्किल है फिर भी बहुत ज्यादा जरूरी है कि उस रास्ते को चौड़ा और सुगम बनाया जाए । ताकि मातृभूमि के वे पहरेदार वीर जांबाज अपने लक्ष्य तक का सफर आसानी से तय करके लक्ष्य पर डटे रहने के लिये ऊर्जा बचा सकें । निश्चित ही यह हमें चीन से सीखना चाहिये ।
 
जारी...........

7 टिप्‍पणियां:

  1. बधाई आखिर आप पर्वतों की घाटियों में पहुंच ही गईं। सुन्‍दर यात्रा वृतान्‍त।

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  2. देश के लिये जीने मरने वाले लोग अपनी सुविधाएं नही देखते । ऐसा होता तो देश कभी आजाद ही नही होता ।
    नाथुला के वीर जवानों को हमारा भी नमन..सुंदर यात्रा वृतांत, कुछ वर्ष पहले हमने भी सिक्किम की यात्रा की थी, एक बार पुन आपके साथ यात्रा करने का आनन्द उठाना और भी सुखदायी है. आभार !

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  3. बहुत सुंदर ..आपके साथ हम भी घूम लिए

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  4. हिमालय जैसे देवतात्मा का संसर्ग ही लेखन को औदात्य से भर जाता है और जब लेखनीऔर मन एकात्म हो व्यक्त होने लगें तब तो बात ही क्या है ! अपने इन्हीं वीर जवानों के कारण हमारा शीष उन्नत है और उन्हीं के बल पर हमारी सुख-शान्ति बनी हुई है - उन्हें हमारा नमन्!

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  5. दीदी!
    जब से आपने बताया था कि आप गंगटोक जा रही हैं तो मुझे आपसे इस पोस्ट और इससे पहले भी एक पोस्ट का इंतज़ार था, किसी उपन्यास के प्रोलोग की तरह, आपके इस ट्रैवेलोग का प्रोलोग होना चाहिये था, आपकी अकेले बागडोगरा तक की यात्रा को लेकर आपकी मनोदशा यात्रा से पूर्व, यात्रा के दौरान (सहयात्रियों के साथ का अनुभव) और अंत तो ख़ैर आपने लिखा ही है कि कैसे चि. प्रशांत और सौ. सुलक्षणा, प्रिय मान्यता सहित आपको रिसीव करने आए! इसे मेरा अनुरोध मानकर आगे के लिये लम्बित रखें पर टालें नहीं! :)
    मुझे मेरे प्रिय मित्र, जिनकी पदस्थापना दो वर्षों तक वहाँ थी, का निमंत्रण कई बार मिला. किंतु हम ठहरे जहाज के पंछी लौटकर पटना से आगे नहीं जा पाते! आपके वर्णन ने मेरे लिये उन दृश्यों को साकार कर दिया. लेकिन फिर भी इस पोस्ट को मैं यात्रा-वृत्तांत नहीं कहूँगा. यह एक चित्रकला की तरह आपने हमारे सामने रखा है या फिर एक ख़ूबसूरत कविता की तरह. बस पढते हुये उन्हीं वादियों में खो जाता है मन!
    हमारे वीर सैनिकों के विषय में आपने जो कहा वो सचमुच उनके जज़्बे को महसूस करने वाली बात है. मुझे क़ैफ़ी साहब की लाईनें याद आती हैं दीदी,
    साँस थमती गयीं, नब्ज़ जमती गयी,
    फिर भी बढते क़दम को न रुकने दिया!
    कट गये सर हमारे तो कुछ ग़म नहीं,
    सर हिमालय का हमने न झुकने दिया!
    और जहाँ यह जज़्बा हर सैनिक के दिल में हो - उस मुल्क़ की सरहद को कोई छू नहीं सकता!

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  6. पर्वत वो भी हिमालय के प्रांगण में पहुंचना अपने आप में आलोकिक अनुभव ही होता है ... फिर आपकी लेखनी का जादू और कैमरे का कमाल अलग सा अनुभव पेश कर रहा है .... इया यात्रा का मज़ा आने वाला है आपके साथ ...

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  7. यात्रा वृतांत पढ़ते हुए लगा कि हम भी आपके साथ इस सुहाने सफ़र पर हैं....

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