बुधवार, 31 दिसंबर 2014

घर-वापसी

नववर्ष की हार्दिक शुभ-कामनाएँ 
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एक दिन अचानक ही ऐसा हुआ था कि अपनी ही दुनिया में डूबे रहने पर हमें बडा अफसोस होने लगा था ।
अफसोस यूँ कि न तो हमें यह पता रहता था कि हमारे ही कार्यालय के श्रीमान ग कब कैसे रिश्वत लेते हुए पकडे गए । न यह कि पडोस की श्रीमती क ने ननद के घर जाते हुए कौनसे रंग की साडी पहनी थी जबकि वे मुझे खुद आकर अपना ( उनका ) घर को देखते रहने की कह कर गईँ । श्रीमती सप्रे एक दिन इस बात पर बड़ी नाखुश हुईं कि तारीफ तो दूर हमने उनके नए टाप्स देखे तक नहीं ..
हाल यह कि जिसे देखो हैरान होकर सवाल उछाल देता कि अरे ,तुम्हें यह भी नही पता कि शिक्षा मंत्री बदल गए । कि सात परसेंट डी. . बढ गया । कि अरे आपकी करेंट नालेज तो बहुत ही वीक है । द्विवेदी तो कबके भोपाल चले गए । अब संयुक्त--संचालक तो अहिरवार जी हैं । वगैरा ..वगैरा ..
अक्सर यह भी होता कि अखबार वाले का बिल दो बार अदा कर दिया जाता तो दूध वाले पर दुबारा पैसे माँगने का सन्देह होजाता...। 
अफसोस यों भी कि जहाँ लोग ताजी सामयिक रचनाएं सुना-सुना कर वाहवाही लूट रहे थे वहीं हम दिल का रोना ले कर बैठे थे । सिर्फ यादें जो कभी रुलातीं थीं कभी बहलातीं थीं हमारी हमराज थीं और प्रतीक्षा जो दाँत में फँसे तिनके की तरह हर समय हमें टीस का अहसास कराती व्यस्त रखती थी ,एकमात्र सम्बल बनी हुई थी । तीन-चार सौ गीत—कविताएँ लिख डालीं पर सब स्वालाप से सिसकते हुए । पन्त जी को लिखना नहीं था कि वियोगी होगा पहला कवि....
दिल की दुनिया में एक झंझट थोड़ी है !
हमें यह भी खेद हुआ कि एक फटेहाल स्त्री को हाथ पसारते देख कर विकल होने की बजाय हम गुलमोहर के चटक लाल फूलों और एक मीठे से अहसास में एक रिश्ता जोडने में लगे रहते थे । कचनार के फूलों पर मँडराती तितलियों के साथ विचरते हुए हमारा  खालीपन का अहसास जाग उठता था और बादलों की छाँव में सुस्ताते हुए बारिश जैसे सपने देखने लगते । 
धत् ...निराला या नवीन ऐसे ही तो कालजयी कवि नही बन गए . उन्होंने भिखारी की पीडा को समझा था । गुलाब के फूल को प्रेम का प्रतीक कहने की बजाय पच्चीस लानतें भेजी थीं कि अबे सुन बे गुलाब ...।
नवीन जी ने आदमी को जूठी पत्तल चाटते देख खुद सृष्टि के रचयिता ‘जगतपति’ को कोसा ही नहीं बल्कि मृत घोषित कर डाला । इसे कहते हैं हौसला . एक हम थे कि घोर प्रगतिवादी युग में छायावादी राग आलाप रहे थे । आत्मा को एक दिन जगाना तो था ही । सो जाग गई. वैसे भी यह रिश्ते नाते ,दिल विल ,प्रेम-व्रेम सब फरेब है । छल और धोखा है अपने आप से । कुत्ते का हड्डी चबाने जैसा सुकून भर ।
हमने खुद को समझाया कि हे मन कूप-मण्डूक रह कर दिवास्वप्न देखना बन्द कर । बाहर की दुनिया से जुड । साथ ही  हमने यह भी किया कि दिल की दीवार से तस्वीरे मुहब्बत को एक तरफ उतार कर रख दिया । और तमाम खिडकी झरोखे खोल दिये । साहित्यकारों के बीच जगह बनाने के लिये सामयिक भी तो होना था ।यही तो है जागरूकता की निशानी .
सामयिक होने के लिये सबसे कारगर तरीका है अखबार पढना और समाचार देखना । सो अखबार जिसे पहले पडोसी द्वारा पढ लिये जाने और उन्ही से खबरें सुनने पर ही पैसा-वसूली का बोध होजाता था ,खुद अक्षर-अक्षर पढने की आदत डालने का पक्का निश्चय किया ।
तभी मुझे जानकारी हुई कि चाय के साथ अखबार का बडा गहरा और अभिन्न रिश्ता है । मेरे एक परिचित हैं ,पूरा एक घंटा अखबार पढने में लगाते हैं शायद इसीलिए उनका परिवेश ज्ञान अद्भुत है ।
सो इधर टी.वी. पर इंडियन-आइडल ,सारेगामा , साराभाई और एफ.आई आर जैसे कार्यक्रम देख कर बाग-बाग होने की बजाए हमने गहन गंभीर होने के लिये समाचार चैनल खोल लेने का संकल्प लिया । 
लेकिन हो यह रहा है कि सामयिक होना काफी तकलीफदेह लगने लगा है ।
एक तो मन को आराम से बैठकर अतीत की जुगाली करने की भयंकर आदत पड़ी हुई है . हर मुश्किल को नजरंदाज करने का यह एक अचूक उपाय है . लेकिन सबसे बड़ी वजह यह कि अखबार आँगन में रोज हताशा और अविश्वास का कचरा उँडेल देते हैं । जैसे वे समाचार वाहक न होकर म्यूनिसपैलिटी वालों की कचरा वाहक गाडी हो । अच्छाई और ईमानदारी की खबरों से उनका छत्तीस का आंकड़ा है .
भ्रष्टाचार तो खैर अखबार की साँस है पर इन दिनों हत्या ,लूटपाट हुल्लडबाजी और राजनैतिक गन्दगी भी उसकी जान बने हुए हैं । दिल्ली की घटना के बाद तो बलात्कार के समाचारों की जैसे रोज ही रैलियाँ निकल रहीं हैं । कितनी भूख फट पडी है दरिन्दों की ? रिश्तों का कोई लिहाज नही है । बेटे ने माँ का गला रेत दिया । पिता ने बेटी को ही हवस का शिकार बना लिया । कैसे कैसे घिनौने समाचार पढने मजबूर होगए हैं हम । संवेदना मरने लगी है । तमाम घटनाए दर्द नही वितृष्णा पैदा करतीं हैं । कविता दर्द के खेत में उगती है , वितृष्णा और क्षोभ के रेगिस्तान में नहीं . पहले अभिव्यक्ति कमजोर या फालतू ,जैसी भी थी अब पूरी तरह लकवा मार गया है ।
उधर समाचार चैनल तो 'दुर्घटनाओं' का ही दिया खा रहे हैं .  
बुरी घटनाओ पर अच्छी कविता कैसे बने ? हम कोई भवानी प्रसाद मिश्र तो हैं नही कि कुछ भी मिल जाए और एक शानदार कविता बना डाले ।
इधर रिश्ते-नाते ,’प्रनतपाल’ ( झुके हुए का (ही) पालन करने वाला ) और ’दीनबंधु’ ( दीन-दुखी का (ही) साथी) बने हुए हैं . इसे स्पष्ट करने के लिए हमने एक ताजातरीन सिद्धांत खोजा है .हुआ यों कि सुख के सब साथी ,दुःख में न कोय ,वाली बात हमें बहुत पुरानी और व्यर्थ लग चुकी है. (यह बात वैसे अपनों के लिए है भी नहीं) क्योंकि एक लम्बे-चौड़े अनुभव से ज्ञात हुआ कि जब तक आप दीन हीन हैं , असहाय व निरीह हैं ,आपको अपनों से अपनत्त्व मिलता रहेगा ,इधर आपकी आँखों में चमक और होठों पर मुस्कान दिखी तो उधर अपनों के मन में जबरदस्त ऐंठन शुरू कि हाय राम उसके लडके ने तो यह परीक्षा भी निकाल ली ! ..कि अब तो वह घर में भी पांच सौ से कम की साडी नहीं पहनती ....कि अमुक ने इतना बढ़िया मकान बनवा लिया ? जरुर कोई बड़ा हाथ मारा होगा 
वास्तव में आपका सही अपना वह है जो आपकी ख़ुशी को हृदय से महसूस कर खुश हो .इस लिहाज से तो , हमने देखा सदन बने हैं लोगों के , अपनापन खोकर ..(नवीन) का सिद्धांत ही सामने आया है .आसपास यही सब तो देखने सुनने मिल रहा है .
हाल यह हैं कि यह है कि घुटन है , कुढन है , जलन है लेकिन सृजन नहीं है . सो बंधू हमने यही पाया है कि अपने ही ख्यालों की दुनिया में लौटना ही सही होगा .  नम ,सीलनभरी, जैसी भी है अपनी दिल की दुनिया ही अच्छी है . रोना गाना कुछ तो सार्थक निकलेगा. 
इसे आप या कोई भी , पलायनवाद कहे तो कहे . हम तो घर–वापसी की तयारी में हैं पक्का .. .. 
नव-वर्ष आप सबके लिए मंगलमय हो .   

सोमवार, 22 दिसंबर 2014

कोहरे में डूबी सुबह


ग्वालियर में इस समय गजब की सर्दी है . सुबह नौ-दस  बजे भी चारों ओर कोहरे की मोटी चादर फैली रहती है . अभी  कही कुछ नहीं दिखाई दे रहा . ऐसे में मुझे अपनी यह लगभग छत्तीस वर्ष  पहले  लिखी कविता को यहाँ देने का बहाना मिल गया .यह भी कि अभी नया कुछ नहीं लिखा सो यही सही .
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अभी जब मेरी पलकों में समाया था कोई स्वप्न .
नीम के झुरमुट में चहचहा उठीं चिड़ियाँ चिंता-मग्न.
अरे अरे ,कहाँ गया वह सामने वाला पीपल ?
कौन ले गया बरगद ,इमली ,नीम ,गुडहल ?.
कहाँ है नीला नारंगी आसमान ?
तब देखकर मैं भी हैरान ,
कि सचमुच नहीं हैं अपनी जगह
दीनू की दुकान 
सरपंच की अटारी और मंगलू का मकान
सामने दिखने वाला  खूबसूरत मानमन्दिर ( ग्वालियर दुर्ग ) कहाँ गया  ?
फैलू की झोपडी पर सेम-लौकी का वितान
धुंध में डूबे हैं दिशाओं के छोर
चारों ओर
सारे दृश्य अदृश्य
सुनाई दे रही हैं सिर्फ आवाजें,
चाकी के गीत
चिड़ियों का कलरव
गाड़ीवाले की हांक
किसी की साफ होती नाक
फैला है एक धुंधला सा पारभासी आवरण
कदाचित्
बहेलिया चाँद ने
तारक-विहग पकड़ने
फैलाया है जाल

या सर्दी से कंपकंपाती धरती ने
सुलगाया है अलाव
उड़ रहा है धुँआ
 .
या आकाश के गली-कूचों में
हो रही है सफाई
या फिर रात की ड्यूटी कर  
लौट रहा है प्रतिहारी चाँद
उड़ रही है धूल .

या फिर ‘गुजर’ गयी रजनी
उदास रजनीश कर रहा है
उसका अंतिम-संस्कार
या कि   
यह धुंधलका जो
फैल गया है भ्रष्टाचार की तरह
किसी की साजिश है
सूरज को रोकने की .
नहीं दिखा अभी तक .

बहुत अखरता है यों
'सूरज' का बंदी होजाना .

शनिवार, 6 दिसंबर 2014

"हमहूँ चुनेंगे सरकार"

नगर निगम चुनाव पिछले दो चुनावों ( विधान-सभा ,लोकसभा ) से इस रूप में अलग था कि कंट्रोल-यूनिट के साथ दो बैलेट–यूनिट मशीनें थीं–एक महापौर के चुनाव हेतु ,दूसरी पार्षद को चुनने के लिए .खास बात यह कि दोनों मशीनों की बैलेट-बटन दबाने पर ही मतदान सम्म्पन्न होना था . पहली बैलेट को दबाने पर हल्की सी बीप आती थी और दूसरी दबाने पर लम्बी .लम्बी बीप एक मतदान पूरा होने का सूचक थी .उसके बिना मतदान पूर्ण नहीं होना था . हमें  जो पोलिंग बूथ मिला वह शहर के एक अत्यंत पिछड़े इलाके में था जहां सुचारू रुप से तो टायलेट की व्यवस्था भी नही  थी हालाँकि वहां शांतिपूर्ण मतदान सम्पन्न होगया, जबकि शहर में कई जगह झगड़ा व हंगामा हुआ .एक वार्ड में तो उपद्रवियों ने पीठासीन अधिकारी तक को पीटा और कंट्रोल-यूनिट को तोड़ दिया . खैर...
सुबह छह बजे चार अभिकर्त्ताओं (अलग-अलग दलों के एजेंट ) के सामने ‘मोकपोल’ (दिखावटी मतदान )  कराया गया .उसके बाद सात बजे से शाम पांच बजे तक मतदान का समय था .
चूँकि अधिकतर मतदाता मतदान की इस नई प्रक्रिया से अनभिज्ञ थे इसीलिए प्रक्रिया उतनी सहज व सुचारू नहीं थी  .मेरे साथ साथ तीनों मतदान अधिकारी भी लगातार मतदाताओं को पार्षद व महापौर के लिए अलग मशीनों में बटन दबाने का निर्देश देते रहे ताकि सही और पूर्ण मतदान हो सके . उस अवधि में हमें लगा कि टेलीविजन के तमाम चैनलों पर इस मतदान की प्रक्रिया का प्रचार होना चाहिए था . मतदान के दौरान इस विषयक कई रोचक व गंभीर प्रसंग सामने आए.
(1)
ठीक सात बजे कक्ष के बाहर मतदाताओं की कतार लग गयी . पहला मतदाता लगभग चालीस वर्ष का जो देखने में शिक्षित व समझदार व्यक्ति लग रहा था ,तीनों मतदान अधिकारियों से अनुमोदित होकर गर्व और प्रसन्नता ( पहला मतदाता होने की ) को सायास छुपाए आया .
महापौर और पार्षद दोनों के लिए वोट देना है .वहां रखी दोनों मशीनों में बटन दबाना है . —प्रशिक्षण में इस वाक्य पर खासा ध्यान दिया गया था वही लगभग सबने दोहराया .
मालूम है .—वह आत्मविश्वास से भरा बूथ के अंदर गया और फुर्ती से एक बैलेट का बटन दबाया .हल्की बीप की आवाज  आई
.आवाज तेज तो नहीं आई —वह उसी बटन को दो-तीन बार दबाते हुए बोला .
अब दूसरी मशीन का बटन दबाओ . बटन दबाते ही एक लम्बी बीप आई .मतदाता ने अपनी सफलता पर खुश होकर कहा-- .अरे वाह यह तो कमाल होगया .नया सिस्टम है . 
(२ )
अरे ओ अम्मा कहाँ जारही हो ? स्याही तो लगवा लो.—मतदान अधिकारी न.३ ने बूढी अम्मा को रोका जो पर्ची लेकर सीधी ई वी एम (इलैक्ट्रिक वोटिंग मशीन ) की और बढ़ी जा रही थी .अम्मा ठिठकी फिर लौटकर स्याही लगवा ली.
अम्मा दोंनों मशीनों में बटन दबाना .
हओ बेटा .—कहकर बुढ़िया ओट में चली गयी .और कुछ ही पलों में बाहर आगई .
अम्मा अभी वोट नहीं हुआ .
ए...! कैसें ना भयो . मैनें तौ बटन दबाई हती .—यह कह कर वह बाहर चलदी .
अरे रुको अम्मा .
काए ?
मैडम आप देखलो---एक नम्बर अधिकारी ने कहा तो मैंने नियमानुसार दो एजेंट अपने साथ बुलाए . यह नियम है . हम अकेले ही किसी मतदाता से मतदान नहीं करवा सकते .साथ एक दो (पार्टियों ) अभिकर्त्ताओं को लेना जरूरी है.
अब बटन दबाओ अम्मा
ए..लो ..
नहीं दबा ...सीटी नहीं बजी .
ए दबाइ तौ रई हूँ -उसने दो तीन बार बटन दबाते हुए कहा .
मैंने देखा ,वह एक ही मशीन के बटनों को दबाए जा रही थी .
अम्मा इस मशीन में तो तुमने वोट डाल दिया .अब वो जो बगल में दूसरी रखी है उसमें दबाओ .
हओ...
लम्बी सीटी बजी तब दूसरे मतदाता को आने दिया .
लम्बी बीप का आना उतना ही सुकून दे रहा था जितना खाना खाने के बाद भरपूर डकार का आना .
(२)    
एक पहलवान टाइप आदमी निकास के रस्ते अंदर घुसा . 
अरे ,इधर से नहीं ,उधर उस दरवाजे से आना है भाई .
क्यों इधर से का दिक्कित है ?
इधर से वोट देकर निकलने का रास्ता है .
अरे कहूँ से आओ जाओ ,का फर्क है! 'मुख्ख' काम है बोट देना सो.. !वह अड़ गया . उसके तेवर कुछ ठीक नहीं लग रहे थे .
चलिए आप उधर जाकर पर्ची दिखादे . कोई विवाद न हो इसलिए मैंने उसे मतदान अधिकारी नं.एक की और जाने को कहा. मतदाता रजिस्टर की चिह्नित प्रति उसी के अधिकार में होती है .
"लाओ पर्ची दो ." 
"ये लो ."--उसने शान से पर्ची दिखाई .
"आपका वोट यहाँ नहीं है ."अधिकारी ने रजिस्टर पलटते हुए कहा .
"यहाँ नहीं है ? मतलब ?"
"मतलब कि इस मतदाता रजिस्टर में आपका नाम नहीं है ."
"मैं तो हमेशा यही वोट डाला है .ध्यान से देखो मेरा नाम ,इसी में है."
"नहीं है भाई.मानते क्यों नहीं हो ?"उसका नाम सचमुच नहीं था. 
"कैसे मानूं ? यह साजिस है विरोधियों की . मेरा नाम हटवाया गया है पर मैं वोट डाले बिना नहीं जाऊंगा .लगभग पैतलीस पार का वह आदमी अड़ गया
"राजवीर भाई , आप ही इन्हें समझाएं नहीं तो बी.एल.ओ को बुलवाओ ."--मैंने एक एजेंट को बुलाया .उसने बताया--
"मैडम इस बार पर्चियों में बड़ा घाल-मेल हुआ है . लोगों के बूथ ही नहीं कही कही तो वार्ड ही बदल गए हैं . कितने ही वोटर पर्चियां लिए भटक रहे हैं ."
जब वहां के 'बीएलओ' को बुलवाया गया तब समस्या का निराकरण हुआ .
इसके बाद वहां नियुक्त आरक्षक को इसका खास खयाल रखने कहा गया कि आने वाला मतदाता इसी बूथ का हो और प्रवेश द्वार से ही प्रवेश करे .
(३)
यह वोटिंग मशीन तो खराब है मैडम —ओमपुरी-स्टाइल में एक नेतानुमा महाशय ने कुछ इस तरह घोषणा की मानो वह मशीन का विशेषज्ञ हो .
"क्या हुआ ?"
"अरे मैडम ,बटन दबता ही नहीं है . एकदम फ्राड है."
कहाँ दबा रहे हो ?"
मैंने देखा तो विस्मय हुआ . वे सज्जन उम्मीदवारों के नाम पर ऊँगली का दबाब बना रहे थे .
महोदय इन नामों के सामने बने ये जो गोल गड्ढे से दिख रहे हैं उनमें दबाना है .
अच्छा ?
(४)
ए बाई नैक बतइयो तौ ,बटन कहाँ दबानौ है –एक अधेड़ महिला ने मुझे बुलाया .
हाँ बोलो .
कौनसा बटन दबाऊ ? कछु समझ में ना आइ रयो .
मैं असमंजस में . मैं कैसे बता सकती हूँ कि कौनसा बटन दबाना है ! मैंने अभिकर्त्ताओं की राय ली .उनहोंने कहा—मैडम आप डलवा दो वो जिस पर भी कहे. 
तुम्हें पार्षद के लिए किसे वोट देना चाहती हो ? धीरे से मेरे कान में बोलदो -मैंने धीरे से पूछा .
दरबज्जे पे.
उपर से पांचवे नम्बर को दबादो ..दबा दिया ? ठीक अब महापौर के लिए ?
पतिंग पे .
देखो , उपर से छठे नम्बर पर है पतंग उसी के सामने का बटन दबाओ..—मैंने जिज्ञासावश देखा तो पाया कि उसने NOTA दबा दिया था और बेशक उसे इसका भान भी नहीं था .
इसके बाद हमने तय किया कि कम से कम ऐसी महिलाओं को हम पूरा सहयोग दें और देना ही पड़ा क्योंकि अधिकांश महिलाएं गलती कर रही थीं .
लेकिन एक महिला ने मुझे दूर से ही टोक दिया—
इधर क्या देख रही हो ?मैं वोट डाल रही हूँ
“ मैं कुछ नहीं कर रही हूँ . मुझे लगा कि आपको सहायता की जरूरत तो नहीं है."
"मुझे सहायता की जरूरत नहीं है .और आप क्यों करेंगी सहायता ? ये गलत है , अवैध है..."
मुझे नसीहत देने वाली वह महिला नियमानुसार तो सही थी लेकिन मैं भी गलत कहाँ थी ? गलत होता दल विशेष के लिए वोटिंग की प्रेरणा देना या दबाब बनाना. बिना हमारी सहायता के तो आधी वोटिंग भी नहीं हो पाती या जो होती वह गलत होती .
प्रमुख राष्ट्रीय दलों के उन अभिकर्त्ताओं ने उस महिला को समझाया तब वह वहां से टली लेकिन मुझे यह देखकर अच्छा लगा कि कोई मतदाता खासतौर पर महिला इतनी जागरूक है .
काश ऐसे ही सभी मतदाता होते .