रविवार, 26 अप्रैल 2015

एक बात -रोशनी से ..

रोशनी !
तुम अभी मत आओ
मेरे अँधेरे कमरे में.
किसी नए-नए पड़ोसी की तरह . 
अस्त-व्यस्त है सबकुछ 
तुम आओगी ,
मुझे दिखाओगी 
कमरे का उखड़ा फर्श , 
दरकती छत ,झड़ती दीवारें .
होगा अहसास मुझे 
अभाव और बेवशी का व्यर्थ ही .
बारिश नहीं होती अब
सूख गए हैं गमले के फूल,
पन्ना-पन्ना बिखर रही है डायरी.
तुम्हें जरूर नागवार होगा कि
पुराने कलेंडर मैंने अभी तक 
टांग रखे हैं दीवारों पर  
कि नहीं उतारा       
वर्षों से एक ही जगह लगा 
चटका हुआ पुराना शीशा .
शीशे में टुकड़ा-टुकड़ा विभाजित   
अपरूप मेरा अक्स ...
अभी फासला है हमारे बीच
किसी बहुमंजिला इमारत और ,
सुदूर अंचल के कच्चे खपरैल जैसा 
ठहरो ! जबतक कि ,
सब कुछ संवार न लूँ  ,
या कि जो कुछ है ,
उसी में खुले दिल से 
स्वागत कर सकूँ तुम्हारा
अपनेपन के विश्वास के साथ,
मुझे रहने दो ,
अपने घर के अँधेरे में ही ,
उसकी आदत है वर्षों से .
इसलिए रोशनी !
बावजूद इसके कि ,
तुम मुझे अच्छी लगती हो , 
प्रतीक्षा भी है तुम्हारी ,
दूरियाँ खत्म होने से पहले  
बुला नहीं सकूंगी अपने घर . 
.


              






4 टिप्‍पणियां:

  1. नई पड़ोसी नहीं..रौशनी तो सदा से प्रतीक्षा रत है कि कोई उसे बुलाये..असीम धैर्य है उसमें...और असीम स्नेह भी..वह दूर से ही नजर रखेगी..सुंदर कविता..

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  2. रौशनी को रोके रखना से ज्यादा अच्छा सत्य को स्वीकारना और और प्रयास करना है ... जिज्ञासा देर तक नहीं रहनी चाहिए ... जब प्रयास है संवारने का तो पूरा जरूर होगा ...
    भावपूर्ण रचना है ...

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  3. दूरियां ख़त्म होने तक रौशनी को रोके रखना....
    अहसासों का यथार्थपरक चित्रण ।

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