शुक्रवार, 29 मई 2015

'चबूतरे का सच '----कहानी की सार्थकता व सौन्दर्य का एक सच



 
यह शीर्षक डा.श्रीमती आशा पाण्डे के कहानी संग्रह का है जो उन्होंने मुझे भेजा है . संग्रह के विषय में कुछ कहने से पहले यह बताना मेरे लिये जरूरी है कि अत्यन्त सौम्य और मधुर व्यक्तितत्व की स्वामिनी डा. आशा पाण्डे ( अमरावती ,महाराष्ट्र )से परिचय एक सुखद संयोग है जो आर्य सम्मान (किताबघर दिल्ली) से सम्मानित कहानी-संग्रह राम लुभाया हाजिर है के कारण हुआ .जिसमें आशा जी व अन्य कहानीकारों के साथ मेरी कहानी भी है .उनसे एक बार संवाद हुआ तो फिर वह सिलसिला आजतक चला आरहा है . आशाजी एक अच्छी कहानीकार हैं यह तो मैं उस संग्रह की कहानी से ही जान गई थी लेकिन 'चबूतरे का सच' पढ़कर मैं कह सकती हूँ कि उनकी कहानियाँ  यों ही पढ़कर फेंक देने वाली कहानियाँ नही है बल्कि हृदय में उतर जातीं हैं और अपनी एक जगह बना लेतीं हैं .ऐसी कहानी लिखना आसान नही है .

कोई किताब इतनी अच्छी लगे कि स्वतः ही अपने अनुभव को अन्य सुधी पाठकों के साथ बाँटना जरूरी होजाए तो मैं समझती हूँ कि लेखक अपने उद्देश्य में सफल हुआ है . आशा जी के लिये यह कहना जरूरी नही है फिर भी ...

चबूतरे का सच में कुल नौ कहानियाँ हैं .जिनमें पहली तीन कहानियाँ तो अद्भुत हैं .

'नीम का पेड़ 'पहली कहानी है जिसमें गाँव को लगभग भूल गया शहरवासी युवक दिवंगत पिता के सपनों को पूरा करने गाँव में रहने का मन बना लेता है .इस कथ्य को लेखिका ने जिस कौशल से बुना है वह प्रशंसनीय है .जिस सहजता ,विश्वसनीयता और पूरे परिवेश को साथ लेकर कहानी आगे बढ़ती हुई अन्त तक पहुँचती है मन वाह वाह कह उठता है . मकान व जमीन जायदाद को लावारिस समझकर बन्धु-बान्धवों के मन में किस तरह बेईमानी आजाती है उसका वर्णन काफी प्रभावशाली है . कहानी में कथ्य से अधिक महत्त्व कहने की कला का है जिसकी कमी पूरे संग्रह में मुझे कहीं नही दिखी .

'अपनों के बीच' मरणासन्न अम्मा के अन्तिम क्षणों की कहानी है पर इसी में परिजनों ,पड़ौस, मोहल्ला वासी स्त्री-पुरुषों की मानसिकता का चित्रण इतनी जीवन्तता के साथ हुआ है कि वे कुछ पल एक बड़ी और खूबसूरत कहानी बन गए हैं .    

'जेल से जेल' तक एक और बड़ी सुन्दर कहानी है .शीर्षक से तो 'कयामत से कयामत तक' जैसा ही कुछ अनुमान होता है लेकिन वैसा बिल्कुल नही है .दूसरी जेल एक अलग अर्थ में है जिसका पता पाठक को कहानी के अन्त में ही चलता है .सीधे-सच्चे ,ईमानदार ,और परमार्थी जुम्मन भाई पहली बार तो सचमुच ही जेल जाते हैं .उसका कोई बड़ा कारण नही होता बल्कि उनके ये गुण और सपाटबयानी ही कारण बन जाती है . जेल से छूटने पर एक निकम्मे निराश और दुनिया से लड़कर हारे हुए व्यक्ति के लिये अपना ही घर कैसे जेल बन जाता है इसी कथ्य पर बुनी हुई यह बेहद खूबसूरत कहानी है .अन्य कहानियों में 'सुख' ,'जेब सोखती दोपहर ',आदि भी बेहतर कहानियाँ हैं .

आशा जी की कहानियों में जो विशेष बात है वह है भाषा की स्वाभाविकता ,शिल्प की सहजता और कथ्य की विश्वसनीयता . .उनमें सूक्ष्मता है ,स्थूलता नही . वे कोई बड़ा मुद्दा नही उठातीं .वे सहज जिन्दगी की सादा लेकिन शैली में अत्यन्त विशिष्ट कहानियाँ लिखतीं हैं .लगता है कि हम भी लेखिका के साथ ही विचर रहे हैं. और सबसे बड़ी बात है लेखिका की सकारात्मक दृष्टि .खोजने पर हर जगह सकारात्मकता मिल सकती है .हर जगह नकारात्मकता भी .किसी ने कहा है कि कला का सही रूप तो सकारात्मक ही होता है .कहानियों में जहाँ नकारात्मक है भी तो वह सहज है . अन्दर व्यर्थ का आलोड़न पैदा नही करतीं बल्कि हल्की सी टीस छोड़ जातीं हैं .'सूनी गोद' और 'उत्तर का आकाश' ऐसी ही कहानियाँ हैं .कुल मिलाकर संग्रह पठनीय और संग्रहणीय है .

कहानी-संग्रह बोधि प्रकाशन से निकला है .पुस्तक पेपरबैक में है मूल्य भी ऐसा है कि खरीदते समय सोचने की जरूरत नही–मात्र चालीस रुपए .     

10 टिप्‍पणियां:

  1. सारगर्भित समीक्षा के लिए आभार आपका। किताब कैसे मिलेगी ?

    http://cricketluverr.blogspot.in/
    http://chlachitra.blogspot.in/

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  2. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, ब्रेकिंग न्यूज़ ... मोदी बीमार हैं - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (30-05-2015) को "लफ्जों का व्यापार" {चर्चा अंक- 1991} पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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  4. सुंदर समीक्षा। इस समय समीक्षा पढ़कर यही लगा कि किसी किताब के अंदर क्‍या लिखा होता है, उसे पढ़ने की जिज्ञासा पाठकों में तब ही बनती है, जब किताब की सामग्री के बारे में समीक्षक के विचारों से परिचय होता है।

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  5. बहुत ही अच्छी समीक्षा ... आपने उत्सुकता बड़ा दी है पुस्तक के प्रति ...
    अगली बार ले के आऊंगा इसे ...

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  6. सुंदर समीक्षा पुस्तक पढने की उत्सुकता जगाती हुई।

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  7. फेसबुक पर आशा पाण्जीडे ने समीक्षा के लिये यह प्रतिक्रिया दी है --
    गिरिजा जी बहुत बहुत आभार.बहुत अच्छी समीक्छा लिखी के आपने..ये मैं इसलिये नही कह रही हूं कि आपने मेरी कहानिये की तारीफ की है बल्कि इसलिये कि आप बहुत गहरी पड़ताल की हैं.सहज भाषा मे पुस्तक को उद् घाटित किया है आपने.जिसे पढ़कर पुस्तक पढ़ने की इच्छा जागती है.वरना आप भी जानती है़ं आजकल कितने भारी भरकम वाक्यों में लिखी जाती है समीक्षा.पुनः आभार

    मैं आपके ब्लाग पर ही जवाब लिखी थी.वो आपकोsend नही हुआ.वैसे मुझे आइडिया भी कम है.

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  8. फेसबुक पर आशा पाण्जीडे ने समीक्षा के लिये यह प्रतिक्रिया दी है --
    गिरिजा जी बहुत बहुत आभार.बहुत अच्छी समीक्छा लिखी के आपने..ये मैं इसलिये नही कह रही हूं कि आपने मेरी कहानिये की तारीफ की है बल्कि इसलिये कि आप बहुत गहरी पड़ताल की हैं.सहज भाषा मे पुस्तक को उद् घाटित किया है आपने.जिसे पढ़कर पुस्तक पढ़ने की इच्छा जागती है.वरना आप भी जानती है़ं आजकल कितने भारी भरकम वाक्यों में लिखी जाती है समीक्षा.पुनः आभार

    मैं आपके ब्लाग पर ही जवाब लिखी थी.वो आपकोsend नही हुआ.वैसे मुझे आइडिया भी कम है.

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