गुरुवार, 9 जुलाई 2015

कुछ तो बात हुई है


चौराहे पर भीड़ लगी है ,
कुछ ना कुछ तो बात हुई है .
कैसे ये खिड़कियाँ खुली हैं ,
कुछ ना कुछ तो बात हुई है .
सूखा कहीं तबाही भीषण ,
कैसी तो बरसात हुई है .
उगता सूरज कैसे लिखदूँ ,
दिन में ही जब रात हुई है .
निकली कहाँ ,कहाँ गुम होगई ,
एक नदी जज़बात हुई है .
अपनेपन के दाम बढ़ गए
मँहगी हर सौगात हुई है .
हार जीत का खेल बनी जब
राजनीति बदजात हुई है .
जो समझा था, धोखा छल था
सच्चाई अब ज्ञात हुई है .

5 टिप्‍पणियां:

  1. यही अहसास हारी हुई संभावनाओं को और ज्‍यादा डरा रहे हैं।

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  2. निकली कहाँ ,कहाँ गुम होगई ,
    एक नदी जज़बात हुई है .
    बहुत खूब..गिरिजा जी
    आज के हालातों को बयाँ करती सुंदर रचना..

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  3. वर्तमान हालात वयां करती सुन्दर रचना !

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  4. जो समझा था, धोखा छल था
    सच्चाई अब ज्ञात हुई है ....
    आज के हालात पर जीवंत तप्सरा ... हर छंद हकीकत हर रहा है जिससे रोज मर्रा में सब रूबरू होते रहते हैं ...

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