शनिवार, 2 जनवरी 2016

जर्जर गातों जैसे दिन

मँहगाई सी रातें
सीमित खातों जैसे दिन ।
हुए कुपोषण से ,
ये जर्जर गातों जैसे दिन ।

पहले चिट्ठी आती थीं
पढते थे हफ्तों तक
हुईं फोन पर अब तो
सीमित बातों जैसे दिन ।

वो भी दिन थे ,
हम मिलकर घंटों बतियाते थे
अब चलते--चलते होतीं
मुलाकातों जैसे दिन ।

अफसर बेटे के सपनों में
भूली भटकी सी ,क्षणिक जगी
बूढी माँ की
कुछ यादों जैसे दिन ।

भाभी के चौके में
जाने गए नही कबसे
ड्राइंगरूम तक सिमटे
रिश्ते--नातों जैसे दिन ।

बातों--बातों में ही
हाय गुजर जाते हैं ये ,
नई-नवेली दुल्हन की
मधु-रातों जैसे दिन ।