रविवार, 1 मई 2016

कुछ ना कुछ तो....

चौराहे पर भीड़ लगी है ,
कुछ ना कुछ तो बात हुई है .

कैसे ये खिड़कियाँ खुली हैं ,
कुछ ना कुछ तो बात हुई है .

सूखा कहीं तबाही भीषण ,
ऐसी तो बरसात हुई है .

उगता सूरज कैसे लिखदूँ ,
दिन में ही जब रात हुई है .

निकली कहाँ ,कहाँ गुम होगई ,
एक नदी जज़बात हुई है .

अपनापन 'अनमोल' होगया ,
मँहगी हर सौगात हुई है .

हार जीत का खेल बनी अ
राजनीति बदजात हुई है .

जो समझा था, धोखा छल था

सच्चाई अब ज्ञात हुई है .