बुधवार, 31 अगस्त 2016

अधपकी दाल

एक ऑडिटोरियम का शानदार मंच ,सुन्दर सजावट ,लाइट ,कैमरा ..कथित सभ्य शिक्षित वर्ग के दर्शक ..कुल मिलाकर किसी राष्ट्रीय स्तर के कार्यक्रम जैसी तैयारी जहाँ फिल्मी गीतों पर छोटे छोटे बच्चों की डांस-परफॉर्मेंस थी . वह कोई निर्णायक या प्रतियोगिता जैसा आयोजन नहीं था . उसका उद्देश्य केवल बच्चों के माता-पिता को दिखाना भर था कि बच्चे कितना और कैसा सीख रहे हैं .इसी बहाने कोरियोग्राफर को भी अपना हुनर दिखाना था  खैर.... बच्चों ने जितना सीखा ,उतना दिखाया . हर प्रस्तुति के बाद तालियों की गड़गड़ाहट के साथ ,उद्घोषक-द्वय   ऑसम ,सुपर ,माइण्डब्लोइंग ऐक्सीलेंट, ग्रेट जॉब , वा..व वेलडन किड्स जैसे भारी भारी शब्दों द्वारा बच्चों के प्रयासों को गरिमा प्रदान कर रहे थे .
हालाँकि अपने मासूम बच्चों को वयस्कों के रोमांटिक गीतों पर थिरकते -उछलते और वैसा ही अभिनय करते देखकर ताली पीटते और निहाल होते माता पिता को यह बात अजीब लग सकती है कि बच्चों को अभी इस तरह प्रस्तुत करना उनके हित में नही है , क्योंकि वे अभी सीखने की प्रक्रिया में हैं .
सीखने के बीच परीक्षा या प्रदर्शन का आयोजन सीखने की गति और स्तर ,दोनों को प्रभावित करता है . समय की दृष्टि से भी और मानसिकता की दृष्टि से भी . क्योंकि जो समय सीखने का होता है वे प्रदर्शन की तैयारी में जुट जाते हैं . यह बिना पढ़े या बहुत कम पढ़े ही परीक्षा देने जैसा है . अपर्याप्त ज्ञान का प्रदर्शन हो या परीक्षा दोनों ही अनावश्यक  हैं .
अक्सर होता यह है जब कम प्रयास में ही उन्हें तालियों की गड़गड़ाहट ,और प्रशंसा में के साथ सुन्दर कीमती प्रमाण-पत्र मिल जाते हैं तो उनका ध्यान सीखने की बजाय सहज ही प्रदर्शन और पुरस्कार पर अटक जाता है .वे जो कुछ करते हैं ,पुरस्कार के लिये करते हैं . दक्षता या ज्ञान के लिये नहीं . इस तरह अनजाने में ही वे समय से पहले और अपर्याप्त कौशल के साथ ही चकाचौंध के अँधेरे में धकेल दिये जाते हैं , जहाँ मिलता है उन्हें एक भ्रम . बहुत कुछ सीख लेने का भ्रम .बहुत कुछ कर पाने का भ्रम .
इस तरह वे प्रशंसा के आदी भी होजाते हैं .कमियों को स्वीकार करने की प्रवृत्ति पनप ही नहीं पाती जो किसी के भी सुधार और विकास के लिये बेहद जरूरी है .
यह सही है कि बच्चों की प्रतिभा को पहचानना , उसे प्रेरणा ,प्रोत्साहन और एक सही दिशा मिलना बहुत जरूरी है .लेकिन साथ ही यह समझना भी जरूरी है कि चाहे शिक्षा हो या कोई भी कला ,उसे हासिल करने के लिये परिश्रम के साथ धैर्य भी बहुत आवश्यक है .
यहाँ मुझे दादी की सीख याद आती है कि जब दाल पक रही हो तब उसमें बार बार चम्मच डालकर देखना नहीं चाहिये कि गली या नही . इससे दाल गलने में देर लगती है . और उतना स्वाद भी नही आ पाता . 
सीखने के सन्दर्भ में यह बात काफी प्रासंगिक है .
दुर्भाग्य से अब ऐसा धैर्य आमतौर पर नहीं देखा जाता . बीच बीच में ढक्कन खोलकर दाल या चावल को टटोलने और अधपकी दाल परोसने की प्रवृत्ति बढती जा रही है . यही हाल स्कूली शिक्षा का है .जिसमें पढ़ाई कम और परीक्षाएं ज्यादा होतीं हैं .
सितम्बर में त्रैमासिक ,दिसम्बर में अर्द्धवार्षिक ,जनवरी के तीसरे या फरवरी के प्रथम सप्ताह में प्री-बोर्ड और फरवरी के अन्तिम या मार्च के प्रारम्भ से ही वार्षिक परीक्षाएं ..यानी पढ़ाई ठीक से हो नहीं पाती कि विभाग से परीक्षा की तिथि आ जाती है . हर परीक्षा में परीक्षा लेने से लेकर कापियों के मूल्यांकन , रिजल्ट , पालकों के साथ संवाद जैसे औपचारिक कार्यों में लगभग पन्द्रह दिन तो लगते ही हैं .यानी पूरे सत्र में कम से कम 45-50 दिन परीक्षा की भेंट चढ़ जाते हैं .
ऐसा नहीं है कि परीक्षा व्यर्थ है . परीक्षा आवश्यक भी है और महत्त्वपूर्ण भी पर पाठ्यक्रम के सही अध्ययन- अध्यापन के बाद . बेहतर हो कि वह समय पढ़ने-पढ़ाने में खर्च हो . परीक्षा की बजाय अध्ययन अध्यापन की सार्थकता पर बल दिया जाए . शिक्षक की योग्यता व पढ़ाने के तरीकों को देखा जाए और देखा जाए कि शिक्षक के दिये ज्ञान को छात्र कितना ग्रहण कर पा रहा है . जब पढ़ाई सुचारु होगी तो परीक्षा में सफलता तो स्वतः ही मिलेगी .   

अगली कड़ी में ---परीक्षा केन्द्रित शिक्षा के नुक्सान 

10 टिप्‍पणियां:

  1. विचारणीय पोस्ट..आज के समाज की सही तस्वीर..

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (02-09-2016) को "शुभम् करोति कल्याणम्" (चर्चा अंक-2453) पर भी होगी।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. आपने शिक्षा पद्धति और प्रक्रिया को काफी बारीकी से देखा है और झेला है (जैसा आपके साथ हुए संवादों से जाँ पाया हूँ) इसलिए आपने जो भी कहा वो बिलकुल सच है और उचित भी. मैं तो बिना बहस किये इसे मान लेने को तत्पर हूँ.
    लेकिन पहले अंश में जो आपने बात कही वो बहुत महत्वपूर्ण है. दीदी, मैंने बहुत से बच्चों को देखा है जिनकी प्रशंसा ने उनकी कला को समय से पहले ही नष्ट कर दिया. कई फ़िल्मी कलाकार इस बात के उदाहरण रहे हैं जो बाल कलाकार के रूप में तो सफलता के शिखर पर रहे, किन्तु बड़े होकर बेनामी के कूप में समा गए. क्योंकि उनके मं और मस्तिष्क में बचपन की प्रशंसा और तालियाँ बसी थीं. कई माँ-बाप भी बच्चे की इस "कला" को अपने लिये आय का स्रोत बना लेते हैं. एक फ़िल्म कलाकार ने अपनी माँ के प्रति अपनी नफ़रत को यह कहकर व्यक्त किया कि उसकी माँ उसे दवाइयां खिलाया करती थी ताकि उसका स्वाभाविक विकास थम जाए और वो सदा बच्ची सी ही दिखाई दे, जिससे उसे फिल्मों में बच्ची का काम मिलता रहे. बजाये इसके कि उसे बड़ा होने दे और उसके पैसे से अभिनय की शिक्षा दिलाकर एक अच्छा कलाकार बनने का सुयोग उपस्थित करे.
    मुझे लगता है दीदी, कि इस पोस्ट में आपने दो अलग अलग विषय उठाये हैं (यद्यपि उन्हें एक सूत्र में पिरो दिया है) और दोनों विषयों पर अलग-अलग विमर्श की आवश्यकता है.
    बहुत ही सार्थक विषय और ज्वलन्त भी!!

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  4. आपने सही कहा . दो अलग विषय हैं . एकरूपता केवल तैयारी बिना ही प्रस्तुति की है .चाहे वह कला-प्रदर्शन हो या परीक्षा .बिना तैयारी के उद्देश्य अधूरा ही रहता है . मेरे कथ्य का मुख्य केन्द्र भी वही है . मैं परीक्षावाली बात को आगे स्पष्ट करने का प्रयास करूँगी .आपके विचारों से मुझे हटकर सोचने का मौका मिलता है .मेरे लिये यह बहुत महत्त्व की बात है .

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  5. औपचारिकताओं और परीक्षाबाज़ी में बहुत समय और क्षमता व्यर्थ हो जाती हैं - लेकिन इससे पूरी तरह बच पाना भी संभव नहीं .एक बात और आज निष्ठापूर्वक काम करनेवाले कितने रह गये हैं ,उनकी पकड़ कैसे हो .
    बिहारी ब्लागर ने ठीक सोचा है - बहत सी बातों पर विचार करना होगा - एक सामान्य पद्धति में सब को नहीं समेटा जा सकता .

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    1. बेशक नही समेटा जा सकता माँ . वह बड़े शिक्षाविद् और विद्वान ही कर सकते हैं .मैंने केवल एक ही बात ली है कि बिना तैयारी के प्रदर्शन या परीक्षा न केवल अनावश्यक है बल्कि हानिकारक भी .चाहे कला वह किसी भी क्षेत्र में हो .

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  6. आपने शिक्षा तथा शिक्षण की विसंगतियों पर बहुत अच्‍छेे विचार रखे। गिरिजा जी आप तो व्‍याख्‍याता हैं इसलिए आप अकादामिक शिक्षा ढंग से दिए जाने को उचित कह सकती हैं तथा इस आधार पर यह आशा पाल सकती हैं कि इससे विद्यार्थी सफल हो सकेंगे, परंतु मैं (क्षमा चाहता हूँ) अकादमिक शिक्षा को जीवन के लिए उतना आवश्‍यक नहीं समझता जितना किसी बच्‍चे के विकास के लिए मैं उसकेे संतुलित पारिवारिक और सामाजिक वातावरण को समझता हूँ।

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    1. आपने सही कहा विकेश जी .बच्चे की शिक्षा व संस्कारों की जड़ परिवार से ही जमनी शुरु होती है .जैसा भी हो वही से उसका विकास होता है .शुुरु में मैंने वही कहा है कि माता-पिता बच्चों को एक अन्धी दौड़ में धकेल रहे हैं , जो पूरी तरह पारिवारिक और सामाजिक वातावरण के प्रभाव से हैं . हाँ जहँ तक शिक्षा का सवाल है विकास के लिये व्यावहारिक व सैद्धान्तिक दोनों ही तरह की शिक्षा आवश्यक हैं .दुर्भाग्य से अब स्कूलों में केवल सैद्धान्तिक शिक्षा पर जोर दिया रहा है लेकिन वह भी सुचारु कहाँ है . मैंने वही तो कहा है कि शिक्षा परीक्षा केन्द्रित होगई है तभी तो व्यावहारिक पक्ष बहुत पीछे चला गया है . पहले नैतिक शिक्षा ,आचार व्यवहार और क्रिया-कलापों पढ़ाई का अनिवार्य अंग थे . पर अब केवल परीक्षोपयोगी पढ़ाई और परिणाम मुख्य है . यह हमारी शिक्षा-प्रणाली की कमी है . हालाँकि इस आलेख के केन्द्र में मैने इससे अलग केवल एक ही बात कहनी चाही है कि अपर्याप्त ज्ञान का प्रदर्शन या परीक्षा अनावश्यक है और हानिकारक भी .

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  7. सही कहा है आपने ... आज के दौर में तेज़ी से मिलती प्रशंसा अक्सर प्रतिभा का विकास रोक देती है ... बाल उम्र में ध्यान भटक जाता है और एकाग्रता खत्म हो जाती है ... आज के तोर तरीके चाहे घर हो या स्कूल उनमें बदलाव तभी आ सकता है जब शिक्षण का स्तर सुधर जाए ... इसके लिए शायद दीर्ध कालीन नीति आज के समय अनुसार और अपनी सांस्कृतिक धरोहर को ध्यान में रख बनाई जानी जरूरी है ... और इसके अलावा घर के संस्कारों का महत्त्व भी कम नहीं है ... बल्कि आज के दौर में तो और भी ज्यादा है ...

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