शनिवार, 24 सितंबर 2016

दिवा-स्वप्न का समय नही है .


एक बार फिर उसने गैरत को ललकारा है.
सद्भावों पर जैसे यह आघात करारा है .

दिवा-स्वप्न कबतक देखोगे ?
अब तो आँखें खोलो .
कब तक व्यर्थ चुकेंगी जानें ?
कुछ तो साहस तोलो .
समझ सके ना बात समझ की ,
उसको क्या समझाना !
सीखा उसने चिनगारी सा 
जलना और जलाना .
अमन चैन से रहना उसको कहाँ गवारा है .

लगे समझने जब उदारता को कोई कमजोरी .
चोरी करके उल्टा हमें दिखाए सीनाजोरी .
बड़े प्यार से उसको उसके घर की राह दिखाओ .
अपनी ही सीमाओं में रहने का पाठ पढ़ाओ .
समझौतों वार्ताओं से कब हुआ गुजारा है ?

है इतिहास गवाह ,
कि चुप रहना डर जाना है .
औरों का मुँह तकते ही रहना  ,
मर जाना है .
छोड़ो शान्ति और समझौते ,
दो जैसे को तैसा .
अच्छी तरह बतादो 
हिन्द नहीं है ऐसा वैसा .
वीरों ने बलिदानों से ही इसे सँवारा है .

किसी शहादत पर ना हो अब कोरी नारेबाजी .
आन बान की बात नहीं है कोई सब्जी भाजी    
स्वार्थ और सत्ता से ऊपर हों अपनी सीमाएं
कोई भी गद्दार रहे ना अपने दाँए बाँए .

तर्क-भेद सब पीछे पहले देश हमारा है .

5 टिप्‍पणियां:

  1. दीदी,
    एक आक्रोश, जो आज हर भारतीय के मानस पर छाया है, को आपकी इस कविता में अभिव्यक्ति मिली है. सीमा पर और देश के अंदर भी जो माहौल बना है उसमें आपका आह्वान बिलकुल उचित है. हर कोई यही सोच रहा है.
    लेकिन राजनीति, कूटनीति या विदेश नीति की अपनी सीमाएँ हैं. वे हमसे भिन्न सोच रखते हैं.
    आपकी भावनाओं में हर भारवासी का प्रतिनिधित्वा पाकर मन श्रद्धा से भर गया!

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  2. इस आत्‍मघाती परिस्थिति पर अत्‍यंत सचेत करनेवाला तथा सुंदर गीत लिखा है। पता नहीं इस देश के शासन स्‍तर का नौसिखियापन कब दूर होगा। वैसे मजबूरी भी है दूसरी तरफ कि वामपंथियों और कांग्रेसियों के रूप में भितरघाती जो भरे पड़े हैं देश में और वे भी धन-संसाधन संपन्‍न है। देशभक्ति वाले गरीब-गुरबे हैं सब।

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  3. सही कहा विकेश जी . राजनैतिक दल काश गुप्तजी की ये पंक्तियाँ पढ़ते और गुनते --जब तक है आपस की आँच तब तक वे सौ हैं हम पाँच ,पर जब करे दूसरा जाँच तो हम है एक सौ पाँच . पर यहाँ तो अपनी अपनी रोटियाँ सेकनी हैं चाहे विस्फोटों की आग पर ही क्यों न हो ..

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  4. मन के आक्रोश को सार्थक शब्द दिए हैं आपने ... हर किसी के मन के आक्रोश को दिशा दी है ... और शायद तंत्र ने इसलिए सुनी भी है ये आवाज़ ...

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