मंगलवार, 4 जुलाई 2017

मोहभंग .

एक युग से गूंज कर
लौटती रही मुझ तक ,
मेरी ही आवाज .
और मैं सोचती रही कि
पुकारा है मुझे पहाडों ने.
बड़ा अच्छा लगता था 
यह सोचकर कि 
पत्थर भी  दिल की सुनकर
देते हैं प्रत्युत्तर  .

मेरी ही आहट से
जागती रही हैं 
मेरी खामोशियाँ
और मैं लिखती रही पातियाँ
अनाम अविराम .

दस्तक देते रहे  
मेरी साँसों के स्पन्दन
बंद दरवाजों पर ,
तलाशने कुछ खोया हुआ 
अंधेरों में .
जहाँ एक दुनिया थी .

लेकिन अब,
अहसास होने लगा है कि
चट्टानों के सीने पर
सिर रखकर रोना व्यर्थ है 
वेदना और प्रतीक्षाओं का ?

कि यह विश्वास करना  
कि पत्थर भी सुनते और बोलते हैं ,
धोखा देना है खुद को .

लेकिन इस धोखे का अहसास होना भी
शायद  ,

अंत होना है एक पूरी दुनिया का .



शनिवार, 1 जुलाई 2017

संवेदना की भाषा और निरक्षरता की पीड़ा

यह पोस्ट ब्लॉग की पहली पोस्ट है . लेपटॉप में खराबी आ गई है .  नई पोस्ट अभी संभव नहीं लेकिन चार माह से निष्क्रिय पड़े ब्लॉग को जारी रखने इसे दिया है . 


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वाणी अम्मा अब काम पर नहीं आती . लगभग दो माह से वह बीमार सी दिख रही थी . अक्सर नागा भी करने लगी थी ।अब बिल्कुल नही आरही ।अभी दो दिन पहले ही सरोज अम्मा से पता चला कि डाने वाणी अम्मा को कैंसर बताया है  सरोज अम्मा नीचे सामने वाले घर में काम करती है वह
 हिन्दी समझ लेती है और टूटीफूटी बोल भीलेती हैउसी 
तरह जिस तरह चलना सीखरहा बच्चा लडखडाते हुए ही 
सही कुछ कदम तो चल ही लेता है  
इस दुखद सूचना से हम सब स्तब्ध हैं ।दुखी भी हैं ।वाणी अम्मा पिछले चार साल से हमारे यहां काम कर रही थी ।गहरे रंग.छरहरे बदन और सरल हँसी वाली तमिल-भाषी वाणी अम्मा इतने समय में हमसे इतनी घुल-मिल गई थी कि हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी का एक हिस्सा ही बन गई थी ।भाव संचार के लिये भाषा का माध्यम  होनेपर भी वह अपना सुख-दुख प्रकट करलेती थी ।जैसे कि मैं जब भी बैंगलोर आती ,वह अचानक सुबह-सुबह मुझे घरमें देख खुशी के मारे दोनें बाँहें फैला कर कहती--...अम्मा----।इसी तरह जब मैं उसे उदास देख कर उसके कन्धेपर हाथ रख कर उदासी का कारण पूछती तो वह मेरे कन्धे पर सिर टिका कर फफक कर रो पडती थी ।तब मैं यहसमझकर कि इसके साथ कोई गहरा दुख जुडा है ,उसे सान्त्वना तो दे देती थी पर......।मैं मानती हूँ किप्रेम,पीडा,आनन्द,घ्रणा .आदि भाव व्यक्त होने के लिये शब्दों के मोहताज नही है। संवेदना की भाषामानवीय,सर्वमान्य,और सर्वकालिक होती है ।वैसे भी उसे जो कुछ व्यक्त करना होता था कर लेती थी ।उसे कुछशब्द अंग्रेजी के ---बकेट,सोप,क्लिप आदि---आते ही थे बाकी कामों ---खाना कपडा माँगने--वह संकेतों से काचलाती थी ।उसके लिये शायदयही काफी था ।पर मेरे लिये इतना काफी नहीं है ।मैं जानना चाहती हूँ कि उसनेचप्पलें पहनना क्यों छोड दिया  कि ,वह बडे जतन से खाना बचा कर किसके लिये ले जाती है 

कि ,सरोजअम्मा के कथनानुसार उसका बेटा उसे घर से चाहे जब निकाल देता है तो क्यों उसका विरोध करने कीबजाय उसकी फिक्र करती है ।और कि ........और  जाने कितनी बातें ।मेरे लिये आँसू और मुस्कान की भाषा सेआगे और ज्यादा महत्त्व शब्दों की भाषा का है ।वस्तुतः मानव जीवन दूसरे जीवनों से अभिव्यक्ति की क्षमता केकारण ही तो अलग है ।एक दूसरे की व्यथा-वेदना को,भाव-संसार को जानना ही नही उसे पूरी तरह समझना भीजरूरी है  मेरा मानना है कि अपने आस-पास से ...जमीन से जुडे बिना आत्मीयता नहीँ आसकती ।और जुडावभाषा-संवाद के बिना नहीं होता ।मुझे यह अखरता है कि मैं बडे-बडे सिन्दूरी फूलों वाले और जहाँ-तहाँ विशालछतरी की तरह फैले गुलाबी फूलों वाले इन पेडों के नाम भी नही जानती , या कि किसी प्रतिमा को सजा कर फूलबरसाते हुए बैंड-बाजों के साथ जो जलूस निकला वह क्या ,कौनसा उत्सव था ।क्यों कि मुझे यह सब समझाने वालीभाषा उन्हें नही आती जो इसे जानते होंगे  अगर सरोज नही होती तो वाणी अम्मा के बारे में हमें कहाँ से पताचलता 

भाषायी समझ की आवश्यकता के अनुमान के लिये एक और प्रसंग याद आरहा है ।एक सुबह जब मैं पार्क में टहलही थी एक हमउम्र महिला की अपनत्व भरी सी मुस्कान ने मुझे संवाद के लिये प्रेरित किया ।पर विडम्बना यह किउन्हें अंग्रेज तक नही आती (,हिन्दी की तो बात ही नही है ) और मुझे कन्नड ।विवश होकर हमें मुस्कान औरअभिवादन तक ही सीमित रहना पडा 
बैंगलोर आकर मुझे निरक्षरता की पीडा का अहसास होता है ।जब मैं केवल कन्नड में(अंग्रेजी नही ) लिखी सूचना विज्ञापनों को देखती हूँ,तो  पढ पाने की बेवशी कचोटती है ,एक अँधेरे का अनुभव होता है  ।अक्षर -ज्ञान कीमहत्ता  आवश्यक समझ आती है  अक्षर उजाले का स्रोत हैं , दिमाग के दरवाजों की कुन्जी है ।चेतना के द्वार हैं ।अक्षर जमीन हैं आसमान हैं