बुधवार, 17 अप्रैल 2019

हिमाचल में सात दिन भाग --5 बर्फ में आग

बर्फ में आग 
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कटराई में होम स्टे 
आज की सुबह बहुत ही खूबसूरत और ताजगी भरी थी . ताजगी नींद अच्छी तरह से पूरी होने की तो थी ही, साथ में वहाँ का वातावरण भी बड़ा मोहक था .हल्की सुहानी सर्दी ,चारों ओर सेव, आलूबुखारा , नाशपाती और आडू के पेड़ ,उनमें कलरव करते पक्षी , लॉन में जगह जगह लाल, सफेद और गुलाबी गुलाबों लदी झाड़ियाँ , दूब का कोमल कालीन और निरभ्र आकाश प्रकृति की शुचिता व सौन्दर्य का जैसे उत्सव मना रहे थे  .
टहनियों में आलूबुखारे ,सेव और नाशपाती अभी शैशवावस्था में थे .हवा जैसे उन्हें झूला झुला रही थी .

"सर यह वह समय है जब फूल झर चुके हैं और फल बहुत छोटे हैं . एक माह पहले सभी पेड़ फूलों से लदे हुए थे .वह देखने लायक होता है . अगर आप अगस्त सितम्बर में आते तो डालियाँ सेव नाशपाती आलूबुखारे के फलों से लदी देखना भी एक अनोखा अनुभव है .अगली बार आए तब ऐसा ही कोई समय चुनें ."—बहुत शिष्ट और विनम्र गृहस्वामी ने बड़ी आत्मीयता से बताया . मै सोच रही थी कि अब भी अनुभव क्या कम प्यारा है ! 

प्रशान्त वैसे तो स्वभाव से ही बच्चों जैसा सादा सरल है पर ऐसे समय उसका उत्साह छलका जाता है .उसे सुबह किसी का बिस्तर में रहना बिल्कुल नापसन्द है उसपर सुबह इतनी सुहानी हो ,उसने सबको  जगाया . सुलक्षणा एक तो थकी हुई थी फिर हमेशा ड्यूटी की भाग-दौड़ और तनाव से मिले दुर्लभ अवकाश में वह मीठी नींद के आनन्द को खोना नही चाहती थी इसलिये वह मुझे ही बाहर खींच ले गया और सेव के कुंजों में दूर तक टहलता रहा .उधर टहनियों के झुरमुट से किरणें झाँकने लगीं और इधर प्रांगण में ही नाशपाती के पेड़ के नीचे , दूब के फर्श पर एक पेड़ के तने पर बड़ी कलात्मकता से बनाई टेबल पर हमारे लिये चाय बिस्किट तैयार थे . यह सब देख मैं अभिभूत थी .सचमुच धन का ऐसा व्यय मुझे अपव्यय नहीं लगता है .
आलू के पराँठे, दही ,अचार ,पापड़ ,पपीता आदि का स्वादिष्ट नाश्ता लेकर हम लोग निकल पड़े . आज हमें हम्फ्टा वैली और सोलांग घाटी जाना था .
हम्प्टा वैली ---
यों तो हम्प्टा हिमाचल के श्रेष्ठ ट्रेक्किंग स्थलों में से एक है लेकिन हम सबका आकर्षण था बर्फ तक पहुँचना . उसे छूना ,फिसलना .रोहतांग तक जाने का लेह मार्ग किसी कारण से बन्द था इसलिये हम्प्टा जाना ही तय हुआ .यह हमारी सबसे रोमांचक , कुछ कठिन लेकिन लुभावनी यात्रा थी .
गाड़ी ने हमें यहाँ छोड़ा
हम्प्टा वैली लगभग 4200-300 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है . वहाँ जाने के लिये अलग जूते व ट्रैक सूट लेना होता है .अलग गाड़ी ड्राइवर भी जिसकी व्यवस्था शायद स्थानीय प्रशासन की ओर से होती है या फिर निजी सेवा द्वारा . हमने अपने नाप और पसन्द के जूते व ट्रैक सूट लिये . और चल पड़े .हमारा ड्राइवर ट्रैवलर के साथ नीचे ही रुक गया .मुझे इतना तो नही मालूम कि हमें कितनी ऊँचाई तक ले जाकर गाड़ी ने छोड़ा लेकिन वह शायद कोई चेकपोस्ट थी जहाँ से ट्रैक शुरु होता है .वहाँ हमने ट्रैक सूट व जूते पहने . एक छड़ी भी मिली सहारे के लिये . कार्तिक की माँ और पिताजी वहीं रुक गए .
शुरु में तो चलने में बड़ा उत्साह रहा .पर जल्दी समझ आगया कि बात उतनी आसान नही है .ऊँचाई पर जाना सचमुच आसान नही होता चाहे ऊँचाई भौगोलिक हो या ऐतिहासिक .सैद्धान्तिक हो या व्यावहारिक . उस पर पहुँचना और फिर वहाँ टिके रहना तो और भी कठिन है . रास्ता कहीं सँकरा  और पथरीला था और कहीं जगह जगह रिसते पानी के कारण फिसलन भरा .भी था . पाँव मन मन भारी हो रहे थे लेकिन लक्ष्य के प्रति मोह रास्ते की परवाह कहाँ करता है . बर्फ तक पहुँचना हमारा लक्ष्य था इसलिये पैरों की न मानकर हम मन के साथ थे .दूर तक चढ़ने के बाद एक चमकती सफेद पट्टी सी दिखी . प्रशान्त व कार्तिक ने एक साथ  उत्ल्लातेजित होकर कहा -- वो देखो बर्फ .     
मेरा मन बुझ सा गया . इस जरा से टुकड़े के लिये हम इतनी दूर कठिनाई को नजरअन्दाज करके साँस रोके चले आए ! कल्पना में तो बर्फ का लम्बा-चौड़ा मैदान था . 
"वहाँ पहुँचकर तो देखिये आंटी जी !" कार्तिक मुस्कराया .मैंने दो-चार गहरी साँसें लेकर खुद को आराम दिया .वैसे भी वही ठहरकर रह जाने का तो सवाल ही नही था . सोच लिया कि वहाँ पहुँचना ही है तो बस पाँव चल पड़े . हमारे और बर्फ के बीच एक लम्बा हरा भरा  सपाट अन्तराल था . बीच बीच में बर्फीले पानी के छोटी छोटी नालियाँ बह रही थीं . बाजू में खड़ी चट्टानों वाला शिखर शीश ताने अटल खड़ा था ,नीचे .बर्फीले पानी की शुभ्र निर्मल धारा कलकल कुलकुल करती बह रही थी .उत्साह भरने के लिये काफी था. अन्ततः हम बर्फ तक पहुँच गए थे .वहाँ बर्फ सचमुच ही एक सँकरी पट्टी में थी विस्तार काफी ऊँचाई पर था पर लोग उतनी ही छोटी हिमपट्टिका पर मुग्ध थे . बर्फ के लिये हमेशा से ही कैसा आकर्षण था . ओले बरसते तब यह जानते हुए भी कि ओले फसल को तबाह कर देते हैं , हम लोग उन सफेद कंचों को हथेली में रख कितने पुलकित होते थे .    
बर्फ में बैठना फिसलना सचमुच एक अनौखा ही अनुभव था .यह जीरो पॉइंट (सिक्किम वहाँ ठण्ड बर्दाश्त से ऊपर थी ) से अलग, भला सा उत्साहजनक अनुभव . धूप और ठिठुरन का अनूठा मेल . वहीं बर्फ के बगल में ही आग जलाकर गरम गरम मैगी खिलाने वाली दो चार उद्यमी महिलाएं भी अपना साज-सामान लिये बैठी थीं और मैगी खाने का आग्रह कर रही थीं . हैरानी की बात यह कि ये नीचे से पैदल ही ,सिर पर सामान लादे चढ़कर यहाँ तक आतीं हैं .कहीं कहीं जीवन कितना कठिन होता है . 
बर्फ में आग 
इनसे मैगी जरूर लेना चाहिये –हमने सोचा . ऊँची सर्द जगहों पर गरम गरम मैगी की प्लेट किसी नियामत से कम नही लगती .मुझे लगा ये महिलाएं जीविका से कहीं बहुत ज्यादा पर्यटकों की सेवा कर रही है .जीविका कितनी कमा पातीं होंगी .स्वच्छता के प्रति जागरूकता ऐसी कि जूठी प्लेटों व चाय के कपों के लिये अलग कट्टा रखतीं हैं . और खुद ही उठा ले जातीं हैं . मैं नत होगई उनकी जीवटता देखकर . हमने लगभग एक घंटा वहाँ बिताया .सभी लोग बर्फ पर खूब फिसलते खेलते रहे . 
लौटना अपेक्षाकृत आसान रहा . मन न जाने कैसी कृतज्ञता और आनन्द से भरा हुआ था----
हिमालय तुम सचमुच महान हो .सजग प्रहरी .अनेक जीवनदायिनी नदियों के जनक.. तुम्हें धरती का ताज यों ही नही कहा जाता .
 शाम को खूबसूरत सोलांग घाटी गए जहाँ रोहतांग के लिये सुरंग का काम चल रहा था . वहाँ सबने रोप वे का आनन्द लिया . रात को देर तक मन आँखें हम्प्टा वैली की सैर करतीं रहीं .    

4 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल गुरुवार (18-04-2019) को "कवच की समीक्षा" (चर्चा अंक-3309) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. आपके शब्दों में चमत्कार है... एक ऐसा जादू जो शब्दों के अर्थ को जीवंत कर देते हैं. आपकी कविता, कहानी, आपबीती, खण्ड काव्य सब पढ़ा और हर बार बस चमत्क्रित हुये बिना नहीं रह पाया.
    देव्भूमि हिमाचल का इतना सजीव वर्णन हर दृश्य ही सामने नहीं उपस्थित होता, अपितु हर दृश्य दिखाई पड़ता है, आँखों के सामने. जब भी आपको पढता हूँ, सीखता हूँ.

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  3. सेव, आलूबुखारा, नाशपाती, आडू और हम्प्टा वैली ... आपके चमत्कारी शब्द और हिनालय की गोद ... एक चित्र सा उभरने लगता है ज़हन में ... देवभूमि में प्राकृति ने खुल के आपका रूप वितरित किया है जिसका रस-स्वाद किस्मत पाले ही ले पाते हैं ...

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