गुरुवार, 27 जून 2019

हिमालय के कोट में टँका हुआ फूल


भाग--1 एक परदेश अपना सा
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जब हिमालय की बात होती है तो कल्पना में या तो देवदार के शानदार वृक्षों ,सघन हरियाली से आवृत्त असंख्य पर्वत शिखर और शरारती चंचल बच्चों से कल कल चलते हुए दूधिया झरने होते हैं या फिर हिम का ताज पहने सगर्व शीश ताने उत्तुंग शिखर . प्रशान्त के साथ देखे सिक्किम और 'हिमाचल' का सौन्दर्य अभीतक दिल-दिमाग से उतरा नहीं था . जब मन्नू (मँझला बेटा विवेक) ने भूटान-भ्रमण की योजना के बारे में बताया तो कल्पनाएं एक बार फिर हिमालय की रमणीय गोद में जा लेटीं . हालाँकि मन में लोकसभा चुनाव का व्यवधान था . 
उस समय तक चुनाव की तारीख भी घोषित नहीं हुई थी . सन् 2014 में चुनाव अप्रैल के अन्तिम सप्ताह में होगए थे उसी के अनुसार मैंने अनुमान लगाया था कि ज्यादा से ज्यादा मई के प्रथम सप्ताह तक चुनाव हो जाएंगे . इसी आधार पर मन्नू ने 9 मई की टिकिटें बुक करवा लीं . लेकिन निराशा तब हुई जब ग्वालियर में चुनाव पाँचवे चरण यानी 12 मई को होना तय हुआ . तो मेरी सारी कल्पनाएं धूल में मिल गईँ . चुनाव में ड्यूटी थी . न होती तब भी हर तरह का अवकाश प्रतिबन्धित था .मुख्यालय अवकाश तो किसी भी सूरत में नहीं ..
मन्नू , मेरा जाना संभव नहीं . तुम लोग चले जाओ .—मैंने कहा तो मन्नू और नेहा बोले – 
मम्मी जो भी हो हम आपको लेकर ही चलेंगे .
तीस्ता डैम पश्चिम बंगाल
और उन्होंने 9 मई के टिकिट कैंसल कर 16 मई के टिकिट बुक कराए . 12 को चुनाव सुचारु रूप से सम्पन्न हुआ . मैं पन्द्रह को बैंगलोर पहुँच गई और इस तरह 16 मई की सुबह हम लोगों ने बागडोगरा के लिये प्रस्थान किया .विहान बहुत खुश था क्योंकि मैं उसके साथ थी और मैं भी बहुत खुश थी कि पूरे दस दिन मैं और विहान साथ रहने वाले हैं .
बागडोगरा हम लगभग ग्यारह बजे पहुँच गए . वहाँ अविनाश (ड्राइवर) इनोवा के साथ हमारी प्रतीक्षा कर रहा था . सिलीगुड़ी होते हुए हम जयगाँव की ओर चल पड़े . यह पूरा सफर सफर काफी मनोरम था .सिलीगुड़ी से तीस्ता डैम तक तो रास्ता बेहद ही खूबसूरत है . साफ पानी से भरी पूरी चौड़ी तीस्ता नहर के किनारे कतारबद्ध खड़े पेड़ पानी के दर्पण में अपना रूप निहारते हुए विमुग्ध थे . बढ़िया चौड़ी सड़क पर हमारी इनोवा दौड़ नही रही जैसे पानी में तैर रही थीं .विशाल तीस्ता डैम जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि तीस्ता नदी पर बना है .नीले-हरे जल वाली वही तीस्ता जो सिक्किम में हर जगह हमारे साथ थी .
जयगाँव---
चारों ओर चाय के खूबसूरत बागानों से घिरा जयगाँव पश्चिम बंगाल का ही नहीं भारत का भी अन्तिम शहर हैं और सीमा भी है फिर भी मुझे काफी उपेक्षित सा लगा . अव्यवस्थित  भीड़ भरा बाजार सफाई का नाम नहीं . सड़क भी कहीं कहीं खराब थी. ऐसा शायद इसलिये लगा क्योंकि हम शायद मुख्य बाजार से नहीं निकले थे .इसलिये जाते समय हमें भूटान का वह सुन्दर प्रवेश-द्वार भी नहीं मिला जो हमें लौटते हुए मिला था .और इसीलिये हमें पता ही नही चला कि कहाँ से विदेश की धरती आरम्भ होगई 
फुंशुएलिंग की फुहारों नहाई सड़क 
"जहाँ से भीड़भाड़ रहित साफ सुन्दर सड़क शुरु हो जाए वहीं समझ लें कि हम भूटान में आ गए .”–अविनाश ने कहा था.
" क्या !" 
जी हाँ आपको केवल सड़क देखकर ही पता चल जाएगा कि अब आप इण्डिया में नहीं ,भूटान में हैं .
मुझे थोड़ा अजीब लगा पर सच यही था .भूटान की सड़कें सचमुच बहुत साफ सुथरी व सुन्दर हैं . इसके पीछे वहाँ जनसंख्या की कमी और प्रशासन की सजगता दोनों ही तथ्य हैं . 
मुझे ध्यान आया कि सड़क पर देहरी जैसा हल्का सा गतिरोधक और छोटी सी चैकपोस्ट पार की थी वही भूटान की सीमा रेखा थी . अजीब बात . हम दूसरे देश में आराम से आगए न किसी ने रोका न टोका .
मैडम भूटान में सात कि.मी. तक बिना पासपोर्ट या परिचयपत्र के आ जा सकते हैं .—अविनाश ने बताया-- भूटान के लोग जयगाँव में आकर सब्जी –सामान खरीदते हैं और जयगाँव के लोग भूटान में सुबह सैर-सपाटा करते हैं .
जयगाँव का विहंगम दृश्य
वाह ,क्या बात है . पड़ोस हो तो ऐसा हो .  
उजाला रहते हम फुएन्शुलिंग पहुँच गए . भूटान का यह शहर जयगाँव से लगा हुआ है . यहीं भूटान भ्रमण के लिये परमिट लेना होता है .और फोटो ,फिंगरप्रिंट आदि औपचारिकताएं पूरी करनी होती हैं .
सर सुबह जल्दी परमिट का काम निपटा लें .ताकि थिम्पू समय से पहुँच जाएं . और क्योंकि कल शनिवार से दो दिन छुट्टी रहेगी . ऑफिस बन्द रहेंगे . आपको मुश्किल होगी.. .—अविनाश ने पहले ही ही बता दिया था .
हमने पार्क होटल में रात्रि विश्राम किया .
नेहा (निहाशा) के साथ
होटल की खिड़की से सुन्दर सड़क बाजार और सुदूर हरी भरी चोटियों देखते हुए मन पुलक और रोमांच से भर गया .अपने देश से बाहर परदेस की धरती पर यह मेरा पहला कदम था. पर वास्तव में अभी परदेस का एहसास बिल्कुल नही हो रहा था . न लोग न भाषा . न पासपोर्ट की जरूरत न अँग्रेजी की बध्यता . सब हिन्दी बोल समझ रहे हैं . खाना भी अपने होटलों जैसा ही था.. 
सुबह चाय नाश्ता लेकर हम लोग परमिट के ऑफिस (जो पार्क होटल के पास ही है ) गए . नेहा और विवेक के प्रयासों से ग्यारह बजे तक सारी औपचारिकताएं पूरी होगईं . इस तरह के कार्यों में नेहा बहुत ही कुशल और सक्रिय है . टिकिट बुकिंग से लेकर , भ्रमण की सारी योजना , दर्शनीय स्थान , दिन ,होटल ,ड्राइवर सब कुछ उसी ने तय की थी जो काफी व्यवस्थित और शानदार थी .
लंच के बाद अब हम थिम्पू जाने के लिये ड्राइवर की प्रतीक्षा कर रहे थे . अविनाश का साथ बागडोगरा से फुन्शुएलिंग तक ही था . अब गाड़ी और ड्राइवर दोनों ही नए लेने थे . काफी देर बाद ड्राइवर आया . विकास नाम का वह नेपाली युवक हमें काफी चुस्त-दुरुस्त और भला लगा .लेकिन लम्बी प्रतीक्षा की खीज उस पर उतरे बिना न रही .
फुएनशुलिंग से थिम्पू लगभग 175 कि.मी. है जैसा कि अविनाश ने बताया था . पहुँचने में पाँच से छह घंटे कम से कम लगेंगे ही . उस समय दो बज रहे थे .मन्नू ने कहा--
आने में काफी देर करदी विकास भाई ,हम कबसे इन्तजार कर रहे हैं . थिम्पू पहुँचते रात होजाएगी .जबकि हमें जल्दी पहुँचना था .
सर आप चिन्ता न करें . सब मेरे ऊपर छोड़दें आपको कोई परेशानी नही होगी .”-विकास ने मुस्कराते हुए विनम्रता के साथ कहा .
चूखा में गुलाब
फुंशुएलिंग से ही चढ़ाई और पहाड़ों का सौन्दर्य शुरु होता है .पूरे रास्ते आँखें इनोवा की खिड़की पर लगी विमुग्ध होती रही . सुन्दर सर्पिल सड़क पर जब लहराती हुई गाड़ी सड़क के मोड़ों को गिनती हुई पहाड़ों की ऊँचाइयों को नाप रही थी ,मुझे सिक्किम याद आ रहा था .बिल्कुल वैसे ही पेडों से ढँके-छुपे हरियाले पहाड़ , वैसे ही पहाड़ की परिक्रमा करते ऊपर नीचे झूलते हुए से रास्ते , ऊँचे पेड़ों की ओट से आँख-मिचौनी खेलता आसमान ,रोम रोम में स्फूर्ति भरती ताजी हवा , जहाँ तहाँ पत्थरों की खामोशी को तोड़ते खिलखिलाते छोटे छोटे झरने , और अकेले में भी खुशी का इज़हार करते जाने अनजाने फूल...मन उल्लास व ऊर्जा से भरता जा रहा था.
सिक्किम और भूटान एक सी ही धरते के दो लाल .शासन के अलावा केवल भवन निर्माण कला और सुन्दर चौड़ी सड़क सिक्किम को भूटान से अलग करती है . यह बात अलग है कि थिम्पू तक यह सड़क हमारे देश के सहयोग से ही बनी है .
पेड़ों के कन्धों पर सोए बादल
बीच में चूखा नामक स्थान पर चाय पानी के लिये कुछ देर रुके . मौसम और भी सुहाना होगया था . बादल पेड़ों के कन्धों पर आ टिके थे . सुदूर सामने एक झरना हरे कुरते में टँकी मोती की लड़ी जैसा लग रहा था या कि जैसे हरी स्लेट पर किसी बच्चे ने खड़िया से टेढ़ी मेढ़ी सी लकीर खींच दी हो . चूखा बेहद खूबसूरत जगह है .यहाँ बेशुमार खिले गुलाब के बड़े बड़े फूल ललचाते हैं . उनका आकार चकित करता है कि आखिर इस मिट्टी में ऐसा क्या जादू है .
चूखा में भारतीय सड़क संगठन का कैम्प है . वांग चू (नदी) पर भारत के ही सहयोग से बनी विद्युत जल परियोजना है .यह भूटान की आय का महत्त्वपूर्ण घटक है . भारत बड़े पैमाने पर भूटान से बिजली खरीदता है ...यह सब विकास बता रहा था . मेरा ध्यान तो गुलाव के बड़े बड़े फूलों में अटका था .
फुनशुएलिंग से थिम्पू तक कितने पहाड़ पार किये याद नहीं . जब ऊँचाई पर दौड़ती हुए गाड़ी घूमती हुई नीचे उतरती तब समझ में आता कि अब दूसरा पहाड़ चढ़ना है . यों चढ़ते उतरते ही वह सुन्दर लेकिन लम्बा रास्ता पूरा किया . अगर सपाट रास्ता होता तो वह दूरी बहुत सिमट गई होती . बीच में एक पुल मिला .उसके पार बाईं तरफ रास्ता था . विकास ने कहा कि यह पारो की तरफ जाता है .हमारा अन्तिम पड़ाव पारो में ही था .   
सूरज पहाड़ों के पीछ उतर गया था .साँझ पहाड़ों को सुला रही थी .हवा हल्की थपकियाँ दे रही थी . दूर से जगह जगह बेशुमार जुगनू से चमकते दिखने लगे तो पता चला कि हम थिम्पू पहुँच रहे हैं .

जारी ........

रविवार, 16 जून 2019

आखिरी स्तम्भ



वर्त्तमान कितना निस्संग होता है . साथ चलते चलते बिना बताए ही अपने हाथ छुड़ाकर अदृश्य हो जाता है . हम केवल हाथ मलते रह जाते हैं . अभी जैसे कल की ही बात है जब जिन्दगी शुरु हुई थी . आगे सुनहरा भविष्य था . हमें स्नेह और संरक्षण देने वाले लोग थे जिनके कारण घर घर था . आँगन में ममत्त्व की सघन छाँव थी .. हर त्यौहार बहुत प्रतीक्षित व उल्लासमय हुआ करता था . सावन में बादल ज्यादा घनघोर और बौछारें ज्यादा सुहानी हुआ करतीं थीं . दीपावली ज्यादा जगमगाती थी . होली के रंग अधिक गहरे हुआ करते थे . इतने गहरे कि चार पाँच दिन केवल रंग उतारने में लगते थे . सर्दियों की शामें अलाव के आसपास बैठकर खूब गपशप में गुजरतीं थीं और गर्मियों की दुपहरियाँ ताश , पँचगुट्टे , और अष्टा-चंगा जैसे खेलों में हार जीत पर झगड़ते और फिर हँसते हुए..कोई चिन्ता नहीं ,कोई तनाव या खींचतान नहीं....
बड़े हुए तो जिन्दगी ने कड़वे-तीखे अनुभव कराए , हँसाया ,रुलाया और डराया भी पर कुछ स्नेहमय हाथ थे जिन्होंने थाम लिया , गले लगाकर सम्बल दिया . तब से पता ही न चला कि कितना पानी बह गया नदियों में . कितने वसन्त पतझड़ गुजर गए ...आज मैं मुड़कर देख रही हूँ तो लगता है ,मैं एक उजाड़ में खड़ी हूँ जहाँ अब किसी पेड़ की छाँव नहीं बची . समय के ठेकेदार ने घर आँगन में खड़े पाँच के पाँचौ सघन वृक्ष काट डाले हैं . चारों ओर वैशाख जेठ की धूप है . पीहर की देहरी आज कितनी सूनी और उदास है....
बड़े ताऊजी ,काकाजी (पिताजी),  छोटे ताऊजी ,जिया ( माँ ) और अब ....बड़ी जिया भी चली गईं .एक पीढ़ी जो एक सुनहरा वर्त्तमान थी , अब अतीत हो गई है . जीते-जागते लोगों का यों इतिहास में बदल जाना कितनी असहनीय सी घटना है हालाँकि वह अनिवार्य है . हम जीवन के अन्त को रोक नहीं सकते , रोज देख भी रहे हैं जिन्दगियों को जाते हुए पर अपनों का जाना कितना विशिष्ट और पीड़ादायक होता है . ज्ञानी कहते हैं कि मोह दुख का कारण है .पर मुझे आत्मज्ञान नही हुआ .मैं अभी तक अनुराग और मोह से ग्रस्त हूँ . रक्त और स्नेह के सम्बन्ध की जड़ें बहुत गहरी होतीं हैं ,जब पेड़ उखड़ता है तो उतना ही गहरा गड्ढा बनता है जिसे भरने के लिये जाने कितनी बारिशों की दरकार होती है .बचपन
लम्बा कद ,गोरा रंग ,अनुभवों की चमक लिये भोली सी आँखें और विशाल हृदय वाली स्नेहमयी बड़ी जिया , जिया ( मेरी माँ ) से लगभग छह सात वर्ष बड़ी थीं . दोनों बहिनों में अटूट स्नेह था पर सहोदरा होकर भी अनेक बातों में दोनों अलग थीं . माँ जहाँ साहित्य धर्म ,पौराणिक कथाओं , परमार्थ ,समाज सेवा आदि से प्रेरित थीं ,वैसा ही उनका जीवन था .जिन्दगी की शुरुआत ही अनेक दायित्त्वों और चुनौतियों से हुई थी . अस्त्र-शस्त्र विहीन योद्धा की तरह वे मुश्किलों से लड़तीं रहीं . आराम से बैठकर सोचने समझने की अनुमति उन्हें जिन्दगी ने कभी दी ही नही . माँ से हमें आदर्शों से परिपूर्ण जीवन-दिशा व संस्कार मिले वहीं बड़ी जिया से स्नेह और नियंत्रण-मुक्त बचपन की अनुभूति, जिसे हर बच्चा चाहता है . वे बच्चों को ज्यादा रोकतीं टोकतीं नहीं थीं . हम जो भी करना चाहते वे कहतीं ठीक है पर ध्यान रखना कहीं चोट
बड़ी जिया बीस साल पहले 
न लगा लेना .प्यार और संरक्षण बचपन के लिये ठोस जमीन तैयार करता है जो बड़ी जिया ने हम सबको बखूबी दिया. मैंने कभी उन्हें नाराज होते नहीं देखा . ज्यादा से ज्यादा आँखों में ,वह भी पल भर में मुस्कान का रूप ले लेता था . 
बड़ी जिया एक अच्छी गृहणी थीं . उनकी सीमा रेखा बच्चे घर-परिवार की व्यवस्था ही थी . जब लक्ष्य और सीमाएं छोटी होती हैं तो प्राप्ति सरल और व्यवस्था सुचारु होती है .एक ओर बहुमुखी प्रतिभा की स्वामिनी दादी का कठोर अनुशासन और दूसरी ओर धीर गंभीर ताऊजी का स्नेहमय और दायित्त्वपूर्ण संरक्षण . इसलिये उन्हें जीवन को समझने का पर्याप्त समय मिला .स्नेह और अनुशासन में ढली बारह साल की बालिका-वधू से लेकर 86-87 वर्ष की कुल मिलाकर दर्जन भर नन्हे मुन्नों की परदादी और परनानी बड़ी जिया ने जीवन के सभी रंग देखे . जीवन के यथार्थ को अपनेपन के साथ जिया .काफी कुछ सीखा .
उनके हाथों में गजब की कला थी .कला चाहे रसोई की हो या कसीदाकारी और चौक पूरने की हो, उनका कोई जबाब नहीं था . उनके हाथों के बने तमाम तरह के अचार ,पापड़, दही बड़े ,जलेबी आज भी कहावत की तरह इस्तेमाल होते हैं . उनके हाथों की बुने आसन दरी ,चटाइयाँ ,पंखे ,कागज की टोकरियाँ हस्तकला का बेहतरीन नमूना हैं . सफेद खद्दर की सस्ती साड़ी को भी रँगकर लेस या बूटों से सज्जित कर इतनी सुन्दर बनाकर पहनतीं थीं कि कीमती साड़ियाँ शर्मिन्दा हो जाएं . 2006 तक ( ताऊजी के रहते ) कभी न उनकी ऐड़ियों से महावर छूटा न हाथों की मेहदी .उन दिनों की उनकी बड़ी बड़ी झुमकियाँ, पाजेब ,लाख के नग जड़े कंगन सब मुझे आज भी किसी खूबसूरत दृश्य की तरह याद हैं .
माँ की तरह ही प्यारी बड़ी जिया के साथ रहने का मुझे बहुत कम समय मिला पर जितना भी मिला उसकी अनुभूति आज भी सुहानी ताजी हवा की तरह यादों के गलियारे से गुजर जाती है .
समझदार लोग कहते हैं कि वर्त्तमान में जिओ अतीत को मत देखो और भविष्य को मत सोचो लेकिन अतीत के बिना वर्त्तमान अधूरा है और भविष्य अँधेरे में . अतीत और वर्त्तमान ही भविष्य तय करते हैं . अतीत में जीते रहना निस्सन्देह ठीक नहीं लेकिन उसे  भूलकर जीना यथार्थ से पलायन करना है . अपनी जड़ों को नकार कर जीना है . बिना जड़ के कोई वृक्ष भला कितना हराभरा और स्थिर रह सकता है . बचपन की जमीन वृक्ष को पोषण और संरक्षण देती है .
बड़ी जिया महाप्रयाण से एक माह पहले 
बड़ी जिया ताऊजी काकाजी की पीढ़ी के भवन का आखिरी स्तम्भ थीं . जो छत को सम्हाले हुए थीं . 
 अब वे सब कुछ केवल सजल यादों के रूप में हैं लेकिन अनवरत पढ़े जाने वाले एक पाठ की तरह ,जो जीवन की तमाम परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने के लिये अनिवार्य है , एक एलबम की तरह , एक सन्दूक जैसी जिसमें बहुत सारी बहुमूल्य वस्तुएं संजो रखी हों . और अब चारा ही क्या है .
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