शुक्रवार, 19 जून 2020

मैं भी तो ....


घरेलू हिंसा पर आमंत्रित एक लघुकथा 
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देखो सुमी, वह दूसरे की बच्ची है उसकी जिम्मेदारी तुम कैसे ले सकती हो ! हाँ वह अनाथ होती तो मैं मना नहीं करता . उसकी दादी है, चाचा-चाची हैं , कल किसी बात को लेकर उल्टा तुम्ही पर कोई इल्ज़ाम लगा दिया तो ? रुक्मी को क्या तुम नहीं जानतीं !..याद नहीं पिछली बार रुक्मी ने नम्रता भाभी पर वाची को उल्टी पट्टी पढ़ाने और भड़काने का आरोप लगाया था ? नहीं..नहीं तुम्हें इस झंझट में पड़ने की जरूरत नहीं ..—राजन् ने मुझे बहुत गंभीरता के साथ समझाया . पर मैं थोड़ी उलझन में पड़ गई .
वाची को मेरी जरूरत है . वह मेरे पास ही ज्यादा से ज्यादा समय गुजारना चाहती है . उसके माता-पिता नहीं है . चाचा -चाची और दूसरे परिजनों की नज़र में वह घर में पड़े अतिरिक्त सामान जैसी है . पानी बिना धूप में बढ़ रहे पौधे की तरह ठिठुर गई सी वह बारह साल की लड़की उम्र से पाँच साल पीछे लगती है देखने में भी और सोचने में भी . उसके पड़ोस में रहने वाली रज्जी बताती है कि बेचारी बिना कुछ खाए-पिये स्कूल जाती है , एक बजे तक भूखी रहती है . चचेरे भाई-बहिन उसे दुकान बाजार खदेड़ते रहते हैं ..घर में किसी से भी कोई काम बिगड़ जाता है ,सारा दोष वाची पर ही डाल दिया जाता है .वह कुछ बोलती है तो पिटती भी है ....
ओह ! बिन माँ की बच्ची .” –मेरी आह निकल गई .अभी तो उसकी उम्र गुड़िया से खेलने की है . झूले पर झूलने की है ..चिड़िया की तरह चहकने--उड़ने की है ..पर उसके लिये कोई आकाश नहीं..उसकी माँ होती तो..
उसे मैं दूँगी एक आकाश .—मैंने निश्चय किया . दूसरे बच्चों की तरह वह मेरे पास पढ़ने तो आती ही है .
कितना अच्छा होता आप ही मेरी सचमुच की दादी होतीं .”--–एक दिन उसने कहा था .
भला क्यों ?”--मैंने विस्मय और पुलक के साथ उसे देखा .
क्योंकि आपके साथ मुझे अच्छा लगता है . यहाँ मैं खेलती हूँ या मम्मी की बात करती हूँ तो आप नाराज भी नहीं होतीं ...
धीरे धीरे वह मेरे पास ज्यादा समय बिताने लगी . मैं उसे कहानियाँ सुनाती . सही पढ़ने ,लिखने के अलावा चलना ,बोलना जैसी बातों पर ध्यान देती .वह आँगन में खूब चहकती फुदकती ..उसकी बुझी सी आँखों में चमक आने लगी  .यह सुनकर मुझे एक उपलब्धि का अनुभव होता . इसलिये कि मैं एक मातृ-विहीना बच्ची को स्नेह का थोड़ा आधार दे पा रही थी . मुझे पता है कि बचपन को इस आधार की कितनी जरूरत होती है .
"लेकिन वह स्थायी नहीं है सुमि ." –राजन ने मेरी बात काटकर कहा . तुम अपने लिये विरोध की जमीन तैयार जरूर कर रही हो .
"मैं एक बच्ची को सिर्फ थोड़ा सहारा दे रही हूँ .."
"तुम्हारा सहारा उसके लिये हानिकारक ही सबित होगा देखना ." –मैंने हैरानी से पति की ओर देखा . वो कहे जा रहे थे --" देखो ,रहना उसे वहीं है . उसी माहौल में . तुम रोशनी दिखाकर उसके अँधेरे को ज्यादा भयावह बना रही हो . यहाँ उन्मुक्त वातावरण में रहकर उसे अपने परिजनों का बर्ताव और भी अधिक असहनीय लगेगा ..इसके परिणामस्वरूप जो कुछ भी होगा उसके लिये जिम्मेदार तुम्हें माना जाएगा . फिर वाची से हमारा कोई रिश्ता भी नहीं ..वाची उनकी जिम्मेदारी है . उन्हें निभाने दो . वरना वे और भी निश्चिन्त हो जाएंगे . अभी समझा रहा हूँ बाद में मत कहना कि ...
राजन् को दुनियादारी का ज्यादा अनुभव है . लेकिन यह अप्रत्यक्षतः एक चेतावनी या धमकी भी थी एक पति की अपनी पत्नी को ...
वाची के यथार्थ व आपसी तनाव की संभावना से आशंकित ..मैंने वाची को आने से मना कर दिया . अब वह नही आती पर उसकी खबरें आती रहतीं हैं . वह पहले से ज्यादा कमजोर और गुमसुम होगई है . मैं उसे छत पर उदास खड़ी देखती हूँ तो सोचती हूँ कि रोशनी दिखाकर फिर अँधेरे में धकेलकर क्या मैं और राजन् भी वाची के परिवार में ही शामिल नहीं होगए हैं ? और न चाहते हुए भी पति की बात मानने को विवश क्या मैं भी एक तरह की हिंसा की शिकार नहीं हूँ ? 

16 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार(२१ -०६-२०२०) को शब्द-सृजन-26 'क्षणभंगुर' (चर्चा अंक-३७३९) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    --
    अनीता सैनी

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  2. बहुत सुन्दर।
    योग दिवस और पितृ दिवस की बधाई हो।

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  3. बच्चों का मन बहुत कोमल होता है ,उन्हें स्नेह और अपनत्व की जरूरत होती है ,लेकिन हम चाह कर भी उनकी मदद नहीं कर पाते ठीक उसी तरह जैसे आपने कहा ,कुछ अच्छा करने के लिए भी कितना सोचना पड़ता है ,यहां साथ देने वाला कोई नहीं होता है।बहुत ही सुंदर

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  4. एक अबूझ सी कसक है कहानी में । बहुत जीवन्त.. कहानी की समाप्ति पर वाची का अक्स भर गया आँखों में ।

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  5. यथार्थ पर आधारित बहुत ही हृदयस्पर्शी सृजन।
    परिवार वालों के सहयोग के बिना कभी कभी अपने
    भावों को नियंत्रित करना पड़ता है बहुत बेबसी महसूस होती है..

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  6. हृदय स्पर्शी कथा गहन सवाल उठाती।

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  8. बेहद शानदार कहानी है। सोचने पर मजबूर करती है। हमारे समाज में छोटी-छोटी ऐसी जाने कितनी ही गुत्थियां हैं जिनको सुलझाने के लिए हम हर दिन खुद से लड़ते रहते हैं। वैल, आपसे गुज़ारिश है कि आप हमारी वेबसाइट भी एक बार ज़रूर चैक करें।
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  9. मार्मिक ... जीवन के कठोर धरातल पर लिखी है कहानी ...
    सच है परिवार का साथ कितना जरूरी है किसी भी कार्य को धरातल देने के लिए ... सोचने को मजबूर करती है कहानी ... कथ्य, शिल्प और भावनाओं से भरी ...

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  10. कहानी के साथ टिप्पणी भी शानदार ,फिर से पढ़ डाली गिरजा जी ,

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