गुरुवार, 16 सितंबर 2021

एक 'चकरी ' की कीमत

(कुछ संशोधन के बाद पुनः प्रकाशित)

इतने सारे पटाखे –फुझड़ियाँ !”

सोनी पुलकित हुई बेटे सार्थक को देख रही थी . उसे बचपन से ही कपड़ों मिठाइयों से ज्यादा पटाखों का शौक रहा है . कई महीनों पहले से पैसे जोड़ जोड़कर अपने मनपसन्द पटाखे फुलझडियाँ लाता था और बड़े उत्साह से गली भर के बच्चों को दिखाकर चलाता था . अब अच्छी नौकरी है .पैसा है .. इस दीपावली पर वह तीन साल बाद घर आया है . बहुत उल्लास में है . कई तरह की मिठाइयाँ ,नए कपड़े ढेर सारे पटाखे और नई तरह की तमाम रोशनियों के डिब्बे लाया था .लक्ष्मी-पूजन के समय सार्थक थैलों में से सारा सामान निकाल रहा था . 

अरे , चकरियों वाला एक डिब्बा कहाँ गया ? इस बार तो मैं काफी बडी ,देर तक घूमने वाली चकरियों का बड़ा डिब्बा लाया था !

हे राम ,कहीँ दुकान पर ही तो नही छूट गया ? ” माँ को चिन्ता हुई . चकरी चलाना बचपन से ही उसका सबसे प्रिय खेल है .जब चकरी सुनहरी रुपहली और रंगबिरंगी किरणें बिखराती हुई घूमती थी तो उसका उल्लास देखते ही बनता था . कहता था--

माँ देखो ,बेशुमार किरणों के साथ चकरी पूरे आँगन में चक्कर लगाती हुई घूमती है तो लगता है जैसे यह विष्णु भगवान का चक्र है जो अँधेरे को काट रहा है । या अँधेरे की नदी में बेहद चमकीला भँवर है जो धारा को अवरुद्ध कर फैलता जा रहा है या फिर आसमान से बिछडा कोई सितारा है जो जमीन पर गिर कर आकुल हुआ घूम रहा है .

“एक बार दुकान पर जाकर देखले बेटा ! जाने कितने का होगा.”   

सार्थक ने दो पल इधर-उधर देखा और झटके से बोला--   

“ अरे जाने दो माँ....परेशान न हो..और आजाएंगी ..”

पूजा के दिये सजाते हुए माँ का सारा ध्यान बेटे के वाक्य पर था –जाने दो माँ ..और आ जाएंगी .”  बचपन में एक चकरी भी सार्थक के लिये खुशियों का खजाना थी . आज पूरा डिब्बा भी उसके लिये कोई मायने नही रखता . चकरी उसके पैसों की तुलना में छोटी होगई है , शायद वे बड़ी खुशियाँ भी जो छोटी छोटी चीजों से मिला करती हैं .

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शुक्रवार, 10 सितंबर 2021

मन्नू मेरा मान

( संशोधित व पुनः प्रकाशित )

9 सितम्बर 1982 , कमलाराजा चिकित्सालय (ग्वालियर) । रात्रि साढे दस बजे पीडा और प्रतीक्षा का कठिन दौर गुजर गया और दे गया एक अनौखा और प्यारा प्रतिफल ---मन्नू(विवेक) ।

मन्नू में कई सारी खूबियाँ हैं । अपने दोनों भाइयों ( बडा प्रशान्त , छोटा मयंक ) की तरह सच्चा , ईमानदार, संवेदनशील और स्नेहमय है । कार्य के प्रति गहन उत्तरदाय़ी । और माँ के लिये विशेषरूप सेसजग, चिन्तित । ये गुण तीनों को मुख्यधारा से प्रायः अलग कर देते हैं । इसलिये कभी-कभी अकेलापन भी सालता है । मन्नू में कुछ और भी बातें हैं । कुछ ऐसी कि सोचने पर मजबूर करदें और कुछ हँसने पर -भी । जब वह चलना सीख गया था तब वह अक्सर गाँव में निकल जाता था । हमारा बहुत सारा समय सिर्फ उसे तलाशते बीतता था । गाँव की महिलाएं इस प्रतीक्षा में रहतीं कि कब मन्नू उनके घर जाए और वे उसे छुपाकर मुझे खूब छकाएँ । एक दिन जब वह ढाई - तीन साल का ही होगा ,और हम गाँव में ही थे ,छत पर खडे , सूर्यास्त को देख रहे थे । पंछियों की कतारें कल्लोल करती लौट रहीं थी । मन्नू एकदम गुमसुम खडा किसी सोच में डूबा था अचानक बोला ----मम्मी , पता है , सूरज अब कहां जारहा है । मैं तो नही जानती , तू ही बता ...। मम्मी , यह धरती मोती की तरह है ,बीच में सुरंग है । मोती में जैसे धागा डालते है न वैसे ही सूरज बीच सुरंग से निकल कर सुबह दूसरी तरफ पूरब दिशा की ओर पहुँच जाता है । भई वाह -----मैं उसकी इस नई कल्पना पर कहे बिना न रह सकी । वर्षा-ऋतु में जब बिजली चमकती थी , वह कहता था----देखो बिजली उछल रही है । एकदिन मन्नू को मैंने सब्जी खरीदने भेजा । जब लौटा तो मैंने देखा कि कुछ टमाटर गले थे । और कई भिन्डी एकदम कडक । बेटा देख कर लाना चाहिये ।---मैंने समझाया तो कुछ खिन्न होकर बोला ---मम्मी, जरा सोचो कि सब लोग छाँटकर ले जाएंगे तो बेकार बचे--खुचे को कौन लेगा । इस तरह क्या उस बेचारे का नुक्सान नही होगा । जब मन्नू सातवीं कक्षा में था , उसे एक शिक्षक ने सिर्फ इस बात पर पीट दिया कि उसने अपने साथियों को चाँटा मारने से इन्कार कर दिया था । चाँटा इसलिये कि किसी को सवाल का सही उत्तर नही आया था जो अकेले मन्नू ने दिया था । उसे हफ्तों तक यह मलाल होता रहा कि सही उत्तर का इनाम उसे इतना कडवा और अन्याय पूर्ण मिला । उसका यह मलाल,-- यह कैसा इनाम , फालसे वाला , भडभूजा जैसी छोटी पर सार्थक अभिव्यक्तियों में प्रकट भी हुआ । कोई आश्चर्य नही कि संवेदनशील लोगों को पग-पग पर ऐसे अनुभव होते रहते हैं , पर वे अपने गुणों से विसंगतियों को परे धकेलकर , जिन्दगी को सरस बनाते रहते हैं । मन्नू के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ है । वस्तुतः उसका ह्रदय एक कलाकार का ह्रदय है । और कलाकार भले ही सही राह दिशा न मिलने से कला को विकसित न कर पाए पर कचरे में से भी स्रजन का सामान जुटा लेता है । आज अपने दोनों भाइयों के साथ वह बैंगलुरु में इंजीनियर है । मुझसे उसकी दूरी केवल भौगोलिक ही है । सुबह-शाम उसकी आवाज घर के कोने-कोने को जगाती रहती है , हर पल उसकी याद , मन को महकाती रहती है । सचमुच मन्नू जैसा बेटा पाकर कोई भी ईश्वर और भाग्य को मानने विवश होजाएगा । -- गिरिजा कुलश्रेष्ठ मोहल्ला - कोटा वाला, खारे कुएँ के पास, ग्वालियर, मध्य प्रदेश (भारत)