वसन्ती ने आँगन में पडी खाट पर पसरे रामधन को देखा तो लगा जैसे किसी ने छाती में दहकता कोयला दाग दिया हो । नस-नस में खून जैसे धुँआ बन कर उड चला हो । जी में आया कि धक्का देकर दरवाजे से बाहर करदे ।
अब कौनसा नाता निभाने चला आता है यहाँ ...ऐसा ही निभाने वाला होता तो क्या ,दूसरी , रखता ।मैं कोई बाँझ थी कि बिगडी थी ।..हजार बार तो कह दिया कि अब उसी से निभा । बेकार ही हमारा खून मत जला । समझ ले कि हम तेरे लिये मर गये और तू हमारे लिये ..। -----ताव से भरी वसन्ती ने बडबडाते हुए घास का गट्ठर बाहर ही पटक दिया और दनदनाती हुई भीतर गई ।बूढी साबो बहुत दिनों बाद बेटे को देख कुछ पल के लिये सारे ताने-उलाहने भूल गई और हुलसकर पानी का लोटा भर कर ला रही थी कि वसन्ती ने लोटा छीन कर एक तरफ रख दिया और सास पर बरस पडी---
लाड बाद में दिखाती रहना अम्मा ।..पहले इससे पूछ कि क्यों आया है यहाँ । हमारा खून जलाए बिना जी नही भरता इसका ।सब कुछ भूल कर अपने बच्चों को पाल रही हूँ तो अब यह भी नही सुहाता इसे ।...और तेरा जी पिराता है तो तू भी चली जा अपने लाडले के साथ । मर नही जाऊँगी अकेली । ..नही तो साफ कहदे कि यहाँ अपनी सूरत दिखाने न आया करे नही तो ...।
अरे बेटी----साबो गहरी साँस भरते हुए बोली---सात फेरों का बन्धन तो मरे छूटता है ।
छूटता होगा ---वसन्ती तिलमिला कर बोली---इससे मेरा तो अब कोई नाता नही है । मरेगा तब भी आँसू न निकलेंगे मेरे ..। कहते--कहते उसकी आवाज भर्रा गई ।गले की नसें फूल ईं । और पनियाई सी आँखें सुर्ख होगईँ ।
चोट खाई सी साबो चुपचाप खटिया में जा धँसी । वसन्ती का एक-एक शब्द कलेजे पर हथौडे की तरह पड रहा था । शायद रामधन ने कुछ सुना नही । महाभारत होजाता । पर वह वसन्ती से भी क्या कहे । कैसे कहे ।अच्छी भली बहू को छोड कर ,निमौना ,से दो बच्चों को बिसरा कर रामू ने जो किया वह क्या छिमा करने लायक है । छिनालें जाने क्या पट्टी पढा देतीं हैं कि आदमी अपना घर-बार ,बद-बदनामी सब भूल उनके जाल में जा फँसता है । रामधन के दूसरा घर बसा लेने के बाद साबो ही जानती है कि कैसे उसने वसन्ती को सम्हाला है । और कैसे न सम्हालती । अबोध वसन्ती इसी आँगन में जवान हुई । माँ बनी । उस संकट में भी वह मायके नही गई । और साबो के अलावा उसका है ही कौन । हुलक-हुलक कर रोती वसन्ती को छाती से लगा कर साबो ने जाने कितनी रातें गुजारी हैं । उसकी बात का बुरा माने भी तो कैसे । और वह गलत भी तो नही कहती --यह घर है कोई रंडी का कोठा नही कि जब मन हुआ ,चले आए जी बहलाने ।...ऐसे कपूत से तो वह निपूती ही भली थी साबो ।
अम्मा ..ओ अम्मा तू ऐसी कठोर होगई है कि...। रामधन ने घर में सन्नाटा पाकर हाँक लगाई । साबो के मन में हूक सी तो उठी पर बहू के गुस्से का ख्याल कर चुप्पी साध गई ।
घर में और कोई नही है क्या । गुड्डू ..राजू ...प्यास के मारे कंठ सूख रहा है । कोई पानी देने वाला भी नही रहा क्या ।--रामधन जोर से चिल्लाया तो वसन्ती से न रहा गया । लोटा में पानी लाते हुए बोली--
क्यों चिल्ला रहे हो गला फाड कर । बहरे नही हैं हमलोग..।
वसन्ती कहना तो चाहती थी कि इधर कैसे चले आए । क्या चहेती से खटपट होगई । पर उसकी नजर रामधन की चढी सी आँखों पर गई और धीरे-धीरे निकलती कराह सुनी तो पास आई और माथा छूकर देखा । फिर ठहरी हुई सी आवाज में बोली---हूँ...जोर का बुखार चढा है । तभी तो मैं कहूँ कि..।
इसके बाद रामधन का कराहना बढ गया और वसन्ती का बडबडाना---अपना तो होस ही नही है इस आदमी को । कभी बुखार कभी हैजा तो कभी पेट का दरद । मनमानी तो करली अब ढंग से रहा भी नही जाता । हम भी तो रहते हैं कि नही ।
फिर वह योंही बडबडाती हुई रामधन के लिये कम्बल लाई । दूध गरम करके पिलाया । कम्बल ओढाया ।और पास बैठ कर माथा दबाने लगी । न कोई ताव न झल्लाहट ।
यह सब देख खाट में गुडमुड सी पडी साबो की आँतों में ऐंठन सी हुई ।और आँखों के छोरों से परनाला भरभरा कर बह चला । पता नही वे आँसू खुशी के थे या पीडा के ।
मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011
गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011
दो कविताएं प्रेम की
यादें
---------
(1)
कुछ यादें,
सुपरफास्ट ट्रेन की तरह
गुजरती रहतीं हैं अक्सर
ह्रदय के पुल से।
धडधडाती हुई,
चप्पा--चप्पा थर्राती हुई
उडाती हुई--धूल, पत्ते, ...तिनके ।
उतर नही पाती जिन्दगी ,
किसी भी स्टेशन पर
चाह कर भी ।
(2)
नियमित धारावाहिकों सी
कुछ यादें
करतीं हैं षडयन्त्र ।
रूबरू नही होने देतीं मुझे
अपने-आप से ।
सोच भी नही पाती ,
अपनी पीडाओं और अभावों को
अपनों के पराएपन को,
छल और दुरावों को
गहराई से ।
(3)
उतर आती है पूरब के क्षितिज से
यादों की धूप
मुग्ध , चकित झाँकती है
कमरे में ।
मेरे दिखाती है मुझे
मेज पर जमी धूल
गुलदस्ते के सूखे फूल
पलटतीं हैं मेरी डायरी के
एक अरसे से कोरे रह गए पन्ने
और यूँ करतीं हैं मुझे
और भी उदास ..तन्हा...।
--------------------------
(2)उनका आना
खयालों में उनका आना
फूटना है कोंपलों का
ठूँठ शाखों पर
पतझड के बाद ।
दस्तक देना है
पोस्टमैन का
भरी दुपहरी में
थमा जाना
एक खूबसूरत लिफाफा ।
मिलजाना है
रख कर भूला हुआ कोई नोट
किताबें पलटते हुए
अचानक ही ।
लौट आना है
एक गुमशुदा बच्चे का
अपने घर
बहुत दिनों बाद ।
मिल जाना है
अचानक ही
किसी अनजान शहर में
बचपन के सहपाठी का ।
और दिमाग में भरी हो
खीज और झुँझलाहट
ऐसे में एक मासूम
दुधमुँही मुस्कराहट का
समाजाना आँखों में ।
यूँ उनका आना खयालों में
कोई जरूरी चीज भूल गये
आदमी की तरह
लौट पडना जिन्दगी का
उल्टे पाँव घर
या
मिलना एक सान्त्वना
अपनत्व और दुलार भरी
चोट से आहत
रोते हुए बच्चे को
या फिर
गुलमोहर के झुरमुट से
कूक उठना कोयल का
कॅालोनी की उबाऊ खामोशी के बीच
किसी दोपहर अचानक ही
यूँ उनका आना खयालों में
सन् 1998 में प्रकाशित व पुरस्कृत
---------
(1)
कुछ यादें,
सुपरफास्ट ट्रेन की तरह
गुजरती रहतीं हैं अक्सर
ह्रदय के पुल से।
धडधडाती हुई,
चप्पा--चप्पा थर्राती हुई
उडाती हुई--धूल, पत्ते, ...तिनके ।
उतर नही पाती जिन्दगी ,
किसी भी स्टेशन पर
चाह कर भी ।
(2)
नियमित धारावाहिकों सी
कुछ यादें
करतीं हैं षडयन्त्र ।
रूबरू नही होने देतीं मुझे
अपने-आप से ।
सोच भी नही पाती ,
अपनी पीडाओं और अभावों को
अपनों के पराएपन को,
छल और दुरावों को
गहराई से ।
(3)
उतर आती है पूरब के क्षितिज से
यादों की धूप
मुग्ध , चकित झाँकती है
कमरे में ।
मेरे दिखाती है मुझे
मेज पर जमी धूल
गुलदस्ते के सूखे फूल
पलटतीं हैं मेरी डायरी के
एक अरसे से कोरे रह गए पन्ने
और यूँ करतीं हैं मुझे
और भी उदास ..तन्हा...।
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(2)उनका आना
खयालों में उनका आना
फूटना है कोंपलों का
ठूँठ शाखों पर
पतझड के बाद ।
दस्तक देना है
पोस्टमैन का
भरी दुपहरी में
थमा जाना
एक खूबसूरत लिफाफा ।
मिलजाना है
रख कर भूला हुआ कोई नोट
किताबें पलटते हुए
अचानक ही ।
लौट आना है
एक गुमशुदा बच्चे का
अपने घर
बहुत दिनों बाद ।
मिल जाना है
अचानक ही
किसी अनजान शहर में
बचपन के सहपाठी का ।
और दिमाग में भरी हो
खीज और झुँझलाहट
ऐसे में एक मासूम
दुधमुँही मुस्कराहट का
समाजाना आँखों में ।
यूँ उनका आना खयालों में
कोई जरूरी चीज भूल गये
आदमी की तरह
लौट पडना जिन्दगी का
उल्टे पाँव घर
या
मिलना एक सान्त्वना
अपनत्व और दुलार भरी
चोट से आहत
रोते हुए बच्चे को
या फिर
गुलमोहर के झुरमुट से
कूक उठना कोयल का
कॅालोनी की उबाऊ खामोशी के बीच
किसी दोपहर अचानक ही
यूँ उनका आना खयालों में
सन् 1998 में प्रकाशित व पुरस्कृत
बुधवार, 2 फ़रवरी 2011
जड
वर्मा जी ,साहब ने कहा है कि आप दसवीं कक्षा में चले जाएं । पीरियड खाली है ।
क्यों , यह पीरियड तो गिरीश का है । और वह आज विद्यालय में मौजूद भी है ।
गिरीश सर साहब के साथ डी.ई ओ ऑफिस जारहे हैं ।
ऑफिस जारहे हैं या कोने वाले रेस्टोरेन्ट में चाय पीने ...।--वर्मा जी ने चपरासी से व्यंग भरे लहजे में पूछा तो वह निरुत्तर होगया ।
ठीक है । तू जा अपना काम कर । वर्मा जी ने चपरासी से कहा तो वह चला गया ।
मुझे आश्चर्य हुआ । वर्मा जी कक्षा में जाने की बजाय कोई पत्रिका पलटते रहे ।
कभी किसी काम को ना न कहने वाले वर्मा जी में यह परिवर्तन ..। वे तो सदा दूसरे लोगों को समझाते रहे हैं कि हमें काम का ही वेतन मिलता है इसलिये कभी काम से इन्कार मत करो ।काम के प्रति ईमानदार रहोगे तो इसका लाभ जरूर मिलेगा ।
उन्ही वर्मा जी में यह कैसा बदलाव ।
तो क्या करूँ राघव ।----वर्माजी मेरी नजरों का सवाल पढते हुए कुछ हताशा भरे स्वर में बोले ---अगर बिना आपत्ति किये काम करते जाओ तो लोग गधा ही समझ लेते हैं और काम लादे जाते हैं तुम देखते ही हो कि मेरे सबसे ज्यादा पीरियड हैं । कई प्रभार भी हैं फिर भी अरेंजमेंट में भी मेरा नाम ही आगे रहता है । मैं इसका कभी विरोध भी नही करता । पर दुख तब होता है जब गिरीश जैसे लोगों को, जो दिन भर गप्पें हाँकते रहते है ,साहब हर तरह की छूट देते हैं क्योंकि गिरीश .....सब जानते है कि साहब उसे क्यों साथ लगाए रहते हैं । उससे भी ज्यादा दुख तब होता है जब प्रोत्साहन की जगह साहब और रस्सी कस देते हैं तथा गिडगिडाने के बाद भी मेरी छुट्टी स्वीकृत नही करते ।तुम तो जानते हो कि मैं कभी फालतू छुट्टी नही लेता । अभी मेरी बेटी की तबियत खराब होगई थी और मुझे अचानक उसके पास जाना पडा था । मैं छुट्टी के लिये आवेदन देगया था पर साहब ने मेरा वेतन काट लिया बोले कि तुमने छुट्टी पहले से स्वीकृत नही कराईँ । क्या यहाँ कानून सबके लिये बराबर है । अगर साहब की नजर में ईमानदारी और कर्मनिष्ठा का कोई मूल्य नही, गधे-घोडे सब बराबर हैं तो मैं क्यों इतना पागल बनूँ । जो होगा देखा जाएगा । वेतन तो मुझे भी उतना ही मिलता है .जितना.....। क्या मैं गलत कह रहा हूँ राघव...।
मैं क्या कहता । वर्मा जी की निराशा से मैं निराश होगया पर उनकी बात को झुठलाने के लिये मेरे पास कोई तर्क नही था ।
क्यों , यह पीरियड तो गिरीश का है । और वह आज विद्यालय में मौजूद भी है ।
गिरीश सर साहब के साथ डी.ई ओ ऑफिस जारहे हैं ।
ऑफिस जारहे हैं या कोने वाले रेस्टोरेन्ट में चाय पीने ...।--वर्मा जी ने चपरासी से व्यंग भरे लहजे में पूछा तो वह निरुत्तर होगया ।
ठीक है । तू जा अपना काम कर । वर्मा जी ने चपरासी से कहा तो वह चला गया ।
मुझे आश्चर्य हुआ । वर्मा जी कक्षा में जाने की बजाय कोई पत्रिका पलटते रहे ।
कभी किसी काम को ना न कहने वाले वर्मा जी में यह परिवर्तन ..। वे तो सदा दूसरे लोगों को समझाते रहे हैं कि हमें काम का ही वेतन मिलता है इसलिये कभी काम से इन्कार मत करो ।काम के प्रति ईमानदार रहोगे तो इसका लाभ जरूर मिलेगा ।
उन्ही वर्मा जी में यह कैसा बदलाव ।
तो क्या करूँ राघव ।----वर्माजी मेरी नजरों का सवाल पढते हुए कुछ हताशा भरे स्वर में बोले ---अगर बिना आपत्ति किये काम करते जाओ तो लोग गधा ही समझ लेते हैं और काम लादे जाते हैं तुम देखते ही हो कि मेरे सबसे ज्यादा पीरियड हैं । कई प्रभार भी हैं फिर भी अरेंजमेंट में भी मेरा नाम ही आगे रहता है । मैं इसका कभी विरोध भी नही करता । पर दुख तब होता है जब गिरीश जैसे लोगों को, जो दिन भर गप्पें हाँकते रहते है ,साहब हर तरह की छूट देते हैं क्योंकि गिरीश .....सब जानते है कि साहब उसे क्यों साथ लगाए रहते हैं । उससे भी ज्यादा दुख तब होता है जब प्रोत्साहन की जगह साहब और रस्सी कस देते हैं तथा गिडगिडाने के बाद भी मेरी छुट्टी स्वीकृत नही करते ।तुम तो जानते हो कि मैं कभी फालतू छुट्टी नही लेता । अभी मेरी बेटी की तबियत खराब होगई थी और मुझे अचानक उसके पास जाना पडा था । मैं छुट्टी के लिये आवेदन देगया था पर साहब ने मेरा वेतन काट लिया बोले कि तुमने छुट्टी पहले से स्वीकृत नही कराईँ । क्या यहाँ कानून सबके लिये बराबर है । अगर साहब की नजर में ईमानदारी और कर्मनिष्ठा का कोई मूल्य नही, गधे-घोडे सब बराबर हैं तो मैं क्यों इतना पागल बनूँ । जो होगा देखा जाएगा । वेतन तो मुझे भी उतना ही मिलता है .जितना.....। क्या मैं गलत कह रहा हूँ राघव...।
मैं क्या कहता । वर्मा जी की निराशा से मैं निराश होगया पर उनकी बात को झुठलाने के लिये मेरे पास कोई तर्क नही था ।