रमपतिया !
तुम हँसती थी
तुम हँसती थी
दिल खोल कर
एक बड़ी बुलन्द हँसी ।
छोटी-छोटी बातों पर ही
जैसे कि ,तुम्हारा मरद
पहन लेता था उल्टी बनियान
या दरी को ओढ़ लेता था
बिछाने की बजाय
या कि तुम दे आतीं थीं दुकानदार को
गलती से एक की जगह दो का सिक्का
तुम खिलखिलातीं थीं बेबाकी से
दोहरी होजाती थी हँसते-हँसते
आँखें ,गाल, गले की नसें ,छाती...
पूरा शरीर ही हँसता था तुम्हारे साथ,
हँसतीं थी घर की प्लास्टर झड़ती दीवारें
कमरे का सीला हुआ फर्श
धुँए से काली हुई छत
और हँस उठती थी सन्नाटे में डूबी
गली भी नुक्कड तक...पूरा मोहल्ला...।
ठिठक कर ठहर जाती थी हवा
हो जाते थे शर्मसार
सारे अभाव और दुख ,चिन्ता कि
शाम को कैसे जलेगा चूल्हा
या कैसे चुकेगा रामधन बौहरे का कर्जा
बढते गर्भ की तरह चढते ब्याज के साथ ।
रमपतिया !
तुम रोती भी थीं
तुम रोती भी थीं
तो दिल खोल कर ही
हर दुख को गले लगा कर
चाहे वह मौत हो
पाले-पनासे 'गबरू' की
या जल कर राख होगई हो पकी फसल
या फिर जी दुखाया हो तुम्हारे मरद ने
तुम रोती थीं गला फाड़ कर
रुदन को आसमान तक पहुँचाने
तुम्हारे साथ रोतीं थीं दीवारें
आँगन ,छत , गली मोहल्ला और पूरा..गाँव
उफनती थी आँसुओं की बाढ़
रुके हुए दर्द बह जाते थे
तेज धार में .
नाली में फंसी पालीथिन की तरह.
ओ रमपतिया !
तुम्हें जब भी लगता था
तुम्हें जब भी लगता था
कुछ अखरने चुभने वाला
जैसे कि बतियाते पकड़ा गया तुम्हारा मरद
साँझ के झुरमुट में,
खेत की मेंड़ पर किसी नवोढ़ा से
फुसफुसाते हुए ।
या कि वह बरसाने लगता लात-घूँसे
बर्बरता के साथ
जरा सी 'ना नुकर 'पर ही
या फिर छू लेता कोई
तुम्हारी बाँहें...बगलें,
चीज लेते-देते जानबूझ कर
तुम परिवार की नाक का ख्याल करके
नही सहती थी चुप-चुप
नही रोती थी टुसमुस
घूँघट में ही
और दुख को छुपाने
नही हँसती थी झूठमूठ हँसी
चीख-चीख कर जगा देती थी
सोया आसमान ।
भर देती थी चूल्हे में पानी
जेंव लो रोटी
मारलो ।
काट कर डाल दो
रमपतिया नही सहेगी
कोई भी मनमानी ।
और तब थर्रा उठतीं थीं दीवारें
आँगन ,छत ,गली मोहल्ला गाँव ..
औरत को जूते पर मारने वाले
बैठे-ठाले मर्द भी...
बचो भाई ! इस औरत से,
क्यों छेड़ते हो छत्ता ततैया का ?
रमपतिया !
ओ अनपढ़ देहाती स्त्री !!
काला अक्षर भैंस बराबर
पर मुझे लगता है कि उस हर स्त्री को
तुम्हारी ही जरूरत है जिसने
नही जाना -समझा
अपने आपको ,आज तक
तुम्हारी तरह ।
तुम्हारी तरह ।
रमपतिया तुम कहाँ हो ?
मन को पूर्णता से व्यक्त करना हम सबको ही सीखना होगा।
जवाब देंहटाएंकितनी सहजता से आपने हर मन को दर्पण दिखला दिया ... आभार ।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया................
जवाब देंहटाएंआक्रामक लेखन.....
सचमुच कहाँ हो रमपतिया??????????
जागो हमारे भीतर से....
अनु
रमपतिया एक सार्थक प्रतीक
जवाब देंहटाएंआज तो सिर झुकाए हूँ आपकी सामने गिरिजा जी.. एक बेहतरीन कविता.. बिना किसी भाषणबाज़ी के जितनी सशक्त आवाज़ आपने उठायी है कि बस रमपतिया में अपनी माँ नज़र आयी है.. मन हुआ है कि उसके पैर छू लूँ!!
जवाब देंहटाएंगिरिजा जी, सचमुच जो कहा उससे कहीं ज़्यादा महसूसा है इस कविता को मन के अंदर!!
सलिल जी मेरे ब्लाग पर बहुत ही कम प्रतिक्रियाएं आतीं हैं । लेकिन जो भी आतीं हैं मेरे लिये किसी नियामत से कम नही । आप रचना को पूरा ध्यान देते हैं यह किसी भी रचनाकार के लिये बडी बात है ।
जवाब देंहटाएंगिरिजा जी,
हटाएंयह मेरा सौभाग्य है कि कुछ अच्छी रचनाएं, भीड़ में गुम होने से बची रह जाती हैं, कुछ आलेख टिप्पणियों की बाढ़ में में भी खुद को बचाए रखते हैं, कुछ कहानियाँ टिप्पणियों की आशा में अपनी पवित्रता नहीं खोतीं और कुछ पारिवारिक बातें मुझे बिलकुल अपनी सी लगती हैं.. क्या इतना कारण काफी नहीं कि आपकी पोस्ट पर एक भी टिप्पणी अगर हुयी तो वो मेरी होगी!! टिप्पणियों की संख्या और रचना की गुणवत्ता में कोई सम्बन्ध नहीं!!
रमपतिया यहीं कहीं है, हमारे दिल में, आपके भी। हम उसे देखे हैं, मिले हैं। अपनी नानी में, मां में और गांव के कई घरों में। वह मर नहीं सकती, मारी भली जाती रहे।
जवाब देंहटाएंअगर आप आदेश और सहमति दें तो कल की आंच पर इसे लगाएं। (ब्लॉग मनोज पर)
रमपतिया का बेबाक चरित्र आज के राजनीतिक माहौल मे भारतीय जनता के लिए परम आवश्यक है। बहुत अच्छी रचना। आभार।
जवाब देंहटाएंआज ही मनोज जी के ब्लॉग पर आपकी इस कविता से परिचय हुआ.. और यहां पूरा साक्षात्कार। मन में जो भाव उमड़े, वह मनोज जी के ब्लॉग पर रह गए। इस कविता के लिए कोई सटीक शब्द नहीं हैं मेरे पास... कुछ भी लिखने से लगता है कि कहीं हर ब्लॉग पर जाकर बिना पढ़े टिप्पणी करने वालों के शब्द - वाह, शानदार, ग़जब, खूबसूरत, बेहतरीन - जैसा न लगने लगे क्योंकि यह कविता वाकई इतनी अच्छी लगी कि मेरे पास शब्द नहीं हैं.. आजकल भेड़चाल वाले ब्लॉगों में जब कोई वाकई अच्छी रचना पढ़ने को मिलती है, तो लगता है कि हमने सीपों के भंडार में मोती वाला सीप ढूंढ लिया।
जवाब देंहटाएंसंयोग से कुछ समय पहले मैंने 'रमिया का एक दिन' नाम से एक कविता अपने ब्लॉग पर लगाई थी। आपकी कविता के पासंग भर भी नहीं है वह भाव और शिल्प में, मगर मैं दिल से चाहूंगी कि आप उसे पढ़कर कुछ सुझाव दें। लिक है - http://ahilyaa.blogspot.in/2012/03/blog-post_08.html
जवाब देंहटाएंसशक्त रचना!
जवाब देंहटाएंरमपतिया,एक ऐसा चरित्र जो घुट-घुट कर जीने के बजाय खुल कर अकुण्ठित जीवन जीता है.एक संदेश देती है कविता !
जवाब देंहटाएंMom, You are awesome,
जवाब देंहटाएंProud to be your son.
शूल चुभता है पर प्यार से, संवेदना से रमपतिया के चरित्र को जीकर।
जवाब देंहटाएंराम्पतिया के चरित्र को जैसे जिया हो इन संवेदनाओं ने ... गहरी शशत और सार्थक संजोके रखने वाली कृति ...
जवाब देंहटाएंनमन आपकी लेखनी को ।
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