( व्यंग्य )
देश-दुनिया
इन दिनों 'लॉकडाउन' की दशा से गुजर रही है .और हम ऑनलाइन की ‘महादशा’ से .
इसे समझने से पहले यह समझना जरूरी है कि अब साहित्य-सृजन कागज-कलम का मोहताज़ नहीं रहा . उसे किताबों और पत्रिकाओं से भी बड़े और लोकप्रिय बनाने वाले 'आशु-प्रसारक' मंच ब्लाग ,फेसबुक और वाट्सएप उपलब्ध हो चुके हैं . टापते रहो सम्पादको ! बहुत भाव दिखा चुके . अब रचनाकार खुद ही अपना सम्पादक प्रकाशक और प्रसारक है . हर तरह का साहित्य आपकी आँखों के आगे चौबीसों घंटे सावन-भादों की सी झड़ी लगाए है . इसे सृजन और पठन् का स्वर्णकाल कह सकते हैं .वाट्सएप पर ही साहित्य-समूहों और रचनाकारों की ऐसी तेज आँधी चल पड़ी है कि रचनाएं 'आँधी के आम' हो रही हैं ,जिन्हें बीनते बीनते समय सूखे पत्ते सा उड़ा जा रहा है . मौसम अनुकूल पाकर कोई फसल जरूरत से ज्यादा मात्रा में पैदा होजाती है तो बाजार में फैली फैली फिरती है ,बिल्कुल उसी तरह करोनाकाल में फुरसत पाकर लोगों का कवित्त्व या कथात्त्व इस कदर जाग गया है कि छोटी मोटी तुकबन्दियाँ भी साहित्य की कतार में खड़ीं कुलबुला रही हैं . उन्हें जहाँ तहाँ चेंपने के लिये कविगण बेताब दिख रहे हैं .
इसे समझने से पहले यह समझना जरूरी है कि अब साहित्य-सृजन कागज-कलम का मोहताज़ नहीं रहा . उसे किताबों और पत्रिकाओं से भी बड़े और लोकप्रिय बनाने वाले 'आशु-प्रसारक' मंच ब्लाग ,फेसबुक और वाट्सएप उपलब्ध हो चुके हैं . टापते रहो सम्पादको ! बहुत भाव दिखा चुके . अब रचनाकार खुद ही अपना सम्पादक प्रकाशक और प्रसारक है . हर तरह का साहित्य आपकी आँखों के आगे चौबीसों घंटे सावन-भादों की सी झड़ी लगाए है . इसे सृजन और पठन् का स्वर्णकाल कह सकते हैं .वाट्सएप पर ही साहित्य-समूहों और रचनाकारों की ऐसी तेज आँधी चल पड़ी है कि रचनाएं 'आँधी के आम' हो रही हैं ,जिन्हें बीनते बीनते समय सूखे पत्ते सा उड़ा जा रहा है . मौसम अनुकूल पाकर कोई फसल जरूरत से ज्यादा मात्रा में पैदा होजाती है तो बाजार में फैली फैली फिरती है ,बिल्कुल उसी तरह करोनाकाल में फुरसत पाकर लोगों का कवित्त्व या कथात्त्व इस कदर जाग गया है कि छोटी मोटी तुकबन्दियाँ भी साहित्य की कतार में खड़ीं कुलबुला रही हैं . उन्हें जहाँ तहाँ चेंपने के लिये कविगण बेताब दिख रहे हैं .
इधर हल्दी की गाँठ रखकर पंसारी बनने का सपने देखते हुए अनेक स्वनामधन्य रचनाकारों को सृजन से ज्यादा 'ग्रुप-एडमिन' बनना अधिक लाभकारी लग रहा है . प्रशासक
होने की अनुभूति ही अलग होती है . हाल यह कि साहित्य--समूह बरसात के अंकुरों की तरह पीक रहे हैं और नवलेखन को धुँआधार बढ़ावा देकर
हिन्दी की अविस्मरणीय सेवा कर रहे हैं . हिन्दी साहित्य के इतिहास में
आधुनिक काल के साथ अब 'ऑनलाइन-काल' भी डेफीनेटली जुड़ जाना है . हाँ इस काल के प्रवर्त्तक के
नाम कुछ फसाद जरूर होंगे . पर अन्ततः कोई धाँसू विद्वान समालोचक गहन विश्लेषण के बाद किसी स्वानुकूल व स्वरुचि वाले नाम को तय कर देगा , संभावना के लिये साथ में दो चार नाम और जोड़ दिये जाएंगे हिन्दी कहानी की तरह . फिर हमेशा वहीं पढ़े जाएंगे .और अमर हो जाएंगे खैर ..
ऐसे ही कुछ ‘ग्रुप-एडमिनों’ (हिन्दी में आ ही गए हो लाले ,तो फिर
हिन्दी के ही होकर रहना होगा ) ने हमें अपने ग्रुप से जोड़ने की पेशकश की तो हमने तुरन्त
स्वीकृति दे दी . ना कहने की तो वैसे भी अपनी औकात नहीं है . काहे कि हम जैसे कितने ही घरघुसरे
रचनाकार सदियों से ‘किस खेत की मूली’
का तमगा चिपकाए आए हैं और चले गए हैं . कई बार मंचों पर जहाँ उद्घोषक महोदय /
महोदया प्रस्तोता कवि खासतौर पर कवियत्री की पूरी जन्म कुण्डली बाँचने के बाद किसी
शायर की पंक्तियाँ उधार लेकर ही उसे ससम्मान बुलाते हैं वहीं हम किसी 'गैर-भाषा-भाषी' की तरह अलग-थलग पड़े अपनी रचना बोलकर चुपचाप अपनी जगह आ बैठते हैं . किसी
को रचना अच्छी लगती भी है तो वह कानों में ही इस तरह फुसफुसाता है कि कोई और न सुनले –"आपकी कविता बढ़िया थी ." इस गुमनामी से तो बाज आए ..भला जंगल में
मोर नाचा किसने देखा ..यहाँ ऑनलाइन मंच पर देश-विदेश में बैठे साहित्यकारों के बीच
अपना नाम बोला जाएगा .फोटो आएगा...समझदार लोग धारा के साथ बहते हैं . जो नहीं बहते वे किनारे पर रेत की तरह पड़े रह जाते है . सोचा कि उजाले में आने के ऐसे सुनहरे अवसर को छोड़ना तो हिमाकत ही
होगी . पर शायद वह हिमाकत न करके बड़ी हिमाकत होगई है हमसे .
अब हाल
यह है कि जहाँ जिस ग्रुप को देखो तमाम परिचित अपरिचित कवि अवतरित हो रहे हैं . और धड़ाधड़ लिख लिखकर ग्रुप में सबको अपने कवित्त्व से परिचित कराने बेताब हैं . उससे भी बड़ी बेताबी है
अपनी रचना पर कमेंट पाने की और दूसरे की पर ठोकने की भी . रचना की पहली लाइन सुनते
ही चिपका देते है--"वाह वाह ,... बधाई , बहुत सुन्दर .क्या कहने ..." तुरत फुरत प्रत्युत्तर भी प्रकट होजाता है --"आभार ,..धन्यवाद ..." मानो
तारीफ करना और पाना रचनाकर्म का अभिन्न अंग है ,रस में अनुभाव की तरह .
तारीफ करने की ऐसी प्रतिस्पर्द्धा तो मातहतों में अपने अधिकारी को खुश करने के
लिये भी नही देखी गई ..
इनकी उर्वरा शक्ति देख एक तो हमें अपनी 'कछुआ-चाल' से बड़ी हीनता और वितृष्णा का बोध हो रहा है . ऊपर से हर रचना की तारीफ में दो शब्द लिखने की अनिवार्य विवशता .. विवशता यों कि 'इस हाथ दे , उस हाथ ले' का चलन इधर भी जोरों पर है अगर आपने आलस्य दिखाया तो आपकी रचना को कोई दो कौड़ी न पूछेगा .बनी रहे कैसी भी पठनीय .सो गज़ब यह कि अपनी एक रचना को पढ़वाने हमें पच्चीस रचनाएं पढ़नी होतीं हैं तारीफ की टिप्पणी करने सहित...
साहित्य समूह इतने होगए हैं कि लगभग हर दूसरे दिन काव्य-गोष्ठी या कथा-गोष्ठी का आयोजन हो रहा है .तीन--चार घंटे मोबाइल सेट हाथ में लिये ऑनलाइन बैठे कविताएं सुनते हुए अपनी रचना पर मिले रेडीमेड कमेंट्स और साथ चिपकी 'पान' वाली इमोजी देखकर पुलकित होते रहते हैं .साथ ही विज्ञापन में जैम की गोलियों की तरह उमड़ती टिप्पणिय़ों को मिटाने के श्रमसाध्य कार्य में अनवरत लगे भी रहते हैं .गज़ब यह कि रचनाओं से अधिक 'बधाइयों और आभारों का अम्बार लगा हुआ है. पुराने जमाने के राजाओं की तरह हर रचना के आगे पीछे पच्चीस-पचास कमेंट्स चलते हैं. झन्न झन्न करते धड़ाधड़ आते मैसेज रचना को दबने से बचाने जिन्हें तुरन्त हटाना भी होता है .. इधर एक हटाया ,उधर रक्तबीज की तरह चार प्रकट ....मानो चुनौती दे रहे हों कि "मिटाओगे..! मिटालो .हम मिट मिटकर भी फिर तुम्हारे सामने आएंगे .."...अलबत्ता मैसेज हटाना भी अब एक बड़ा और जरूरी काम होगया है . मोबाइल फोन जो पहले घंटा दो घंटा आराम कर लेता था अठारह घंटे लगातार सेवा दे रहा है चार्जिंग पर लगे हुए ही....
"इतना समय ! भला क्यों ? गोष्ठी तो बमुश्किल तीन से चार घंटे की मानलो ."
आपके इस संभावित सवाल जबाब है हमारे पास . भई ऐसा है कि आँधी तूफान कितने समय के लिये आता है ,पर बाद में समेटने को कितना कुछ छोड़ जाता है , है कि नहीं ? ब्याह ,जन्मदिन आदि कार्यक्रमों में मिले लिफाफों और उपहारों की तरह अपनी रचना पर मिली ‘टॉनिक टाइप’ टिप्पणियों का लेखा जोखा , और जबाब में उनकी रचनाओं पर टिप्पणियाँ करने का काम तो चलता ही रहता है न ! यह आपसी व्यवहार और शिष्टाचार है जो साहित्य में तो कतई नाजुक मोड में चल रहा है . जरा चूके नहीं कि आप प्योर खुदगर्जों में शामिल ..
हाल यह कि अब हर लेखक श्रोता और पाठक गीता पर हाथ रख शपथ ले चुका है कि मैं जो कुछ कहूँगा तारीफ में ही कहूँगा ..तारीफ के सिवा कुछ नहीं कहूँगा .
इस शिष्टाचार से अब सब खुश हैं . रचनाकार बेशुमार तारीफें बटोरकर और एडमिन जी कुशल संचालन का तमगा पाकर .एक हम हैं जो तय नहीं कर पा रहे कि खुश हैं या.....
इनकी उर्वरा शक्ति देख एक तो हमें अपनी 'कछुआ-चाल' से बड़ी हीनता और वितृष्णा का बोध हो रहा है . ऊपर से हर रचना की तारीफ में दो शब्द लिखने की अनिवार्य विवशता .. विवशता यों कि 'इस हाथ दे , उस हाथ ले' का चलन इधर भी जोरों पर है अगर आपने आलस्य दिखाया तो आपकी रचना को कोई दो कौड़ी न पूछेगा .बनी रहे कैसी भी पठनीय .सो गज़ब यह कि अपनी एक रचना को पढ़वाने हमें पच्चीस रचनाएं पढ़नी होतीं हैं तारीफ की टिप्पणी करने सहित...
साहित्य समूह इतने होगए हैं कि लगभग हर दूसरे दिन काव्य-गोष्ठी या कथा-गोष्ठी का आयोजन हो रहा है .तीन--चार घंटे मोबाइल सेट हाथ में लिये ऑनलाइन बैठे कविताएं सुनते हुए अपनी रचना पर मिले रेडीमेड कमेंट्स और साथ चिपकी 'पान' वाली इमोजी देखकर पुलकित होते रहते हैं .साथ ही विज्ञापन में जैम की गोलियों की तरह उमड़ती टिप्पणिय़ों को मिटाने के श्रमसाध्य कार्य में अनवरत लगे भी रहते हैं .गज़ब यह कि रचनाओं से अधिक 'बधाइयों और आभारों का अम्बार लगा हुआ है. पुराने जमाने के राजाओं की तरह हर रचना के आगे पीछे पच्चीस-पचास कमेंट्स चलते हैं. झन्न झन्न करते धड़ाधड़ आते मैसेज रचना को दबने से बचाने जिन्हें तुरन्त हटाना भी होता है .. इधर एक हटाया ,उधर रक्तबीज की तरह चार प्रकट ....मानो चुनौती दे रहे हों कि "मिटाओगे..! मिटालो .हम मिट मिटकर भी फिर तुम्हारे सामने आएंगे .."...अलबत्ता मैसेज हटाना भी अब एक बड़ा और जरूरी काम होगया है . मोबाइल फोन जो पहले घंटा दो घंटा आराम कर लेता था अठारह घंटे लगातार सेवा दे रहा है चार्जिंग पर लगे हुए ही....
"इतना समय ! भला क्यों ? गोष्ठी तो बमुश्किल तीन से चार घंटे की मानलो ."
आपके इस संभावित सवाल जबाब है हमारे पास . भई ऐसा है कि आँधी तूफान कितने समय के लिये आता है ,पर बाद में समेटने को कितना कुछ छोड़ जाता है , है कि नहीं ? ब्याह ,जन्मदिन आदि कार्यक्रमों में मिले लिफाफों और उपहारों की तरह अपनी रचना पर मिली ‘टॉनिक टाइप’ टिप्पणियों का लेखा जोखा , और जबाब में उनकी रचनाओं पर टिप्पणियाँ करने का काम तो चलता ही रहता है न ! यह आपसी व्यवहार और शिष्टाचार है जो साहित्य में तो कतई नाजुक मोड में चल रहा है . जरा चूके नहीं कि आप प्योर खुदगर्जों में शामिल ..
हाल यह कि अब हर लेखक श्रोता और पाठक गीता पर हाथ रख शपथ ले चुका है कि मैं जो कुछ कहूँगा तारीफ में ही कहूँगा ..तारीफ के सिवा कुछ नहीं कहूँगा .
इस शिष्टाचार से अब सब खुश हैं . रचनाकार बेशुमार तारीफें बटोरकर और एडमिन जी कुशल संचालन का तमगा पाकर .एक हम हैं जो तय नहीं कर पा रहे कि खुश हैं या.....
चलिए इसी बहाने हिन्दी का प्रचार-प्रसार तो होगा ही, ग्रुप एडमिन वालों को भी कुछ दिन खुशियों की सौग़ात मिलेगी तो वे भी खुश हो लेंगे
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी सामयिक प्रस्तुति
सब साहित्यसेवा कर रहे हैं, ऑनलाइन साहित्यसेवा।
जवाब देंहटाएंआपके प्रश्न वाजिब हैं।
जवाब देंहटाएंमैं तो सिर्फ एक दिन ऑनलाइन कवि सम्मेलन में शामिल हुआ किंतु आपकी लिखी सारी समस्याएं झेल नहीं पाया, तो चुपचाप अपने खोल में लौट आया, ऐसा कवि होने से तो मैं अकवि ही अच्छा।
जवाब देंहटाएंरोचक आलेख
जवाब देंहटाएंआपका यही एक साहित्यिक रूप देखना रह गया था और इसपर भी आपने अपनी छाप छोड़ दी है... कविता, आलेख, कहानी, खण्ड काव्य, यात्रा-वृत्तांत, बालगीत और भी कुछ छूट गया हो मुझसे तो वो भी... मैं उन सुखों से वंचित हूँ जिनका उल्लेख आपने यहाँ किया है, इसलिये सुखी हूँ! जिन लोगों ने पढ़ा होगा और सम्मिलित होंगे, उनकी स्थिति सोचकर हँसी आ रही है! परमात्मा उन सभी राइटरों/ पोएटों को सद्बुद्धि दे!!
जवाब देंहटाएंमैं आपको यहाँ देखकर बेहद खुश हूँ . मैं चाहती हूँ कि आपके ब्लाग पर मैं भी जाना शुरु करूँ .आपकी बिहारी बोली बहुत मोहक होती है .
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