19 मई 2021
शीर्षक पढ़कर आपको शायद आचार्य शुक्ल की कहानी याद आ रही होगी लेकिन यह कहानी नहीं वह अवधि है जिसमें मैं काकाजी को याद करते-करते जिया ( माँ ) को भी खो चुकी हूँ . आज उन्हें गए पूरे ग्यारह वर्ष होगए हैं . उनको याद करते हुए मैंने कई संस्मरण लिखे हैं . आज उनके लिये लिखी सबसे पहली रचना को पुनः प्रस्तुत कर रही हूँ .
पिता से आखिरी संवाद
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(1)
आज ..अन्ततः,
तुमने अलविदा कह ही दिया ।
मेरे जनक ।
सब कहते हैं.....और ..मैं भी जानती हूँ कि,
अब कभी नहीं मिलोगे दोबारा..
लेकिन आज भी,
जबकि तुम्हारी धुँधली सी बेवस नजरें,
पुरानी सूखी लकड़ी सी दुर्बल बाँहें,
और पपड़ाए होंठ,
बुदबुदाते हुए से अन्तिम विदा लेरहे थे,
मैं थामना चाह रही थी तुम्हें,
कहना चाहती थी कि,
रुको,..काकाजी ,
अभी कुछ और रुको
शेष रह गया है अभी ,
बाहों में भर कर प्यार करना ,
अपनी उस बेटी को ,
जो कभी पगडण्डियों पर चलते हुए,
दौड़-दौड़ कर पीछा किया करती थी,
तुम्हारे साथ रह कर तुम्हारी उँगली थामने..
रास्ता छोटा हो जाता था
तुमसे गिनती सीखते या
सफेद कमलों के बीच तैरती बतखों को देखते
आज भी.....दुलार को तरसती तुम्हारी वही बेटी
अकेली खड़ी है उन्ही सूनी पथरीली राहों पर ,
अभी तक पहली कक्षा में ही,
आ ,ई , सीखती हुई ,
तलाश रही है राह से गुजरने वाले
हर चेहरे में ।
तुम्हारा ही चेहरा ।
भला ऐसे कोई जाता है
अपनी बेटी को,
सुनसान रास्ते में अकेली छोड़ कर ।
(2)
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यूं तो अब भौतिक रूप से,
तुम्हारे होने का अर्थ रह गया था,
साँस लेना भर एक कंकाल का
धुँधलाई सी आँखों में
तिल-तिल कर सूखना था
पीडा भरी एक नदी का ।
उतर आना था साँझ का
उदास थके डैनों पर ।
लेकिन अजीब लगता है
फूट पडना नर्मदा का
यों थार के मरुस्थल में
पूरे वेग से ।
स्वीकार्य नही है
तुम्हारा जाना
जैसे चले जाना अचानक धूप का
आँगन से, ठिठुरती सर्दी में ।
बहुत अखरता है,
यूँ किसी से कापी छुड़ा लेना
पूरा उत्तर लिखने से पहले ही ।
और बहुत नागवार गुजरता है
छीन लेना गुड़िया , कंगन ,रिबन
किसी बच्ची से
जो खरीदे थे उसने
गाँव की मंगलवारी हाट से ।
(3
इस जीवन के नैसर्गिक अन्त के पहले ही
शायद होने लगता है,
अगले जीवन का आरम्भ ।
विस्मृत होजाती हैं दैहिक (वैचारिक
भी) अनुभूतियाँ ।
फर्क नहीं पडता कि,
मल-मूत्र साफ करने वाला स्त्री
है या पुरुष
बेटा है या बेटी....।
तभी तो ,
तुम होगये थे शिशु जैसे अबोध ।
और तुम्हारी बेटी
माँ जैसी विशाल ..उदार
।
एक ,पिता के पुत्रवत् होजाने..
और एक पुत्री के मातृवत् होने की यात्रा,
एक अद्भुत गाथा है,
स्रष्टि के अलौकिक स्नेह की..
दीदी, काका जी की स्मृति में लिखी गयी इन कविताओं के विषय में कुछ भी कहना अनुचित होगा। क्योंकि ये मात्र रचनाएँ नहीं जिनकी समीक्षा, आलोचना या शिल्प पर चर्चा की जाए। यह एक पुत्री के हृदय की अनुभूतियाँ हैं, जिनकी एकेमात्र साक्षी केवल और केवल वही रही है, इसलिये किसी अन्य व्यक्ति का उस अनुभव पर कोई भी प्रतिक्रिया व्यक्त करना छिछला और ओछा प्रयास ही कहा जाएगा। मैं इन रचनाओं के समक्ष नतग्रीव हूँ और प्रणाम करता हूँ काका जी की स्मृति को और उनकी उस योग्य सुपुत्री की इस रचना को।
जवाब देंहटाएंऔर तीसरी रचना तो मेरी वर्तमान अवस्था को वर्णित करती है, जहाँ मैं अपनी माता का पिता होने का दायित्व निभा रहा हूँ!
मेरा मौन प्रणाम स्वीकार करें दीदी!!
आपकी प्रतिक्रियाएं समृद्ध करती हैं मेरे उद्गारों को . इससे अधिक क्या कहूं .
हटाएंयूं तो अब भौतिक रूप से,
जवाब देंहटाएंतुम्हारे होने का अर्थ रह गया था,
साँस लेना भर एक कंकाल का
धुँधलाई सी आँखों में
तिल-तिल कर सूखना था
पीडा भरी एक नदी का ।
उतर आना था साँझ का
उदास थके डैनों पर ।---बहुत गहरी रचनाएं हैं...
बहुत धन्यवाद संदीप जी .
हटाएंबेटी के मन की स्थिति को दर्शाती बहुत सुंदर रचना दी।
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