सुबह छह बजकर बीस मिनट पर एयरइण्डिया का विमान सिडनी की धरती पर उतरा
तब अनायास ही महसूस हुआ कि मैं अब अपने देश में नहीं हूँ .रही सही कमी एयरपोर्ट पर
होगई जहाँ एक लम्बी लाइन में लगकर लगभग दो घंटे तीन जगह जाँच की प्रक्रिया से
गुजरना पड़ा . हालाँकि सुरक्षा की दृष्टि से यह सभी जगह होता है . लेकिन गोरे
गुलाबी रंग के कर्मचारियों द्वारा अस्पष्ट अंगरेजी में दिये जा रहे निर्देश एक
अजनबीपन का अहसास दे रहे थे .
ढाई साल पहले श्वेता को उसकी कम्पनी ने सिडनी भेजा था . बाद में मयंक
भी आ गया . वे तभी से मुझे अपने पास बुलाने को उत्सुक थे . कोविड का कहर कम होते
ही मयंक ने बीज़ा लेने की तैयारी शुरु करदी थी . बीज़ा मिलते ही तैयारियाँ शुरु हुईँ
. सुलक्षणा व निहाशा ने अपने स्तर पर तो मयंक ने अपने स्तर पर . आखिर पहली बार मैं
इतनी लम्बी विदेश यात्रा करने वाली थी . बच्चों के पास जाने के लिये माँ के सामने
कितनी उलझनें होतीं हैं . क्या ले जाऊँ कितना लेजाऊँ ..श्वेता ने पहले ही कह दिया
माँ आम का अचार जरूर लाना ..सुलक्षणा निहाशा ने अपनी तरफ से कुछ सामान अदम्य और
श्वेता के लिये रखा . कुछ कपड़े श्वेता ने मँगाये . प्रशान्त मिठाई नमकीन ले आया
सो वजन को लेकर बड़ा झमेला हुआ . क्या छोड़ें , क्या रखें ..अन्त में मुझे ही अपनी
साड़ियाँ , किताबें और गरम कपड़े हटाने पड़े .
तमाम देशी विदेशी लोगों के साथ लम्बी लाइन में लगे मैं मन से बैंगलोर
में थी . मुझे नेहा मन्नू और विहान याद आ रहे थे . आँखों में आँसू लिये सुलक्षणा
और जल्दी लौट आने की मूक याचना लिये प्रशान्त याद आ रहा था. सबसे अधिक ईशान की याद
आ रही थी जिसे मैं सोता छोड़ आई थीं . वह हर कमरे में दादी माँ को ढूँढ रहा होगा .
मैं ग्वालियर में अपने मोहल्ले को याद कर रही थी जहाँ मेरे स्वजन हैं . सोच रही थी
कि लोग रहने के लिये विदेश क्यों और क्यों चुन लेते है .
लेकिन पोर्ट से बाहर आने पर विचारों का कोहरा हटा और जैसे धूप खिल आई . मयंक अपने मित्र अमर के साथ मेरी प्रतीक्षा कर रहा था . फिर सुन्दर कुटीरनुमा भवनों और हरी भरी वृक्षावलियों से होते हुए घर आए तो अदम्य और श्वेता से मिलकर मलाल मिट गया .
मयंक ‘पैरामेट्टा’ में रहता है जो मुख्य सिडनी शहर से लगभग 35 कि मी दूर है . हमारे आसपास पंजाब, महाराष्ट्र ,गुजरात और राजस्थान की दुकानें हैं .इसलिये इसे लिटिल इण्डिया कहा जाता है .लोग हिन्दी बोलते हैं . मन को जैसे एक अपनी सी ज़मीन मिल गयी . मुझे हर जगह अपने देश का रंग और खुशबू चाहिये ही .पैरामेटा में हस्सल स्ट्रीट की एक इमारत में मयंक 18 वीं मंजिल पर
रहता है .बड़ी सी बालकनी में हैरिस पार्क से लेकर सिडनी शहर की ऊँची इमारतों तक सब
विहंगम दिखाई देता है . मुझे यों तो ज़मीन पर ही रहना पसन्द है . गाँव और गली
मोहल्लों की आदत है . लेकिन यहाँ जबकि अनजान सड़कों और इमारतों के बीच हम केवल
अपने ही परिचित हैं , नीचे ठहरी हुई सघन वृक्षावलियाँ ,हरे-भरे मैदान और दौड़ता हुए
शहर का विहंगम दृश्य टी वी स्क्रीन पर चल रहे डिस्कवरी के किसी प्रोग्राम जैसा
लगता है . टी वी मोबाइल के साथ आप वैसे भी अकेले नहीं हैं फिर यहाँ तो मयंक और
श्वेता के साथ लाड़ला अदम्य भी है .
अगर मैं देश विदेश से निरपेक्ष होकर देखूँ तो समझ आता है कि वास्तव में लोग रहने के लिये विदेश क्यों चुन लेते हैं . रोजगार और धनार्जन तो एक बड़ा कारण है ही , लेकिन व्यवस्था और सुविधाएं भी अच्छी होती हैं . मैं देखती हूँ कि यहाँ सब कुछ व्यवस्थित है .साफ सुथरा और शान्त है , सुन्दर है . साफ सुन्दर सुरक्षित फुटपाथ हैं . पैदल चलने वालों का बहुत ध्यान रखा जाता है उनके लिये भी सड़क पार करने के लिये लाल हरी बत्ती लगी हुई हैं . यहाँ जीवन और दिनचर्या में किसी का कोई हस्तक्षेप नहीं . अगर आप नियमों का ठीक से पालन करते हैं तो आपको कहीं कोई व्यवधान नहीं . पर्यावरण के प्रति यहाँ बड़ी जागरूकता है . घर में किसी तरह का धुँआ होने पर एक अलार्म बज उठता है . देर तक बजने पर न केवल फायरब्रिगेड आजाती है बल्कि अच्छा खासा जुर्माना भी लगता है इसलिये हवन पूजन घर में नहीं हो सकता .
जहाँ तक अपनी बात कहूँ तो इस सुन्दर देश के सुन्दर शहर में बच्चों के साथ कुछ माह यह सोचकर ही बहुत आनन्द के साथ व्यतीत करने वाली हूँ कि लौटकर जाना तो है ही अपने ही घर .
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (27-04-2022) को चर्चा मंच "अब गर्मी पर चढ़ी जवानी" (चर्चा अंक 4413) पर भी होगी!
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' --
सिडनी हो या दुनिया का कोई भी देश, भारतीय जहाँ भी रहते हैं, भारत उनके साथ रहता है। कुछ लोग व्यवस्था और सुविधाओं की ललक में बाहर जाते हैं तो कुछ लोग अपने काम की वजह से, आज जबकि पूरी दुनिया एक परिवार हो गयी है, बड़ी बड़ी कम्पनियाँ हर देश में अपनी शाखाएँ खोल रही हैं।
जवाब देंहटाएंआदरणीया दी, आपके द्वारा लिखित एक नये रोचक संस्मरण पढ़ना रोमांचित कर रहा है।
जवाब देंहटाएंआप इतना जीवंत चित्रण करती हैं कि सारा दृश्य और यात्रा हम जी लेते हैं।
आगे की डायरी की प्रतीक्षा में हूँ।
सादर।
आपसे विनम्र अनुरोध है कृपया कमेंट्स एप्रूवल हटा लीजिए न ताकि हम पाठकों को महसूस हो कि लेखिका से.सहज संवाद कर पा रहे हैं।
जवाब देंहटाएंसुन्दर, रोचक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंमुझे तो जिस दिन आपने संदेश प्रेषित किया कि आप नई दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से उड़ान भर चुकी हैं, उसी दिन से मुझे प्रतीक्षा थी आपके सिडनी संस्मरण की। यह तो प्रस्तावना है आगे और भी सुंदर स्थलों के मनमोहक विवरण आपसे सुनने को मिलेंगे।
जवाब देंहटाएंआपने लिखा कि लोग बसने विदेश जाते ही क्यों है?मैं भी पहले ऐसा ही सोचती थी पर जब से निमिष बेटे ने वहां बसने का मन बना लिया जमा जमाया बैंगलोर छोड़कर तो मुझे चुप सी लग गई है ।
जवाब देंहटाएंबहरहाल खूब सुंदर चित्रण किया है।
आगे भी इंतजार रहेगा।
आभार दीदी. हम लोग बच्चों की खुशी में खुश होते हैं और सुविधाओं को देखें तो हां विदेशों में रहना अपेक्षाकृत आरामदेह है. पैसा तो एक बड़ा कारण है ही.
हटाएंबहुत सुंदर गिरिजा जी । पराए देश के नितांत अनजान परिवेश में एकाकीपन की अनुभूति के दंश मैं भी भुगत चुकी हूं इसलिए आपकी मनोदशा की हमराह पा रही हूँ स्वयं को । आपके अन्य संस्मरणों की प्रतीक्षा रहेगी । आपकी लेखनी के माध्यम से हम भी ऑस्ट्रेलिया की सैर कर लेंगे ।
जवाब देंहटाएंआभार दीदी. प्लीज़ आगे का भी पढ़ें सिडनी डायरी 2
हटाएंबहुप्रतीक्षित संस्मरण श्रृंखला आज शुरू की । आपकी लेखनी भी तो सिडनी की ही तरह साफ और व्यवस्थित है। लगा, वहीं विचर रही हूँ आपके साथ साथ।
जवाब देंहटाएंआपके आने से लेख की सार्थकता पर जैसे मोहर लग गयी 'जिज्जी'
हटाएंदेश विदेश की सैर जब बच्चों की कामयाबी के साथ करता है आदमी तो कोई भाषा अजनबी नहीं लगती, अपना परिवार हकीकत का सुकून है ... सोच सोचकर ही मुझे खुशी मिलती है और मन कहता है _ आपका समय शुरु होता है अब
जवाब देंहटाएंसुंदर संस्मरण।
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