बद्रीनाथ धाम यात्रा -1
30 अप्रैल 2023
विशाल बदरीनारायण मन्दिर और अलकनन्दा
नर और नारायण पर्वत श्रंखलाओं के बीच रंगों और फूलों से सज्जित बदरी विशाल का भव्य मन्दिर , नील-हरिताभ ( फिरोजी रंग ) धारा वाली निर्मल अलकनन्दा, और घाटी में सीपियों के ढेर जैसा बद्रीनाथ कस्बा जैसे देवताओं की नगरी . मैं विश्वास करना चाहती थी कि मेरी ऐसी कल्पनाएं सच हो चुकी है . सुबह नींद जल्दी खुल गई . बल्कि कहना चाहिये कि सुबह जल्दी होगई .सूर्य रश्मियाँ सबसे पहले शिखरों पर उतरती हैं .फिर क्या वे हमें सोने देतीं ! दूर दूर तक हिमाच्छादित धवल शिखर सुनहरी किरणों के साथ रंग मिला रहे थे . पहाड़ों के प्रति मेरा आकर्षण अनायास ही है .उच्चता के प्रतीक इन उत्तुंग शिखरों को देखकर नत सिर होजाती हूँ. चढ़ना कठिन होता है चाहे पहाड़ हो या चरित्र पहाड़ों को दम साधे मजबूत इरादों के साथ चढ़ा जाता है .चारित्रिक दृढ़ता के लिये अपने मन को नियंत्रित रखना पड़ता है . पाँव पाँव चढ़ने और साधन द्वारा ऊपर पहुँचने में वहीं अन्तर है जो नकल करके अच्छे नम्बर लाने और गहन अध्ययन करके परिणाम पाने में होता है .
30 अप्रैल का दिन खाली था . कथा एक मई से
शुरु होनी थी . तय हुआ कि आज भगवान के दर्शन किये जाएं . रवि ऐसे कामों में बड़ा
सहायक था .उसने बताया कि दर्शनों के लिये सुबह तीन तीन किमी लम्बी लाइन लगती है
अभी बहुत छोटी सी है .मैं तो तैयार ही थी ,साथ में सुनीता ,ऊषा भाभी ,रेखा दर्शनों
के लिये चल पड़े . काफी नीचे ढलान के बाद अलकनन्दा का पुल है फिर लगभग पचास मीटर
ऊँचाई पर शीश ताने भगवान बदरीनारायण का भव्य मन्दिर है जिसे लाल पीले फूलों से
सजाया हुआ था .
.कितनी ही भीड़ हो अगर सही व्यवस्था हो तो दर्शन आसान होजाएं ..रवि जिसे कम कह रहा था उतनी भीड़ भी बहुत ज्यादा थी . अच्छे भले आदमी को कुचल सकने लायक . मैं कुचली तो नहीं गई पर बेहाल ज़रूर हुई . हाँ अन्दर भगवान के समक्ष जो अनुभुति हुई वह अनिर्वचनीय है . सब कुछ पा लेने
जैसा अहसास .केवल एक यही सत्य है और कुछ नहीं . निःशेष होजाना ही शायद मुक्ति है . सारी लालसाएं ,आशाएं शून्य . पर यह क्षणिक था . अगले ही पल धक्कों ने बाहर कर दिया .मुझे लगता है इतनी भीड़ में ऐसे स्थानों पर जाना केवल मन को समझाना है कि हमने दर्शन कर लिये .साथ चलते लोगों को पीछे धकेलकर ,आगे निकलने की प्रवृत्ति ने आस्था को पीछे छोड़ दिया है .एक ही भाव रहता है कि किसी तरह आगे निकलो भगवाने के सामने जाकर कुछ माँगलो और मिल गया दर्शनों का लाभ .पूरी आत्मीयता और कृतज्ञता के साथ ईश्वर के सामने खुद को रखना तो हो ही नहीं पाता . जब तक हृदय द्रवित न हो डोर वहाँ तक नहीं पहुँचती . भीड़ में धक्का खाते कुचलते आस्था कहीं बिखर जाती है . मेरे विचार से हर रजिस्ट्रेशन करने वाले यात्री को दर्शनों की तारीखें और समय दे दिया जाय तो धक्का मुक्की और दूसरी मुश्किल से बचा जा सकता है . यह सोचनीय है कि हमारे तीर्थस्थलों को भी लोगों ने पिकनिक स्पॉट बना लिया है .यातायात की सुविधा ने जहाँ जीवन को आसान बनाया है वहीं प्रदूषण गन्दगी के साथ जीवन को कृत्रिमता की ओर धकेला है.
मन्दिर के नीचे अलकनन्दा को देखना
तकलीफदेह था . नदी
के आस पास भी निर्माण कार्य जारी हैं. आसपास
कंकरीट और मलबे के ढेर कारण धारा सँकरी होगई .पर्याप्त जगह न पाकर सौम्य
जीवनदायिनी अलकनन्दा की गर्जना भय उत्पन्न करती है मानो कह रही हो कि तुम मेरी
सीमाएं दबा रहे हो ,कल मेरे कारण तुम्हारे प्राणों पर आ बने तो मुझे दोष मत देना .भूल
गए उस प्रलय को .
विकास के लिये पहाड़ों का सीना चीरते देखकर क्या कम कष्ट हुआ . अच्छी सड़कों के कारण अधिक से अधिक वाहन आ रहे हैं .नई पार्किंग के लिये जगह चाहिये . लोगों को ठहरने के लिये गेस्टहाउस , धर्मशाला चाहिये .ज्यादा लोगों के लिये बाजार भी विस्तार ले रहा है .बाजार प्रकृति को निगल रहा है .धरती की छाती पर बुडोजर चलाए जा रहे हैं .पहाड़ों के हाथ काटे जा रहे हैं . सच कहूँ तो इस विचार के बाद मेरा मन थोड़ा अशान्त होगया . मानव को सुविधाएं भी चाहिये , एक दिन वह बिगड़े पर्यावरण , अति वृष्टि अनावृष्टि की शिकायत भी करेगा ..कर रहा है . कहावत है कि ,हँसलो या गाल फुलालो . अगर जाने की क्षमता नहीं है तो क्यों जाना तीर्थों में . क्यों चाहिये हैलीकॉप्टर ..
1मई को सुबह अलकनन्दा से विधिवत् पूजन के
बाद कलश भरकर लाए गए और श्रीमद्भागवत् कथा प्रारम्भ हुई . कथावाचक श्री आकाश
उनियाल थे . साथ ही उनके पिता और अन्य परिजन भी बैठे . मेरी योजना कथा के बीच ही वहीं
से रवि या किसी अन्य विश्वासपात्र के साथ केदार नाथ गंगोत्री यमुनोत्री जाने की थी लेकिन उसी दिन बारिश और
उसके बाद हिमपात शुरु होगया था . केदारनाथ धाम की यात्रा स्थगित करदी गई ..हिमपात
देखना अनूठा अनुभव था . इसे देखने लोग हफ्तों इन्तज़ार करते हैं . पर हमें वह सहज
उपलब्ध हुआ . सर्दी काफी बढ़ गई थी . कहीं आना जाना संभव नहीं था . लेकिन उस
कड़कती सर्दी मैं बच्चे बूढ़े एक एक वस्त्र में लिपटे दर्शनार्थ चले आरहे थे . यह
उनकी आस्था का ही बल था .खराब मौसम के बावजूद ,सारी सुविधाएं ,गरम पानी ,चाय
नाश्ता ,खाना सारी व्यवस्थाएं सुचारु थीं इसके लिये भाई किसन और भाभी ऊषा का विशेष
सहयोग रहा .रवि भी बराबर सहयोग करता रहा . उर्मिला घुटनों के दर्द से परेशान थी
लेकिन व्यवस्थाओं में कहीं कोई कमी नहीं आने दी .यह बात मुझे निश्चित ही प्रभावित
कर रही थी . मैं यह देखकर भी चकित थी .
आगे भी जारी....
सुंदर संस्मरण
जवाब देंहटाएंबहुत धन्यवाद
हटाएंतीर्थ स्थानों पर बढ़ती हुई भीड़ वाक़ई चिंता का विषय है, धक्का-मुक्की में हार्दिक प्रार्थना कितनी पहुँच पाती होगी, पर्यटन स्थल और तीर्थ स्थलों में कुछ तो भेद रखना होगा समाज व सरकार को, वैसे आपका विवरण सदा की भाँति अति रोचक है।
जवाब देंहटाएंबहुत आभार अनीता जी आप के शब्द मुझे आगे बढ़ाते हैं।
हटाएंबहुत आभार अनीता जी आप के शब्द मुझे आगे बढ़ाते हैं।
हटाएंसुन्दर यात्रा वृतांत
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद जोशी जी
हटाएंबहुत सुंदर संस्मरण लिखा है आपने दीदी।
जवाब देंहटाएंप्रकृति और मानव के व्यवहार का सूक्ष्म विश्लेषण आपकी लेखनी बखूबी करती है।
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार ३० अप्रैल २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बहुत बहुत धन्यवाद श्वेता
हटाएंबहुत बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद आलोक जी
हटाएंबद्रीनाथ धाम एक पूरा शहर है। 1990 में जब हम है थे, तब भी वहां बहुमंजिला होटल बने हुए थे। अब तो पता नहीं क्या हाल होगा। सुंदर यात्रा वृतांत।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर और उपयोगी यात्रा वृतांत।
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद दराल साहब
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